मन और हाथी (Kahani)

September 1995

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रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे-एक हाथी है, उसे नहला-धुला कर छोड़ दो, तब फिर वह क्या करेगा? मिट्टी में खेलेगा और शरीर को फिर गन्दा कर लेगा। कोई उस पर बैठे, तो उसका शरीर भी गन्दा अवश्य होगा। लेकिन यदि हाथी को स्नान कराने के बाद बाड़े में बाँध दिया जाय? तब फिर हाथी अपना शरीर गन्दा नहीं कर सकेगा। मनुष्य का मन भी एक हाथी के समान है। एक बार ध्यान, साधना और भगवान के भजन से वह शुद्ध हो गया, तो उसे स्वतन्त्र नहीं कर देना चाहिए। इस संसार में पवित्रता भी है, गन्दगी भी है। मन का स्वभाव है, वह गन्दगी में जायेगा और मनुष्य देह को दूषित करने से नहीं चूकेगा। इसलिए उसे गन्दगी से बचाये रखने के लिए एक बाड़े की जरूरत होती है, जिसमें वह घिरा रहे। गन्दगी की सम्भावनाओं वाले स्थानों में न जा सके।

“ईश्वर भजन, उसका निरन्तर ध्यान एक बाड़ा है, जिसमें मन को बन्द रखा जाना चाहिए, तभी साँसारिक संसर्ग से उत्पन्न दोष और मलिनता से बचाव संभव है। भगवान् को बार-बार याद करते रहोगे तो मन अस्थायी सुखों के आकर्षण और पाप से बचा रहेगा और आपने जीवन के स्थायी लक्ष्य की याद बनी रहेगी। उस समय दूषित सुखों के आकर्षण और पाप से बचा रहेगा और अपने जीवन के स्थायी लक्ष्य की बनी रहेगी। उस समय दूषित वासनाओं में पड़ने से स्वतः भय उत्पन्न होगा और मनुष्य उस पाप कर्म से बच जायेगा, जिसके कारण वह बार-बार अपवित्रता और मलीनता उत्पन्न कर लिया करता है।”


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