धर्म शाश्वत है, चरित्र अविनाशी

September 1995

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भगवान भास्कर शीर्ष से दक्षिणावर्त हो चुके थे, तथापि उनकी प्रखरता अभी कम नहीं हुई। यही कारण था कि मगध निवासी अभी तक मध्याह्न विश्राम कर रहे थे। पक्षी अपने-अपने कोटरों से बाहर निकलने से सकुचा रहे थे। राजहंस अवश्य अपनी हंसिनी प्रेयसी के साथ जलक्रीड़ा में निमग्न था। उसकी क्रीड़ा से स्पन्दित तरंग राज सरोवर के किनारों को थपकियाँ देतीं और साथ ही कमलिनी नाच उठती। लग रहा था कि ग्रीष्म की प्रखरता का राजोद्यान पर कोई प्रभाव नहीं है। न तो उसकी सुषमा यत्किंचित् म्लान हुई और न सौरभ मुरझाया। उपवन में प्रातः काल जैसा मादक सौंदर्य अब भी बिखरा पड़ रहा था।

आम्र निकुँज के सघन एकान्त में राजकुमार कुणाल बैठे थे। उनकी मुख-मुद्रा बताती थी कि वे किसी विचार में खोये हैं। यह समाधि न जाने कब तक चलती कि सहसा लौध्र पुष्पों की सुन्दर सुवास नासा-रंध्रों को पार कर उनके मर्म स्थल को आलोड़ित करने लगी। नूपुर और पायलों की मन्द मोहक मधुर ध्वनि इस तरह सुनाई दी मानों स्वर्ग से कला साम्राज्ञी उर्वशी का पदार्पण हो रहा हो? कुणाल चौंके-कौन आ रहा है यह देखने के लिए जब तक नयन उठे तब तक सौंदर्य की प्रतिकृति महारानी तिष्यरक्षिता सम्मुख आ उपस्थित हुईं। उनका वेश विन्यास, नेत्रों की चपलता और मुखड़े की मादकता देखकर रति निष्प्रभ पड़ जातीं। तिष्यरक्षिता का यह सौंदर्य देखकर लताओं में भी काम भाव छा गया। मनुष्य निह्नल हो जाता तो यह कोई बड़ी बात न होती।

माता। आप? युवराज कुणाल अब तक खड़े हो चुके थे, और सस्मित पूछ रहे थे-आप स्वस्थ तो हैं न? आर्य श्रेष्ठ विश्राम कर रहे होंगे। आज्ञा करती वहीं आ जाता, यहाँ तक आने का कष्ट आपने क्यों किया?”

“दीपशिखा का रूप देखकर पतंग वर्तन क्यों करता है युवराज?” तिष्यरक्षिता कह रहीं थीं - “कलिका का केसर चूमने के लिए भौंरा क्यों उड़ कर आता है? कुणाल। पावस ऋतु आने पर पथिकगण सहसा अपने घरों की ओर क्यों मुड़ पड़ते हैं? यह भी कुछ बताने की बात है राजकुमार कि लतिका तरु का सघन सान्निध्य प्राप्त करने के लिए क्यों आतुर हो उठती है?”

यह सब सुनकर कुणाल मर्माहत हो उठे? “आप मेरी माँ के समान हैं भद्रे। आर्यश्रेष्ठ के लिए आप तीसरी धर्म पत्नी होंगी। मैंने तो आपको सदैव अपनी माँ के रूप में ही देखा है। फिर मेरे साथ यह प्रवंचना कैसी? नारी धर्म से विचलित मत हूजिए माँ?” कहते-कहते कुणाल के स्वर में कुछ तीक्ष्णता आ गई।

“कुणाल! सम्बन्ध बनाना बिगाड़ना मनुष्य के हाथ की बात है। महाराज अशोक से विवाह मेरे शरीर ने किया है, मन ने नहीं। मन से तो सदा मैंने तुम्हें अपना देवता माना है।”

“यह प्रताड़ना है देवि! आर्य सन्तानें नीति-धर्म का पालन करती है। हम धर्म के लिए जीवन का त्याग करते हैं। जीवन के क्षणिक सुखों के लिए धर्म का नहीं। मेरी सहचरी आप नहीं हो सकतीं। आप तो मेरी पूज्या हैं, माँ है। आपकी मनोकामना पूर्ण करना मेरे लिए सर्वथा असम्भव है।”

यह कहकर कुणाल एक ओर चल दिए। महारानी तिष्यरक्षिता ने इसे अपने सौंदर्य का अपमान समझा और कहा - “सोच लो कुणाल, तुम्हारी जिन आँखों पर मैं मुग्ध हुई उन्हें ही निकलवा न लूँ तो मैं भी मगध साम्राज्ञी नहीं। न तुम्हारा युवराज भुवन मोहन सौंदर्य। मेरे अपमान के लिए तुम्हें एक दिन पछताना पड़ेगा।”

कुणाल एक क्षण रुके, पीठ फेरे हुए बोले- “माँ का हर प्रसाद शिरोधार्य है पुत्र को।

वैसे युवराज पद हो अथवा हाड़-माँस के इस पुतले में भासित होने वाली सुन्दरता दोनों ही नश्वर है। धर्म शाश्वत है, चरित्र अविनाशी है। इसे अपनाकर मैं पूर्ण सन्तुष्ट हूँ” और चरित्र के धनी कुणाल वहाँ से क्षिप्र गति से दूर-बहुत दूर चले गए रुके नहीं। इतिहास साक्षी है कि उनकी आँखें निकलवा ली गईं, पर वे अपने पथ से विचलित नहीं हुए। उन्होंने प्रमाणित कर दिया कि धर्म शाश्वत है और चरित्र अविनाशी।


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