महानता के साथ संपर्क साधकर उस सहयोग का सुयोग पा लेना एक अप्रत्याशित सौभाग्य है जो कभी-कभी मनुष्य को मिलता है। ऐसे अवसर सदा-सर्वदा हर किसी को नहीं मिलते। पारस पत्थर को स्पर्श कर काले कुरूप और सस्ते मोल वाले लोहे का सोने जैसी गौरवास्पद बहुमूल्य धातु में बदल जाना संपर्क का परिणाम है। स्वाति की बूँदों से लाभान्वित होने पर सीप जैसी उपेक्षित इकाई को मूल्यवान मोती प्रसव करने का श्रेय मिलता है। पेड़ से लिपट कर चलने वाली बेल उसी के बराबर ऊँची जा पहुँचती और अपनी उस प्रगति पर गर्व करती है। अपने बलबूते वह मात्र जमीन पर थोड़ी दूर रेंग ही सकती थी किन्तु उसकी दुर्बल काया को देखकर इतने ऊँचे चढ़ जाने की बात साधारण बुद्धि की समझ में नहीं आती किन्तु पेड़ का सान्निध्य और लिपट पड़ने का पुरुषार्थ जब सोना-सुहागा बनाकर समन्वय बनाता है तो उससे महान पक्ष की कोई हानि नहीं होती, पर दुर्बल पक्ष को अनायास ही दैवी वरदान जैसा लाभ मिल जाता है। समर्पण के सामीप्य को महानता के साथ जुड़ने के ये कुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि व्यक्ति के लिए वरेण्य क्या है।
दैवी प्रयोजनों में यदि क्षुद्र से जीव भी तनिक-सा सहयोग करें तो दैवी सहायता अपरिमित परिमाण में पाते है। बन्दरों की समुद्र पर पुल बनाने की उदार श्रमशीलता एवं गिलहरी की बालू से समुद्र को पाटने की निष्ठा ने उन्हें ऐतिहासिक बना दिया। सुग्रीव के सहयोगी-खोह कन्दरा में आश्रम हेतु भटकने वाले हनुमान जब श्रीराम के सहयोगी बन गये तो पर्वत उठाने, समुद्र लाँघने, लंका जलाने जैसा असंभव पराक्रम दिखाकर युद्ध में जीत का निमित्त बन राम पंचायतन का एक अंग बन गए। अर्जुन-भीम वे ही थे जिनने द्रौपदी को निर्वसन होते आँखों से देखा व वनवास के समय पेट भरने और जान बचाने के लिए जिन्हें बहुरूपिये बन कर दिन गुजारने पड़े थे। श्री कृष्ण रूपी महान सत्ता को अपनाने वाली उनकी बुद्धिमत्ता ने उन्हें महाभारत के-विराट भारत के निर्माण का श्रेयाधिकारी बना दिया।
यह सुनिश्चित तथ्य है कि जिस किसी पर भगवत्कृपा बरसती है वह महानता से अपना नाता जोड़ने की सूझबूझ-सत्प्रेरणा के रूप में ही बरसती है। आज की विषम परिस्थितियों में यदि यह तथ्य हम सब भी सीख-समझ कर महानता को अपना सकें तो निश्चित ही उस श्रेय को प्राप्त करेंगे जो प्रज्ञावतार की सत्ता उस संधिकाल की विषम वेला में अनायास ही हमें देना चाहती है।