युगपरिवर्तन की वेला में आया है यह महायज्ञ - धर्मतंत्र सँभालें भावनात्मक परिष्कार की महती जिम्मेदारी

September 1995

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आज विश्व में दो ही शक्तियों का बोलबाला है। एक राजतंत्र और दूसरा धर्मतंत्र। दोनों यों तो स्वतंत्र विधाएँ हैं, किंतु नासमझी में हम दोनों में पारस्परिक मिलावट करते रहते हैं, इसी कारण इनका सुनियोजन नहीं हो पाता, न जनमानस इनके सही स्वरूप को समझ पाता हैं राजतंत्र वह है जो राज्य या राष्ट्र की सुरक्षा- आंतरिक कानून−व्यवस्था एवं राजस्व जुटाकर जनसामान्य की प्रति के सरंजाम जुटाने के हेतु संकल्पित एक तंत्र है। धर्मतंत्र व्यक्ति की सदाशयता को- सद्भावना को उसके आँतरिक उत्कर्ष के निमित्त नियोजित करने हेतु मार्गदर्शन करने वाला एक ऋषिकालीन तंत्र है, जिसके कारण हमारी शाश्वत-सनातन संस्कृति अभी तक अक्षुण्ण रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए है। न जाने कितनी सभ्यताएँ, संस्कृति आई, किंतु समय के प्रभाव से वे विलुप्त होती चली गईं। किंतु यह हमारी भारतीय संस्कृति ही है, जिसने अपना समरसता का, सहिष्णुता का स्वरूप बनाए रख सारे विश्व का मार्गदर्शन सतत् किया है और इसका श्रेय जागृत प्रगतिशील धर्मतंत्र को जाता है।

राजतंत्री शक्ति के प्रभाव के औचित्य-अनौचित्य पर विचार न कर येन-केन प्रकारेण किसी राष्ट्र के तंत्र का संचालन करता हैं कूटनीति एवं छल उसके रग–रग में समाए हुए हैं। यदि ये न हों तो संभवतः कोई शासक अपना अस्तित्व ही न बचा सके। राजतंत्र कभी राजा-महाराजाओं जमींदारों, सामंतशाही नवाबों के शासन के रूप में था, पर अब वह समाप्तप्राय है। इंग्लैंड की रानी, स्पेन, हालैंड जापान आदि देशों के राज-प्रमुखों का अभी भी अस्तित्व है, पर वे अब सक्रिय राजनीति के रूप में नहीं, एक मोहर मात्र लगाने हेतु प्रयुक्त होते हैं। कभी “इंग्लैंड के साम्राज्य में सूरज कभी डूबता नहीं” यह अत्युक्ति कही जाती थी एवं औपनिवेशिक साम्राज्य के रूप में सारी धरती तो नहीं, पर तीन-चौथाई पर तो उनका शासन था ही। लोकशाही की हवा आई एवं उस प्रवाह में सारे तंत्र का स्वरूप बदल गया। राजतंत्र का एक और स्वरूप हमें मजदूरों के रहनुमा के रूप में उभरे साम्यवादी तानाशाहों के रूप में देखने को मिलता हैं कार्लमार्क्स व लेनिन के सिद्धांतों को भुलाकर एशिया, पूर्वी यूरोप, चीन आदि सभी देशों में जनता ने इसे भी ठुकरा दिया। एक उदारवाद की लहर आई एवं उसमें सारा तथाकथित साम्यवाद बर्लिन की दीवार ढहने के साथ चरमरा गया। आज इन सभी देशों में उलटे उपभोक्तावाद, भोगवाद, पूँजीवाद, सुख-सुविधावाद की होड़ लगी है। एक अति के बाद दूसरी अति। कहीं-न कहीं कोई त्रुटि रही होगी। तभी आज उस तंत्र का सिद्धांत-हीनता के कारण अस्तित्व समाप्तप्राय-सा है।

राजतंत्र की ही बात करें तो इसके दुरुपयोग के रूप में हिटलर-मुसोलिनी की तानाशाही व उसके परिणाम के रूप के रूप में हुआ एक भयावह नरसंहार, द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका तथा परमाणु बत का पहला विस्फोट याद आता है और अंदर से हिलाकर रख देता है। सभी अफ्रीकी देश प्रायः तानाशाहों, मिलिट्री शासकों की गिरफ्त में रहे हैं। सबने जी भरकर शोषण किया व अपनी देश की अर्थ-व्यवस्था को चरमरा कर रख दिया है। चाहे वह केन्या हो, मलाबी, काँगो या जाँबिया अथवा बुरुंडी, अंगोला सभी देशों में आज भी लोकतंत्र पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाया है। लेटिन अमेरिका (दक्षिण अमेरिका) व मध्य अमेरिका का इतिहास तो रक्तरंजित कारनामों से भरा पड़ा है। देख-देखकर लगता है कि वाकई एक जन-जन को मार्गदर्शन देने वाली विधा का मानवता के विकास के लिए नहीं, विनाश के लिए प्रयोग हुआ है। जिस महाशक्ति के पास कहने को तो लोकतंत्र है व सारे विश्व की अगुआई करने का दावा करता है, वह स्वयं हथियारों के निर्माण व उनकी उपर्युक्त राष्ट्रों में बिक्री से अपना आर्थिक क्षेत्र में वर्चस्व स्थापित किए हैं। जिस दिन वह यह सब बंद कर देगा, उसका पूँजीवाद एवं तथाकथित लोकशाही ध्वस्त हो जाएगी।

1947 में स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद एक विराट लोकतंत्र के रूप में भारत उभरकर आया हैं उसके चारों तरफ ही नहीं, विश्वभर में सरकारें लोकतंत्र के दायरे से बाहर निकलती चली गई, किंतु भारतवर्ष में अभी भी चुनाव के आधार पर जन-नेता चुने जाते हैं एवं वे राष्ट्र का मार्गदर्शन करते हैं। सारी उपलब्धियों के बावजूद-लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाए रखने पर प्रशस्ति के बावजूद विगत बीस-पच्चीस वर्षों से राजतंत्र को जो स्वरूप अपने देश में देखा जा रहा है, उससे लगता है कि यह तंत्र कहीं इतना विकृत तो नहीं हो गया कि इसके आमूलचूल परिष्कार हेतु प्रबुद्धों, प्रतिभाओं को, जनचेतना को जगाने हेतु आगे आना पड़े। इस अंक में इस विषय पर कई लेख विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र (1 अरब जनसंख्या, प्रायः 60 करोड़ से अधिक मतदाता) एवं इस माह हो रहे चुनाव पर लिखे गए हैं। क्या इस विषय में अध्यात्मतंत्र की- परिष्कृत धर्मतंत्र की कोई भूमिका हो सकती है, इसे प्रासंगिक मानते हुए यह संपादकीय लिखा मतदाता) एवं इस माह हो रहे चुनाव पु लिखे गए हैं। क्या इस विषय में अध्यात्मतंत्र की -परिष्कृत धर्मतंत्र की कोई भूमिका हो सकती है, इसे प्रासंगिक मानते हुए यह संपादकीय लिखा जा रहा है। विकृति तो राजतंत्र में थोड़ा बाद में परिलक्षित होने लगी, किंतु इसके बीज स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महात्मा गाँधी की अपनी संस्था काँग्रेस को लोकसेवी तंत्र के रूप में ‘डिजाल्व कर राजनीति से परे चलने की सलाह की अवज्ञा के साथ ही डल गए थे। शासनतंत्र में भ्रष्टाचार, भाई- भतीजावाद, कुर्सी से चिपके रहना, दल बदलना एवं अशोभनीय आचरण का क्रम थोड़ा बाद से चला गया एवं परिणति निकली- इस विराट तंत्र के विघटन एवं कुछ समय बाद राष्ट्र में पहली बार सैनिक शासन स्तर की ‘इमरजेंसी लागू होने के रूप में तब से अब तक के 24 वर्षों में कितनी सरकारें बनी हैं- कितने अधिक क्षेत्रीय दल बन गए हैं एवं कितनी अल्पावधि की सरकारें बनी है, यह आँकड़े देखकर दिमाग चकरा जाता है। जब राष्ट्र के नागरिकों की मूलभूत आवश्यकता न पूरी हो पा रही हों, शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी नितांत जरूरी विधाओं के लिए बजट में प्रावधान एक -चौथाई से भी कम हो, तब चुनाव हेतु अरबों की राशि खर्च करना व वही निष्कर्ष बार-बार हाथ लगना क्या सिद्ध करता है? यही कि अब सबके मिल-बैठकर इस तंत्र की उपयोगिता-अनुपयोगिता पर चर्चा करने का समय आ गया। गायत्री परिवार सारे विश्व में छाया हुआ है। धर्मतंत्र में एक बहुत बड़े तंत्र के रूप में प्रखर व उज्ज्वल इसकी छवि है। कई लोग पूछते हैं कि युग-निर्माण को तत्पर यह विराट संगठन सारे रचनात्मक कार्य करने में लगा है, क्यों वह राजतंत्र को परिष्कृत करता? क्यों वह राजतंत्र में अपनी भागीदारी को संकल्पित नहीं होता। ऐसा समय- समय पर अपने कई ऐसे परिजन भी पूछते रहते हैं, इसी कारण जागने लगी है कि इस विराट तंत्र से जुड़े लोगों का वे प्रतिनिधित्व संसद में कर सकेंगे। हमें समय-समय पर ऐसी असमंजस भरी घड़ियों में परमपूज्य गुरुदेव का अक्टूबर 1970 में लिखे ‘ हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते’ तथा फरवरी 1970 में लिखे ‘अध्यात्म विकृत नहीं परिष्कृत रूप में ही जी सकेगा’ ये दो संपादकीय पढ़कर सारा समाधान मिल जाता है। सभी परिजन भी राष्ट्र में सक्रिय विघटन-कारी शक्तियों के चलते माहौल में जब चुनाव संपन्न हो रहे हैं, इन्हें जान सकें, इसलिए यहाँ कुछ सटीक मार्गदर्शन, अपने आराध्य सत्ता की लेखनी के माध्यम से ही दिया जा रहा है। यह युगसंधि की प्रस्तुत वेला में प्रखर साधना वर्ष की समापन की समापन की अवधि व महापूर्णाहुति की तैयारी में संलग्न परिजनों का निश्चित ही समाधान करेगा, उनके मनोबल को ऊँचा उठायेगा। इससे पूर्व जुलाई 1961 में लिखे पूज्यवर के लिखे एक लेख प्रतिष्ठापना होनी ही है’, (पृष्ठ 60) के कुछ अंश उद्धत हैं।

पूज्यवर लिखते हैं- “अगला समय अनीति सहन नहीं करेगा, भले ही वह किसी वर्ग की क्यों न हो। राजतंत्र समाप्त हो गए, अब वर्ग तंत्र भी समाप्त होने जा रहा है। नए युग में किसी को इस आधार पर ऊँचा-नीचा न माना जाएगा कि उसका अमुक वंश में जन्म हुआ है। बड़प्पन के आधार केवल गुण-कर्म-स्वभाव रह जाएँगे। रंग, जाति, लिंग या वंश के आधार पर किसी को न तो अहंकार करने का अवसर ही रहेगा और न इस कारण किसी की हीनता-दीनता अनुभव करने पड़ेगी।” आज जो स्थिति जाति- भेदपरक राजनीति-वंशवाद पर टिकी राजनीति-वंशवाद पर टिकी राजनीति एवं लिंग-भेदपरक अव्यवस्थित सामाजिक ढाँचे के कारण पैदा हुई है, उसका समाधान परमपूज्य गुरुदेव के उपर्युक्त संकल्प में देखा जा सकता है। इसी लेख में वे आगे कहते हैं- अपनों से अपनी बात कहते हुए हमें इन पंक्तियों द्वारा यह स्पष्ट कर देना है कि नया युग तेजी से बढ़ता चला आ रहा है। उसे कोई रोक न सकेगा। महाकाल उसके लिए आवश्यक व्यवस्था बना रहे हैं और तदनुकूल व्यवस्था बना रहे हैं और तदनुकूल आधार उत्पन्न कर रहे हैं। युग का परिवर्तन अवश्यंभावी है।.... हमने अपना जीवन नवयुग की पूर्व सूचना देने- महाकाल के इस महान प्रयोजन में सम्मिलित होने के लिए प्रबुद्ध आत्माओं को निमंत्रण में लगा दिया। जिस काम लिए हम आए थे, वह पूरा होने को है। अगला काम महाकाल स्वयं करेंगे। अगले दिनों उनकी प्रेरणा से एक-से एक बढ़कर प्रतिभाशाली और प्रबुद्ध आत्माएँ सामने आएँगी। ये ऐसा एक व्यापक संघर्ष विश्वव्यापी परिमाण में प्रस्तुत कर सकेंगी, जो असमानता के सारे कारणों को तोड़ मरोड़ कर फेंक दे और समता की मंगलमयी परिस्थितियों का शुभारंभ करके इसी धरती पर स्वर्ग का वातावरण संभव कर दिखाए।

उपर्युक्त पंक्तियाँ जो आज से तीस वर्ष पूर्व लिखी गई थीं, इसीलिए उद्धत की गईं कि हम अपने स्वरूप एवं अपनी भूमिका को विकृत राजतंत्र की विनाशकारी भूमिका के परिप्रेक्ष्य में समझ सकें।

आगे 1970 की अक्टूबर पत्रिका में गुरुसत्ता हमें धर्म और राजनीति के पारस्परिक संबंधों के विषय में बताते हुए हमार मार्गदर्शन भी करती है कि क्या करना है- कैसे किया जाना है। वे लिखते हैं कि “ इतिहास ने हमें सिखाया है कि धर्म की स्थापना में राजनीति का सहयोग आवश्यक है और राजनीति के मदोन्मत्त हाथी पर धर्म का अंकुश रहना ही चाहिए। दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं वरन् पूरक हैं।” यहाँ उनकी लेखनी बड़ा स्पष्ट करती है कि परिष्कृत धर्मतंत्र ही राजनीति की उन्मत्तता से भरी निरंकुश दौड़ पर अनुशासन का अंकुश लगा सकता है। पर उसका स्वरूप क्या हो? गुरुदेव लिखते हैं- “शासनतंत्र की असफलता से हम दुखी हैं बहुत खेद है कि विगत 22 वर्षों (1947 से 1961) में जितना बढ़ा जा सकता था, उतना में जितना बढ़ा जा सकता था, उतना बढ़ा जा सकता था, उतना नहीं बढ़ा गया। प्रगति कुछ भी न हुई हो से बढ़ा नहीं, पर दूसरे देशों की तुलना में हमारी चाल इतनी धीमी है कि इस क्रम से हजारों वर्ष में भी प्रगतिशील देशों की पंक्ति में भौतिक दृष्टि से हम खड़े न हो सकेंगे। गाँधी जी के धर्मराज्य, रामराज्य और विश्वमंगल की आध्यात्मिक प्रगति तो अभी लाखों मील आगे की बात है।” आगे वे लिखते हैं कि “आज जनता का स्तर ही ऐसा है कि वह वोट का मूल्य और उसके दूरगामी परिणामों को अभी समझ ही नहीं पाई झाँसेपट्टी और वास्तविकता का अंतर करना उसे आया ही नहीं। इसलिए चुनाव में वे लोग न जीव सके जो रामराज्य स्थापित करने में सचमुच समर्थ हो सकते थे। जनता ने अपने स्तर के विधायक व सांसद चुने। उनने अपने स्तर की सरकारें बनाई। उन सरकारों के संचालकों ने वही किया जो जनता कर रही है या कर सकती है। जड़ के आधार पर पत्ते बनते हैं। धतूरे के बीज से उगे पौधे पर शहतूत कहाँ से लगें।”

परमपूज्य गुरुदेव का सीधा जोर जनता के मानसिक स्तर को उठाने पर उपर्युक्त पंक्तियों में परिलक्षित होता है। जिस बौद्धिक, सामाजिक व नैतिक क्राँति की अपेक्षा थी, उस दिशा में बहुमुखी प्रयास न होने की असफलता को स्वयं स्वीकारते हुए पूज्यवर कहते है कि बिना अध्यात्मतंत्र द्वारा लोकशक्ति का भावात्मक परिष्कार किए सारे राजतंत्र के ढाँचे को बदलने की कल्पना करना भी हास्यास्पद है। इसी लेख में पृष्ठ 59 पर वे आगे लिखते हैं- “प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि शासन संचालन करने वाली मशीन कैसे उत्कृष्ट बने? तारे फिर बात लौटकर वहीं आ जाती है। सरकारी कर्मचारी आकाश से नहीं उतरते। वे जनता के ही बालक होते हैं। नौकरी पाते ही वे सारे संस्कार भुलाकर देवता बन जाएँ, यह आशा करना व्यर्थ है। इसी प्रकार पैसे लेकर वोट बेचने वाली, व्यक्तिगत या क्षेत्रीय लाभ के प्रयोजनों से आकर्षित होने वाली अदूरदर्शी जनता से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह उन्हें चुनेगी जो सुयोग्य एवं आदर्शवादी तो हैं, पर पैसा लुटाने या बहकाने वाले हथकंडे अपनाने में समर्थ नहीं। यह एक सच्चाई है कि प्रजातंत्र में जनता के स्तर की ही सरकार बनती है और उसी स्तर की सरकारी मशीनी चलती है।”

स्वतंत्रता संग्राम में 13 वर्ष ते अपनी साधना के साथ-साथ निरंतर मोर्चे पर लड़ते रहने वाले सैनिक के रूप में परमपूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम ‘मत्त’ जी ने निष्कर्ष आजादी के 24 वर्ष बाद दिए, निश्चित ही उसके पीछे उनके जीवन के 45 महत्त्वपूर्ण वर्षों कि गहन चिंतन एवं द्रष्टा स्तर की शक्ति ही थी वे लिखते हैं कि “दूसरे सैनिकों ने अपनी वर्दियाँ उतार दीं और राजमुकुट पहन लिए, पर अपने लिए आजीवन उस चिंतन-लक्ष्य की ओर चलते रहना ही धर्म बन गया है, जिसके ऊपर राष्ट्र की सर्वतोमुखी समर्थता निर्भर है। हमार विश्वास है कि बौद्धिक क्राँति की त्रिवेणी बहाए बिना तीर्थराज न बनेगा और उसमें स्नान किए बिना हमारे पाप ताप न कटेंगे। जन जागरण और लोकमानस में उत्कृष्टता आदर्शवादिता का बीजांकुर बोया जाना वस्तुतः इस धरती पर स्वर्ग के अवतरण का अभिनव प्रयोग हैं हम इसी दूरगामी परिणाम वाली प्रक्रिया को हाथ में लेकर धर्म, साहस, निश्चय और प्रबल पुरुषार्थ के सहारे आगे बढ़ रहे हैं।

पूज्यवर सारे चिंतन का निचोड़ इन शब्दों में व्यक्त कर हमारा समाधान कर देते है। भौतिक सुधार करना राजतंत्र का क्षेत्र हैं भावनात्मक सुधार के लिए प्रजातंत्र के वातावरण में केवल धर्मतंत्र ही समर्थ हो सकता हैं धर्म और अध्यात्म को हमने मानवजाति की समग्र प्रगति के लिए नियोजित किया है। धर्ममंच अब तक प्रतिगामियों का दुर्ग समझा जाता रहा है, हमने उसे नई दिशा दी हैं अस्सी प्रतिशत देहातों में बसे एवं सत्तर फीसदी अशिक्षित देश में अपनी सुधारात्मक प्रक्रिया आँधी तूफान की तरह इसलिए सफल होती चली जा रही है कि हमने धर्म प्रथाओं एवं कलेवरों के बाह्य स्वरूप में हेर फेर किए बिना उनके मूल प्रयोजन में क्राँतिकारी परिवर्तन कर दिया हैं हम स्वस्थ राजनीति के विकसित हो सकने की संभावना वाला भवन बनाने में नींव के पत्थर मात्र बनकर रहेंगे और जो भी हमारे प्रभाव संपर्क में आएगा उसे इसी दिशा में प्रेरित आकर्षित करते रहेंगे।

गायत्री परिवार की रणनीति को वर्तमान चुनाव महायज्ञ में जो अब ऊब भरी थकान जैसी स्थिति में प्रगति की ओर उन्मुख इस राष्ट्र पर जबर्दस्ती आ पड़ा है, इसी चिंतन के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। परिष्कृत अध्यात्म-तंत्र का पुनर्जीवन एवं उससे राजतंत्र की मूल धुरी जनमानस का भावनात्मक परिष्कार विचारक्रांति एवं ज्ञानयज्ञ के द्वारा किया जाने वाला पुरुषार्थ ही हम सबको संपन्न करना है। इस दिशा में जितनी जागरूकता हम जनमानस में पैदा कर सकेंगे उतना ही लोकतंत्र सशक्त व प्रभावी तक राष्ट्र प्रगति की दिशा में अग्रसर होगा। यह एक लंबा संग्राम है एवं संभवतया आगामी दो या तीन वर्श तक चलने वाला विशेषतः संक्रमण-काल की इस विशेष अवधि में यदि हम पूज्यवर की विचार-चेतना पर पक्का विश्वास शताब्दी के इस अंतिम चुनाव महोत्सव को जागरूकता समझदारी एवं देशभक्ति का पर्व मानते हुए सही प्रतिनिधि चुनने की आवश्यकता जन जन को समझाएँ तो निश्चित ही बदल-दल समझा जाने वाला यह सशक्त तंत्र भी परिष्कृत हो स्थायित्व देने की स्थित में आ सकेगा।

*समाप्त*


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