पराधीन सपनेहु सुख नाहीं

September 1995

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कहा यह जाता है कि ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है जो अपनी सहायता अपने आप करते है। यदि ईश्वरीय कृपा का सहारा लेना है तो इस मन्त्र को जीवन में गाँठ बाँधकर रखना होगा। वह व्यक्ति जो अपने स्वयं के कार्य के लिये दूसरों का मुँह ताकता है एक सामाजिक अपराधी है। इससे बड़ा सामाजिक अपराध क्या होगा कि स्वयं तो निष्क्रिय बना ही बैठा है और दूसरों से अवलम्बन की आशा लगाकर उसके कर्तव्य वहन पर भी रोड़ा बन रहा है। अतएव पराधीनता के पाप से बचने के लिए हमें निज की क्षमता एवं निज के साधनों का उपयोग करना चाहिए।

बहुत से लोग परिस्थितियों का रोना लेकर बैठ जाते है और अपनी कार्य करने की असमर्थता जताने लगते है। यह अनुचित है। परिस्थितियाँ ही अनुकूल हो गयी और हमने अपनी कर्तव्य पूरे कर लिए तो इसमें किसी वाहवाही की बात नहीं है। परिस्थितियाँ तो सदैव प्रतिकूल ही रही हैं। मनुष्य ने मनः स्थिति को परिस्थितियों के अनुरूप ढाला है। तब परिस्थितियों का सामना किया है। हमारा इतिहास बताता है कि जितने भी महापुरुष हुए है सब ने अपने जमाने की तकलीफों पर पुरुषार्थ एवं पराक्रम से पार पाया है। और यशस्वी कीर्तिमान स्थापित किये है। यदि परिस्थितियाँ किसी को रोक पायी होती तो आज तक जितने श्रेष्ठकर होंगे कभी भी सम्भव नहीं हो पाते मनुष्य के जीवन में विपरीतता एवं विरोधाभास उसकी कर्तव्य निष्ठा एवं लगनशीलता की परीक्षा लेने आते है। उसको कर्तव्य पथ से च्युत करने के लिए नहीं यह तो वे ही निबल प्रकृति के लोग है जो इन्हें देखकर भयातुर हो जाते है और अपने पथ से डिग जाते हैं। इस संसार में तीन प्रकार के ही व्यक्ति है इसका चित्रण इस श्लोक में नीचे किया है-

प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहिताः विरमन्तिमध्याः। विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः। प्रारभ्य चोत्तमजनः न परित्यजन्ति॥

तात्पर्य यह कि “मनुष्य की श्रेणी का निर्धारण उसकी कर्तव्य निष्ठा से होता है। यदि वह किसी कार्य को भयवश प्रारम्भ ही न करें तो उसे हम अधम नहीं तो क्या कहेंगे। उत्तम व्यक्ति तो वे होते है जो विघ्नों के पुनः आने पर भी प्रारम्भ किये हुए कार्य को अंत तक निभाते है।”

जो व्यक्ति कर्तव्य पर विश्वास रखता होगा वह आत्म निर्भर होगा तथा आत्मविश्वासी भी होगा। आत्मविश्वासी व्यक्ति को विपत्तियाँ कभी परास्त नहीं कर सकतीं। ऐसे व्यक्ति प्रायः ऊँची-ऊँची कल्पनाएँ नहीं करते है। प्रायः अपने साधनों के अनुरूप ही कार्य को हाथ में लेते है। क्योंकि वे जानते होते है कि कार्य को उन्हें स्वयं के साधन एवं शक्ति से पूरा करना हैं दूसरों से सहायता की बात तो वे सोचते भी नहीं है। दूसरे को इतनी फुरसत कहा है कि वह अपनी कार्य छोड़कर किसी की सहायता करने दौड़ेगा। यदि कुछ करेगा भी तो उससे सहायतार्थी की आवश्यकता का निराकरण बिलकुल ही नहीं हो पायेगा। सफलता तो मनुष्य अपने सहारे ही पा सकता है दूसरों की सहायता पर आधारित तानों–बानों से कहीं भी महल नहीं बने देखे गये।

इसके विपरीत पराधीन एवं परावलम्बी व्यक्ति हमेशा दूसरों के आश्वासनों पर एवं दूसरे की कृपा पर जीवन के बड़े-बड़े लक्ष्य निर्धारित करते हैं। इससे इस व्यक्ति के जीवन में एक सबसे बड़ी दुर्बलता घर कर लेती है कि उसे संसार में सारे व्यक्ति अधिक पुरुषार्थी एवं शक्तिवान नजर आने लगते हैं। ऐसे लोगों को वह अपना मित्र मान बैठता है पर वस्तुस्थिति कुछ और ही होती है। जिन्हें वह अपना सहायक या मित्र समझता है वे तो अपने कर्तव्य को पूरा करने में ही इतना व्यस्त रहते हैं कि उन्हें इसकी याद भी आती होगी इसमें पूर्ण संशय है।

यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि परावलम्बी व्यक्ति निज के पौरुष एवं शक्ति पर तो विश्वास करता नहीं और दूसरों के सहारे किसी कार्य की भूमिका बना लेता है। दूसरों के प्रति गहरी निष्ठा जमा लेता है कि वे लोग उसके कार्य में सहायक बनेंगे।

इस जगह यदि अन्य व्यक्ति सहयोग का अनुदान एक परावलम्बी व्यक्ति को नहीं देते तो उसे उचित ही ठहराया जाना चाहिये। वे स्वयं आत्म निर्भरता के श्रम से जुटकर अपने उद्देश्य की प्राप्ति कर सकने में समर्थ होते है। यदि वे अपनी शक्ति एवं साधन ऐसे काहिल व्यक्तियों की सहायता में लगा देंगे तो उनके उद्देश्यों को कौन पूरा करेगा। यहाँ पर उनका स्वार्थ निन्दा की वस्तु नहीं ही कहा जाना चाहिये। संसार में सभी के कुछ न कुछ उत्तरदायित्वों को पूरा करेगा इसके बाद सेवा परोपकार की बात सोचेगा। जो व्यक्ति अपना ही कर्तव्य पालन नहीं कर पाया है वह दूसरों की सहायता कहाँ तक कर सकता है? यह बात विश्वसनीय नहीं है दूसरे का सहारा लेना भीख माँगने के बराबर है। अपने आत्म गौरव को भुलाकर जो व्यक्ति दूसरे के सामने दवा की भीख माँगता है वह वस्तुतः पुरुष कहलाने का अधिकारी नहीं है। ऐसे कायर व्यक्ति जीवन भर चाटुकारिता करते हैं और दरिद्रता तथा हीन भावना से ग्रसित रहते हैं। इन्हें वहीं मयस्सर हो पाता है जो लोगों की आवश्यकता पूर्ण होने के बाद जूठन के रूप में बचा होता है।

प्रायः देखने में आया कि समाज के कतिपय गणमान्य एवं धनी कहे जाने वाले व्यक्ति भी परावलम्बन के शिकार होते हैं। यह उनका प्रमाद ही कहा जायेगा कि स्वयं के घर के कार्यों को भी वे कर्मचारियों के भरोसे छोड़ देते हैं। इसके परिणाम तो कभी-कभी बहुत दुखदायी होते हैं। बड़े-बड़े सेठ अपने मुनीमों के वश में इसलिये रहते हैं क्योंकि उनमें कार्य कुशलता एवं वाक्पटुता का वह अपेक्षित ज्ञान नहीं होता है जिसकी कि आज व्यापार जगत में आवश्यकता है। इसी तरह शासन में कई उच्च अधिकारी स्वयं निर्णय लेने की असमर्थता के कारण अपने आधीन कर्मचारियों के आश्रित रहते हैं। इससे उनकी स्वतंत्र सत्ता हमेशा खतरे में पड़ी रहती है। पर निर्भरता तो एक कमजोरी है। इस कमजोरी को यदि अपने से नीचे वाला जान लेता है तो हमेशा अनुचित लाभ लेने की ताक में रहता है।

परावलम्बी व्यक्ति के पास न अपना विवेक होता है न अपनी बुद्धि। इसलिये किसी भी आपातकालीन स्थिति में स्वयं निर्णय लेने की क्षमता उसमें नहीं होती है। जब आत्म निर्णय का गुण नष्ट हो जाता है तो पराधीन व्यक्ति दीन हीन की तरह दिखाई देता है। महारानी कैकेयी का उदाहरण हमारे सामने है। उसने एक महारानी होते हुए दासी मन्थरा की कुबुद्धि का सहारा लिया। विवेक एवं चातुर्य के अभाव के कारण ही महारानी कैकेयी को कितना दारुण दुख सहन पड़ा था। यह सामाजिक परावलम्बन नहीं तो और क्या था?

गोस्वामी जी ने ठीक ही कहा है-

“विपत्ति बीज वर्षा ऋतु केरी भुँई भई बुद्धि कैकेई चेरी”

दासी की बुद्धि के ऊपर की निर्भरता ने कितना विश्वास घाती परिणाम उत्पन्न किया? इसका सहज अन्दाज हम गोस्वामी जी के उपर्युक्त अंश से समझ सकते हैं।

अन्त में यह कहा जा सकता है कि जीवन को समृद्ध, निष्कलंक एवं पूर्ण बनाने के लिये हमें परावलम्बी नहीं होना चाहिए। पराश्रितता को त्यागकर देवीय जीवन जीने के लिये अग्रसर होना चाहिये। क्योंकि गोस्वामी तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है कि- “ पराधीन सपनेहु सुख नाहिं। “ "


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