समर्पण, तादात्म्य ही उपासना का मर्म

September 1995

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ब्रह्मविद्या या तत्त्वदर्शन से तात्पर्य उस परमात्मा सत्ता का स्मरण, उसकी विशेषताओं का चिन्तन-मनन है जिसे प्रभु, परमात्मा, ईश्वर या भगवान कहा जाता है। सत्प्रवृत्तियों के समुच्चय को ही भगवान कहते है। विराट्-परब्रह्म तो वह सूत्र-संचालन शक्ति है जिसे सारी सृष्टि की व्यवस्था चलानी होती है। नियम अनुशासन से अव्यवस्था को व्यवस्था में बदलना ही उसका काम है। उपासना में परब्रह्म को नहीं, भगवान को साकार या निराकार रूप में स्मरण किया जाता है। यह भगवान कोई व्यक्ति नहीं, सद्भावना-सद्विचारणा सत्प्रवृत्तियों का समुदाय है जिसकी समस्त विशेषताओं का स्मरण कर उन्हें आत्मसात् करने का प्रयास किया जाता है।

उपासना में अन्तः करण को- भावनाओं को उच्चस्तरीय उद्देश्यों के अनुरूप गतिशील बनाना पड़ता है। साधना व आराधना भी इसी के साथ स्मरण किये जाने वाले कृत्य हैं जिनमें क्रमशः विचारणा व गतिविधियों को उत्कृष्टता के साथ जोड़ा जाता है। उपासना यदि भक्तियोग है तो साधना ज्ञानयोग एवं आराधना-कर्मयोग है। कारण, सूक्ष्म, स्थूल शरीर के रूप में इनके कार्यक्षेत्र हैं। आत्म सत्ता को महानता के पथ पर पहुँचाने के लिए इन्हीं त्रिविधि सोपानों को अपनाना पड़ता है।

उपासना, साधना व आराधना के इन तीन उपायों से ही ईश्वर जीवसत्ता में प्रवेश करता है तथा मनुष्य को देवोपम चिन्तन चरित्र विनिर्मित करने की प्रेरणा देता है। साहसी मनस्वी इस पथ पर चलकर असीम सामर्थ्य प्राप्त करते हैं, स्वयं को ऊँचा उठाते हैं और दैवी अनुकम्पा उन पर सतत् बरसती रहती है। योगाभ्यास एक पराक्रम है, अपनी अन्तः की दुष्प्रवृत्तियों, से संघर्ष है। जो इस देवासुर संग्राम में जितना अधिक सफल होता है वह बहिरंग जगत में सुसंस्कृत एवं अन्तरंग की दृष्टि से महान बनता चला जाता है।

मानव सहज ही अभ्यास क्रम में अनगढ़ है। कुसंस्कारिता से छुटकारा पाकर सुसंस्कारी शालीनता के ढाँचे में ढलने के लिए आत्मसत्ता को विवश करने हेतु योग-त्रयी के ये तीनों ही उपचार नित्य जीवन में अपनाने होते हैं। उपासना से ईश्वरीय गुणों को जीवन में उतारने का अभ्यास किया जाता है, साधना से मन को दुष्प्रवृत्तियों से जूझने योग्य सशक्त बनाया जाता है एवं आराधना द्वारा अपने क्रिया-कलापों को सोद्देश्य बनाकर ईश्वरी उद्यान को और भी सुन्दर-सुव्यवस्थित बनाने आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना का विकास किया जाता है। सतत् हर क्षण इनका अभ्यास जीवन में अनिवार्य है।

इतनी-सी बात समझ में आने में किसी को भी कोई परेशानी न होगी कि परब्रह्म को किसी उपहार मनुहार से प्रसन्न नहीं किया जा सकता। भ्रान्तियाँ फिर भी मन पर छायी रहती और मनुष्य को दिग्भ्रान्त करती रहती है। परब्रह्म दृष्टि की अनुशासन व्यवस्था का नियन्ता है। उसे फुसलाया नहीं जा सकता। पूजा-उपचार कर्मकाण्ड तो उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालने का प्रभावी व्यायाम पराक्रम भर है। इन माध्यमों को अपना कर जो अपनी चेतना को उत्कृष्टता के ढाँचे में ढालता चला जाता है वह ऋषि, देवदूत, महामानव, महात्मा जैसे स्तर को प्राप्त होता है।

उपासना अर्थात् आत्मा को परमात्मा से जोड़ देना। भाव संस्थान जो मान्यताओं, आकांक्षाओं से लिपटा होता है-वही अपनी आत्मा ही तो है। परमात्मा तत्व उत्कृष्ट आदर्शवादिता का ही दूसरा नाम है। अपने ढर्रे में चली आ रही, लोभ-मोह के बँधनों में जकड़ी आत्मा को परिष्कृत, शोधित कर उसे उत्कृष्टता की ओर मोड़ देना ही सच्ची उपासना है। उपासना से तात्पर्य है जिसके समीप बैठे हैं, तद्रूप हो जाना। यह समर्पण घनिष्ठता जितनी निश्छल सार्थक उच्चस्तरीय होगी, उतनी ही उपासना सार्थक होगी, यह तभी सम्भव है जब उपासक का स्वयं का स्तर ऊँचा हो और उपास्य के सम्बन्ध में वास्तविक बोध बना रहे, किसी प्रकार की भ्रान्ति न हो।

उपासना का तत्व दर्शन समझने के उपरान्त शेष इतना ही रह जाता है कि प्रारम्भिक प्रयासों में उसे भावनात्मक व्यायामों की तरह प्रयुक्त कर धीरे-धीरे आगे बढ़ा जाय। कर्मकाण्ड यदि कायकलेवर है तो तादात्म्य वाला पक्ष उसका प्राण है। एक प्रत्यक्ष है, दूसरा परोक्ष। जप, ध्यान, प्राणायाम का क्रिया पक्ष महत्त्वहीन है, यदि भाव-पक्ष को प्रधानता नहीं दी गयी है। पौरुष हीन के हाथ में तलवार सौंप दी जाय तो पराक्रम के बिना वह मात्र लोहे का एक टुकड़ा भर सिद्ध होती है। पराक्रम ही जिताता है, तलवार नहीं। इसी प्रकार भाव-श्रद्धा ही उपासना को सार्थक बनाती है, कर्मकाण्ड के क्रिया−कलाप नहीं।

महाप्रभु चैतन्य के जीवनकाल की एक घटना है। वे जगन्नाथपुरी क्षेत्र में प्रचार यात्रा पर निकले थे। मण्डली में कई विद्वान भी थे। वट-वृक्ष के नीचे एक किसान को उन्होंने तन्मयतापूर्वक गीता पाठ करते देखा उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे। उसकी तन्मयता देखते बनती थी। हाव-भाव ऐसे थे, मानों वह स्वयं अपने अन्तर्चक्षु से गीता काल की घटनाओं को भगवान कृष्ण एवं अर्जुन को दृश्य रूप में सामने देख रहा हो। मण्डली रुक गयी। पाठ सुनने लगी। उच्चारण नितान्त अशुद्ध था। अल्प शिक्षित होने के कारण वह ने तो संस्कृत भाषा से अवगत था, न ही श्लोकों का अर्थ उसे समझ में आता था।

विद्वानों ने उसे टोका एवं अशुद्ध बोलने से रोका महाप्रभु एकटक-भाव विभोर हो उसे देख रहे थे। वह रुका नहीं, पढ़ता ही रहा। बोला-मेरे लिए इतना ही बहुत है कि भगवान जो कह रहे है उसे मेरी आत्मा अमृत की तरह पी रही है।” महाप्रभु के बोल फूटे-उन्होंने उस भक्त को नमन करते हुए कहा- “भक्तों! इस अशिक्षित की भावना स्तुत्य है। यही है वह तत्त्व जिसके सहारे भक्ति की जानी है, जो भक्त की उपासना को सार्थक बनाती है।” वस्तुतः का भाव नियोजित किए बिना सारे पूजा उपचार के क्रम अधूरे, खोखले हैं।

तादात्म्य का अर्थ है भक्त की भावना और इष्ट की उससे अपेक्षा का एकीकरण। दोनों की अन्तः स्थिति का समन्वय विसर्जन। दैवी अनुशासन के अनुरूप जो अपनी जीवनचर्या का निर्धारण कर लेता है, वही सच्चा उपासक है। इसमें अपने आप से कठोर संघर्ष तो करना पड़ता है, पर आत्मबल सम्पन्न उस परम तत्त्व पर पूरा भरोसा रख अपनी नाव खेते चले जाते है। साधक को अपना स्वरूप कठपुतली जैसा बनाना होता है और अपने अवयवों में बँधे धागों को बाजीगर को सौंप देना पड़ता है। इससे कम में वह स्थिति बनती नहीं जहाँ आत्मा-परमात्मा का मिलन संयोग क्रम बन सके।

बूँद चाहती तो बरसकर सूखी धरती को तृप्ति, प्यासों को तुष्टि दे सकती थी। सरोवर तट पर पड़ी सीप में गिरकर मोती भी बन सकती थी। यदि उसने अपनी अहंता-पृथकता को बनाये रखा और ओस बनकर सर्प द्वारा चाटी जाने पर विष में स्वयं को बदल दिया तो यह उसकी अपनी नियति है। जो न समुद्र बनने को तैयार है, न बादल; उनकी परिणति अधोगामी ही होती है। यह तो एक उदाहरण हुआ पर मनुष्य पर यह शत-प्रतिशत लागू होता है। समर्पण माँगता है-लोभ मोह से विरक्ति अहंता से मुक्ति। यदि समर्पण भाव न विकसे तो मानना चाहिए कि जीव ब्रह्म की एकता में विलग्नता उत्पन्न करने वाली बाधाएँ लोभ-मोह-अहंता के रूप में ही विद्यमान है। उपासना के कर्मकाण्ड इसी कारण बाह्योपचार मात्र बनकर रह गए हैं। समयक्षेप तो इसमें होना ही था, असन्तोष एवं ग्लानि और साथ लग जाती है। देवात्मा बनना तभी सम्भव है, जब परमात्मा के समकक्ष विशेषताएँ उत्पन्न करने योग्य पात्रता विकसित कर ली गयी हो। भावना विचारणा और क्रिया प्रक्रिया में जितना अधिक उत्कृष्टता आदर्शवादिता का समावेश हो सकेगा, उपासना उतनी ही सफल होगी। यही है श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा का तत्त्वदर्शन।


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