हेमाद्रि संकल्प और उससे जुड़े अनुशासन - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

September 1995

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श्रावणी पर्व - दिनाँक 8/7/79 पर दिया गया उद्बोधन (शान्तिकुञ्ज परिसर)

गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-बोलिए ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियो, भाइयो, आज श्रावणी का पुनीत पर्व है, जिसके मनाने के लिए हम और आप एकत्रित हुए हैं। आइये विचार करें कि यह पर्व हमारे लिए क्या संदेश लेकर आया है और क्या दिशा-धारा निर्धारित करने आया है। हमारी महान परम्परायें हैं जो प्रायः हमारे स्मृति पटल से बिखर जाती हैं, जिन्हें हम भूल जाते हैं। हम लोगों के साथ कुछ ऐसा ही है। आदमी का झुकाव, मनोवृत्तियों का झुकाव नीचे की दिशा में है। ऊपर की दिशा में चलने के लिए बड़े प्रयत्न करने पड़ते हैं। कुएँ में से पानी निकालने के लिए कई तरह की मेहनत करनी पड़ती है। जमीन से, सीढ़ियों से ऊपर चढ़ने के लिए कई तरह के इंतजाम करने पड़ते हैं। छत पर से नीचे गिरना हो तो कुछ मेहनत करने की जरूरत नहीं है। किसी खड्डे में कोई चीज आपको धकेलनी हो तो मेहनत करने की जरूरत नहीं है। ऊपर चढ़ाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। इसीलिए ऋषियों के द्वारा भारतीय संस्कृति का स्वरूप इस तरीके से बनाया गया है कि जिससे आदमी को ऊँचा उठने का, आगे बढ़ने का मौका मिल सके। मनुष्य- गिरता तो है ही, गिरने में क्या दिक्कत है? मन की बनावट ही ऐसी है। इसके अन्दर जन्म-जन्मान्तरों के पशुवत् संस्कार चौरासी लाख योनियों में घूमने के बाद आ गये हैं। ये कुसंस्कार आदमी के लिए काफी हैं कि उसे नीचे गिराते रहें और नीचे की वृत्तियों की तरफ उसका ध्यान आकर्षित करते रहें। इसमें कुछ करना नहीं है।

संस्कृति किसलिए बनायी गयी? धार्मिक परम्परायें और अध्यात्म का ढाँचा किसलिए बनाया गया? अध्यात्म का ढाँचा और संस्कृति की परम्परायें सिर्फ एक काम के लिए बनायी गयीं कि मनुष्य को ऊँचा उठाया जाये, आदमी को आगे बढ़ाया जाये। इन दो उद्देश्यों को लेकर संस्कृति बनायी गयी है। भारतीय संस्कृति में त्योहारों और पर्वों का अपने आप में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। श्रावणी का तो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण स्थान है। ब्रह्मकर्म में श्रावणी का पहला नम्बर आता है। आध्यात्मिक दृष्टि से भी श्रावणी पर्व अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अनेक पर्वों के अपने-अपने आधार हैं। हमारा आर्थिक संतुलन किस तरीके से स्थिर रहे और हमारी अर्थोपार्जन से लेकर के अर्थ के व्यय करने तक की नीति क्या होनी चाहिए-ये आधार है दीपावली का। विजयादशमी का त्यौहार है जो हमको विजय प्राप्त करने के लिए, विजयी और सफल जीवन जीने के लिए भौतिक सामर्थ्यों का किस तरीके से संकलन करना चाहिए, हथियारों से कैसे सुसज्जित रहना चाहिए, स्वास्थ्य संवर्द्धन कैसे करना चाहिए, दुर्गा के तरीके से हमारी शक्तियों का एकत्रीकरण कैसे होना चाहिए, वगैरह-वगैरह समर्थता की शिक्षा हमको विजयदशमी से मिल सकती है। बसन्त शिक्षा का त्यौहार-हमारे लिए शिक्षा की जरूरत है। हमको पढ़ना चाहिए। विद्या बिना आदमी किसी काम का नहीं होता। ये बसन्त पंचमी सरस्वती के जन्मदिन का त्यौहार है। होली का अपना महत्व है, गन्दगी के विरुद्ध लड़ने के लिए। गन्दगी को जलाने, फूँक देने और नष्ट करने के लिए हमारा होली का त्यौहार है। एक से एक बढ़िया त्यौहार हैं। इन सारे के सारे त्यौहारों में ज्यादा महत्वपूर्ण त्यौहार वह है जो कि आज आपके सामने उपस्थित है- श्रावणी पर्व।

श्रावणी क्या है? श्रावणी यज्ञोपवीत का त्यौहार है। इसमें यज्ञोपवीत का हम हर साल बदल देते हैं। ठीक उसी तरह जैसे हम बन्दूक का, मोटर का लाइसेंस हर साल बदलते हैं। बहीं खाता भी हर साल बदलते हैं। बहुत से काम ऐसे हैं जो हर साल बदलने पड़ते हैं। क्यों? ताकि हमको देखने का, निरीक्षण करने का, मौका मिलता रहे। यह रिन्यू कराने का त्यौहार है। यज्ञोपवीत बहुत महत्वपूर्ण चीज है। बेटे। यज्ञोपवीत एक तरह के संकल्प का प्रतीक है, जिसमें आदमी दूसरा जन्म लेने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा जन्म क्या है? दूसरा जन्म द्विज का। यज्ञोपवीत दूसरे जन्म का सर्टीफिकेट है। यह इस बात का संकेत है कि हमें इंसान की जिन्दगी जीनी चाहिए। इंसान का जन्म मिलना, ये भगवान की कृपा के ऊपर है और उसका ठीक तरीके से इस्तेमाल करना इंसान के ऊपर है कि वह अपनी जिन्दगी को उस उद्देश्य के लिए इस्तेमाल करे जिसके लिए भगवान ने जन्म दिया है। भगवान ने किस काम के लिए जन्म दिया है? भगवान ने किसी खास मकसद के लिए जन्म दिया है कि आदमी को हैवान नहीं रहना चाहिए, इंसान बनना चाहिए। इसके लिए इंसान का कलेवर और इंसान का लिफाफा, इंसान के हाथ-पाँव इंसान के कलपुर्जे और इंसान की मशीन-ये सारी की सारी चीजें हमारे सुपुर्द कर दी गयी हैं भगवान के द्वारा। एक बात की जिम्मेदारी अब हमारी है कि जिस काम के लिए यह मशीन हमको दी गयी है उस काम को पूरा करें। इंसान होकर के दिखाये। हैवान से एक दर्जा आगे बढ़ें, तरक्की करें। इस तरक्की के बाद में, एक दर्जा ऊँचा उठने के बाद में, इस बात का सबूत पेश करें कि इंसान से अगले वाले दर्जे प्राप्त करने का हमको हक है। इंसान से आगे के दर्जे। हाँ, इंसान से आगे और भी दर्जे है। कौन से हैं? जिसको हम देवत्व का दर्जा कहते हैं। इंसान अपनी ही जिन्दगी में एक और कदम बढ़ा सकता है, एक और कदम बढ़ा सकता है जिसको देवता कहते है। देवता कौन होते हैं? देवता इंसान होते हैं। कैसे इंसान होते है? जैसे हमारे बुजुर्ग थे। यहाँ देवता निवास करते थे। देवता का विचार, देवता का चिंतन अलग होता है। देवता और इंसान की शक्ल में तो फर्क नहीं होता, पर दृष्टिकोण में जमीन-आसमान का फर्क होता है। आप इस बात को लिए अगर सबूत पेश करें कि हमको देवता बनना चाहिए, तो देवताओं के अन्दर जो विशेषताएँ होती है, देवताओं को जो सम्मान मिलता है, देवताओं को जो सम्मान मिलता है, देवताओं में जो सामर्थ्य होती है-देवता अपने आप में हँसते-हँसाते रहते है। देवता अपनी सुगन्धि से वातावरण को न जाने क्या से क्या बना सकते हैं। वह दूसरा दर्जा आप पा सकते है इसी जिन्दगी में।

अपने तो न जाने क्या-क्या कल्पनायें कर रखी हैं कि मरेंगे तो स्वर्ग लोक में जायेंगे। कहाँ मरेंगे आप? शरीर बदल लेते है बारबार। कपड़ा पुराना होता है तो बदल लेते है। नहाना भी पड़ता हैं। बनियान में गंध आ जाती हैं तो रोज धोकर के दूसरी बदल लेते हैं। दूसरे दिन फिर दूसरी बदल लेते हैं। मरेंगे, मर कर फिर कहाँ जायेंगे? बैकुण्ठ लोक में जायेंगे। कहाँ हैं बैकुण्ठ? बैकुण्ठ इस जमीन में हैं। आपको मालूम नहीं हैं। स्वर्ग भी इसी जगह हैं और नर्क भी। देवता भी इसी जगह पर रहते हैं और राक्षस भी। इंसान भी इसी में रहते हैं और हैवान भी इसी में रहते हैं। तरक्की के लिए ‘मैट्रिक के बाद आप बी. ए. कर लें, बी. ए. के बाद आप एम. ए. कर लें और पोस्ट ग्रेजुएट हो जायें। इसी तरीके से सिपाही से आप दरोगा हो जायें, दरोगा से आप सुपरिन्टेन्डेन्ट हों जायें। इस तरीके से बहुत से चाँस हैं। आप चाहें तो एक और भी मौका हैं कि देवताओं के बाद आप भगवान भी हो सकते हैं। भगवान? हाँ भाई साहब मैं आप से कहता हूँ कि आप भगवान भी हो सकते हैं। इंसान परब्रह्म नहीं हो सकता, पर भगवान हो सकता है। परब्रह्म और भगवान में क्या फर्क है? परब्रह्म वह है जो सारे के सारे ब्रह्माण्ड के ऊपर नियन्त्रण रखे हुए है, काबू रखे हुए है, कब्जा रखे हुए है। सारी सृष्टि का संचालन जो व्यवस्थित रूप से चलाता है और बनाता है- उसका नाम है- परब्रह्म। भगवान उनको कहते हैं, जिन्हें हम देवदूत करते हैं जो विश्व की व्यवस्था को कायम रखने के लिए आते हैं और अपना काम करने के बाद चले जाते हैं। इन्हें अवतार भी कहते हैं-जैसे भगवान रामचन्द्र जी, भगवान कृष्ण चन्द्र जी, भगवान परशुराम और भगवान बुद्ध आये। आदमी का ऊँचे से ऊँच स्तर भगवान का है। आपके लिए चाँस है। इंसान का जन्म पाकर के ठीक तरीके से अपनी मंजिल के ऊपर चढ़ते चले जायें ताकि वह सब पा सकें। इसी का स्मरण दिलाने, जानकारी कराने के लिए संस्कार कराये जाते है।

हिन्दू का बच्चा जब थोड़ा बड़ा, समझदार होने लगता है तो हिन्दू परम्परा के मुताबिक़ उसका यज्ञोपवीत कराया जाता है। यज्ञोपवीत तीन लड़ का एक धागा है जिसे कंधे पर धारण किया जाता है। जब मल मूत्र विसर्जन के लिए जाते हैं तो उसे कान पर चढ़ा लेते है और हाथ साफ करके कान से उतार लेते हैं। उससे क्यों हो जाता है? ये हमारे प्रतीक है। प्रतीकों के पीछे न जाने क्या से क्या शिक्षण भरा हुआ पड़ा है। प्रतीक हमारी गीता की पुस्तक, हमारे मन्दिर में पत्थर की प्रतिमा। श्रद्धा आरोपित करके इन प्रतीकों को हमने शक्तिपुञ्ज, भगवान बना दिया है। मीरा के गिरधर, रामकृष्ण परमहंस की काली, एकलव्य के लिए गुरु प्रतिमा, ये भगवान थे। नहीं साहब ये तो खिलौने थे। हाँ भगवान के प्रतीक खिलौने भी हो सकते हैं, अगर उन्हें श्रद्धा से समन्वित कर दिया जाये तब! इसी मिट्टी का खिलौना जिसे एकलव्य ने बिना किसी संस्कार, बिना किसी मंत्र के अपने आप बना लिया था, उसने गज़ब करके दिखा दिया और मीरा ने-जिसका संस्कार भी नहीं हुआ, प्राण प्रतिष्ठा भी नहीं हुई, मंत्रोच्चार भी नहीं किये, उस पत्थर के टुकड़े में से भगवान बना दिया था। धागे को श्रद्धा से समन्वित करके हम जनेऊ में से भगवान को बना सकते है। कैसे बना सकते हैं? जनेऊ में अगर हमारी निष्ठाएँ और आस्थाएँ शामिल हो जायें तो क्या से क्या हो सकता है। उस श्रद्धा को जिस श्रद्धा के आधार पर हैवान को इंसान बनाने के लिए जनेऊ पहनाया जाता है। उसके साथ मौलिक फिलॉसफी, तत्त्वज्ञान जोड़ दिया जाता है कि दूसरे जन्म से मतलब ये है कि दूसरे जन्म से मतलब ये है कि आदमी जब पैदा होता है तो शरीर से तो इंसान होता है, लेकिन मानसिक स्तर की दृष्टि से, चिंतन और विचारों की दृष्टि से हैवान होता है, नरपशु होता है। नरपशु किसे कहते हैं? जिनका कि शरीर तो इंसान का होता है, पर दिल-दिमाग हैवान का होता है। उसका नाम नरपशु है। नरकीटक और नरपिशाच आप ने सुने होंगे। परिस्थितियाँ जब मजबूर करती हैं तो आदमी नरपिशाच भी हो सकता है और नरकीटक भी? लेकिन वे कम होते है। आमतौर से आदमी नरपशु पाये जाते हैं।

नरपशु कैसे पाये जाते हैं? पशु और इंसान की मनोवृत्तियों में क्या फर्क है? शरीरों में तो बहुत फर्क है। शरीर में मूल फर्क ये है कि आदमी बोल सकता है, जानवर बोल नहीं सकता। आदमी में समझ होती है, जानवर में समझ नहीं होती। आदमी दो पैरों से खड़ा नहीं हो सकता। रीढ़ की हड्डी की बनावट-आदमी की दूसरी तरह की है और जानवर को दूसरी तरह की है। इंसान को हँसना-रोना आता है और जानवर को हँसना-रोना नहीं आता। शरीर की दृष्टि से आदमी भिन्न है। आदमी को काम करने, पुरुषार्थ करने के लिए इतना शानदार हाथ दिया गया है कि मैं कहता हूँ कि यह गज़ब का है। इससे आदमी न जाने क्या कर सकता है। आदमी का दिमाग कमाल का है। ये क्या है? ये इंसान और जानवर की बनावट में साफ फर्क है, जो मैंने आपको बताया। लेकिन एक मामले में दोनों एक हैं। वह किस मामले में हैं? आदमी की नीयत और मनोवृत्ति जानवरों की मनोवृत्ति की धुरी दो है। पृथ्वी की धुरी दो है-एक उत्तरी ध्रुव, एक दक्षिणी ध्रुव। गाड़ी की धुरी दो हैं- एक दांया वाला पहिया, एक बांया पहिया। बैलेन्स इन्हीं पर टिका रहता है। एक को गिरा दे तो फिर गाड़ी गिर पड़ेगी। इसी तरीके से हैवान दो चीजों पर टिका रहता है। उसकी नीयत आप खोलिये, पोस्टमार्टम कीजिए, उसके दिमाग को तौल के देखिये तो हैवान के विचारों में दो चीज पाइयेगा, तीसरी कोई चीज नहीं पायी जायेगी। आदमी क्या सोचता है और क्या करना चाहता है? आदमी की इच्छाएँ, प्रेरणाएँ, विचारणाएँ क्रियायें क्या हैं? आदमी की अच्छाइयाँ पहले होती हैं, इच्छाओं पर विचार के लिए दिमाग मजबूर होता है और विचार करने के बाद में शरीर को उसका हुक्म मानना पड़ता है। शरीर दिमाग का कहना मानता है और दिमाग हमारी मान्यताओं, आस्थाओं आकांक्षाओं का हुक्म मानता है। दिमाग हमारा खराब है, हमारी आस्थाएँ और नीयत खराब है। इसीलिए हमारी नीयत, इच्छाएँ, रुचि लक्ष्य आदमी की नहीं हैवान की हो जाती है तब दिमागी दृष्टि से, विचारों की दृष्टि से इंसान और हैवान में कोई फर्क नहीं। दोनों हूबहू एक हो जाते है। इनकी नीयत में दो ही चीज दिखाई पड़ती हैं-पैसा और औलाद। आप क्या चाहते है? औलाद। तीसरी कोई चीज न हो तो आप शरीर दृष्टि से कौन है? हम नहीं जानते लेकिन आम की दृष्टि से, भावना की दृष्टि से, चिन्तन और आस्थाओं की दृष्टि से कौन हैं, विचारिये।

हैवान को इंसान बनने के लिए क्या करना चाहिए? वही जो यज्ञोपवीत में सिखाया गया है। यज्ञोपवीत में सारे का सारा पाठ्यक्रम, सारे का सारा कैरिकुलम, सारी की सारी स्कीम्स, जो स्कूलों में पढ़ाया जाता है, जो छोटे रूप में संक्षेप में इसके भीतर बना दिया गया है। क्या करना चाहिए आदमी को? आदमी को हैवान के बदले .....................कब करने चाहिए, एक तो हजारों जन्मों के साथ जो मलीनतायें आदमी के ऊपर हावी हो गयी हैं, इनसे लोहा लेना चाहिए, उन्हें दूर करना चाहिए। हमें लड़ाई लड़नी चाहिए उन निकृष्ट मनोवृत्तियों और कुसंस्कारों से जो न जाने किस-किस जन्म के, ज्यों के त्यों अभी भी हमारे भीतर मौजूद हैं। लड़ाई से तात्पर्य-तप संयम, कानून, मर्यादा और मनोबल से है। तपश्चर्या के अंतर्गत ये सब चीजें आती हैं जिन्हें यज्ञोपवीत संस्कार कराते समय सिखाया जाता है। आपको अपने कुसंस्कारों के विरुद्ध बगावत खड़ी करनी चाहिए और अपने भीतर इंसानी ताकत विकसित कर देवत्व धारण करना चाहिए।

एक काम तो यह है कि हमें अपने स्वार्थ को जानना चाहिए। स्वार्थ क्या है? स्वार्थ वह कि हम जीवन में तरक्की करें। तरक्की से हमको आत्मसंतोष, यश मिलेगा और इतिहास के पन्नों पर हम अपना नाम छोड़ करके जा सकेंगे। हमारा स्वार्थ और भी है कि इस दुनिया में जो खुशी हमको मयस्सर न हो सकी वो खुशी जिन्दगी में आनी चाहिए। खुशी किसे कहते हैं? खुशी का नाम है- स्वर्ग। स्वर्ग किसे कहते है? इंसान की जिन्दगी और दृष्टिकोण में खुशी प्रसन्नता के समावेश का नाम है स्वर्ग। स्वर्ग कोई गाँव, बस्ती, कोई लोक नहीं है। फिफ्थ डायमेंशन फोर्थ डायमेंशन ये विचारों और चिन्तन के डायमेंशन होते हैं। स्वर्ग भी एक डायमेंशन है- हमारे दृष्टिकोण का। इसमें हम देखना शुरू करते है तो इस दुनिया में बड़ी खुशी खूबसूरती, आनन्द और तरह-तरह के नजारे दिखायी पड़ते है। हमको बेहद शाँति दिखायी पड़ती है चारों ओर इसका नाम स्वर्ग। नर्क क्या है नर्क उसी का नाम कि जहाँ कहाँ भी हम निगाह फेंकते है अथवा ........ कहते है, हाथ डालते, सम्बन्ध बनाते हैं, वो सब बागी हो जाते है। कौन-कौन बागी हो जाते है- हमारी बीबी, हमारे बच्चे, हमारे पड़ोसी, हमारा समाज, यहाँ तक कि हमारा शरीर भी कहता है मारूंगा डण्डे से आपको। हमारा चिंतन, दृष्टिकोण जब विकृत हो जाता है तो हमारा शरीर, दिमाग बगावत कर देता है। हमारे कम्प्यूटर ने हमारे विरुद्ध झंडा खड़ा कर दिया कि आपको सोने नहीं देंगे, चैन से रहने नहीं देंगे। चिंताओं, निराशाओं से दिमाग हैरान हो जाता है। बेटे। हमारे जीवन में नर्क भी है और स्वर्ग भी, बन्धन भी हैं और मुक्ति भी। चारों ओर के बन्धनों ने हमको जकड़ रखा है-पैरों में, हाथों में, गले में सब जगह बन्धन। ये हमारी कमजोरियाँ हैं वरना आदमी के ऊपर क्या बन्धन हो सकता है? जानवर पर बन्धन हो सकते है, पैर में, गले में रस्सी बाँध सकता, लेकिन उन्नति के मार्ग पर जिन बन्धनों ने रोककर रखा है वो आपकी कमजोरियों और दृष्टिकोण से ताल्लुक रखते है। अगर इन्हें तोड़ा जा सके तब? आपकी मुक्ति हो सकती है। इसी को कबीर ने “जीवन मुक्ति” कहा था और ये नाम मुझे बहुत पसन्द आया। स्वर्ग वह जो आदमी की इसी जिन्दगी में-खुशी उमंग, उत्साह और आशाओं के रूप में है। ये चीजें अगर मिल जाती हैं तो आपका स्वार्थ पूर्ण हो जाता है। आप जीवन को नेक, समुन्नत सुसंस्कृत, सभ्य शालीन बनाये तो स्वार्थ पूर्ण है।

परमार्थ-एक और उद्देश्य है। इंसान की जिन्दगी का परमार्थ किसे कहते हैं? जिससे भगवान की इच्छाएँ पूरी हों। भगवान के प्रति आपका ख्याल है कि वह एक छोटी तबियत का है। आप जैसे छोटे हैं, बिलकुल वैसा ही छोटे मॉडल का भगवान अपने बना के रख लिया है, जो खुशामद, चापलूसी, चमचागिरी, प्रार्थना, पूजा, कराने के लिए मारा-मारा फिरता है। आहा! आप और आपका बनाया भगवान- “राम मिलायी जोड़ी और एक अंधा, एक कोढ़ी।” दोनों हूबहू एक जैसे ‘सगे माँ जाये भाई।’ एक चापलूसी पसन्द करता है और दूसरे को चापलूस बनाता है। नारियल खाइये, मनोकामना लाइये। बेटे, ये भगवान नहीं है। मैं तो दूसरे भगवान की कहता हूँ। कौन-सा? जो आपके हृदय में करुणा, सहृदयता, उदारता के रूप में विद्यमान रहता है। करुणा के रूप में भगवान? हाँ करुणा के रूप में भगवान। वाल्मीकि ने एक बहेलिये के तीर से क्रौंच पक्षी को घायल देखा। क्रौंच पक्षी तड़प रहा था। उसकी बीबी उसके पास बैठी रोती-बिलखती प्राण त्याग रही थी। उसकी करुणा को, उसके दुखों को, उसकी संवेदना को वाल्मीकि ने देखा। उनके पत्थर जैसे कठोर हृदय के भीतर वो करुणा की धारा आ गयी ओर जिस क्षर करुणा की धारा आयी, उसी क्षर से उनके अंदर से अध्यात्म फूट पड़ा। अध्यात्म माने भगवान, भगवान माने अध्यात्म। करुणा किसे कहते हैं? जिसको हम सेवा कहते हैं, उदारता, परमार्थ कहते हैं। भगवान ने ये अपेक्षा की इंसान से कि वह निष्ठुर, कृपण, स्वार्थी न बने। उसे उदार, परोपकारी, लोकसेवी बनना चाहिए और भगवान के कामों में हिस्सा बटाना चाहिए। भगवान ने इंसान को अपने सेक्रेटरी के रूप में, इंजीनियर के रूप में इसीलिए बनाया कि हमारे बगीचे को-हमारे उद्यान हाथ बटाये। बड़े बेटे से बाप हमेशा उम्मीद करता है कि हमारा बेटा जब बड़ा हो जायेगा तो हमारे कारोबार में हाथ बटायेगा। ठीक इसी तरह भगवान ने अपने बेटे इंसान से ये उम्मीद की है कि उसकी दुनिया को सभ्य, सुसंस्कृत, समुन्नत बनाने के लिए हमारा हाथ बटायेगा। ये ही पूजा है, ये ही भजन है, भाई साहब, आप सुनते क्यों नहीं? नहीं साहब भजन में तो हम ग्यारह माला का जप करते हैं। ग्यारह माला के पीछे ये ही मकसद है, आप समझते क्यों नहीं?

हमारा परमार्थ इस बात में है कि हम इंसान की जिन्दगी अपना कर सादा जीवन यापन करें, कम में गुजारा करें, कम खर्च में काम चलाएँ, और जो हमारे पास शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं अन्य प्रकार के साधन बच जाते हैं, उनको भगवान के काम में लगायें। भगवान की बैंक में जमा करें, ताकि हजारों गुना होकर के फिर हमारे पास आयें और भगवान हमारी ईमानदारी पर विश्वास करें। हमारा जो प्रमोशन है देवता का, अवतार का, ये सारे के सारे प्रमोशन हमको टाइम पर मिलते चले जायें। ये हमारा परमार्थ है-भगवान को प्रसन्न करना, जीवन में उदार होना। हम एकादशी उपवास करें तो? मर्जी है आपकी। पेट अच्छा हो गा, पर एकादशी व्रत भर से भगवान प्रसन्न नहीं होता, उदारता और परमार्थ परायणता के बिना। इसीलिए मित्रो। मैं ये कहता हूँ कि भगवान की प्रसन्नता के लिए फिर एक बार समझिये। भगवान का स्वरूप आदमी की सम्वेदना में, उदारता के रूप में, परमार्थ परायणता, लोकमंगल के रूप में होना चाहिए और इस विश्व को सुखद, समुन्नत बनाने के रूप में होना चाहिए। न भगवान का रूप इससे कम में है और न इससे ज्यादा होने की जरूरत है। आदमी का स्वार्थ इससे कम में नहीं हो सकता। साँसारिक स्वार्थ भी मैं इसी को कहता हूँ। संसार का स्वार्थ-जिन आदमियों ने अपने व्यक्तित्व को गौण और स्वभाव को श्रेष्ठ बनाया है, उनके ही स्वार्थ पूरे हुए हैं। सुखी, सम्पन्न यशस्वी, वो ही रहे हैं। पारिवारिक आनन्द, शारीरिक आनन्द उन्हीं ने उठाया है। संसार और परमार्थ दोनों एक में मिले हुए हैं। अध्यात्म और भौतिकवाद अलग नहीं है, दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए है। हमारा शरीर और आत्मा दोनों एक दूसरे से जुड़े है। अलग हैं? अलग नहीं हो सकते। अलग निकलेंगे तो शरीर बेकार हो जायेगा, और हम बेकार हो जायेंगे। भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों आपस में जुड़ी हुई है। स्वार्थ और परमार्थ दोनों जुड़े हुए हैं। इन दोनों की शिक्षा के लिए सारी की सारी फिलॉसफी और सारे का सारा दर्शन हमारे यज्ञोपवीत में जोड़ दिया गया है।

यज्ञोपवीत जो हमको ये सिखलाता है कि आदमी को हैवान का चोला छोड़ना और इंसान की जिन्दगी में प्रवेश करना चाहिए। आदमी को उदार और उदात्त बनना चाहिए। ये ही शिक्षण है। सारे के सारे शिक्षण को अपने देखा? हमने कर्मकाण्ड कराये, यज्ञोपवीत पहनाया और आपको याद दिलाया कि आपके जीवन का मकसद, आपके जीवन का लक्ष्य क्या है? इंसान के कलेवर में रहने वाले शैतान को ठोकर मार कर भगा दीजिए और जिस भगवान के निवास करने की पूरी-पूरी गुँजाइश है, उसे स्थापित कर लीजिए। यही है जीवन का लक्ष्य, इसी को दूसरा जन्म कहते है? जनेऊ पहनाते समय, यज्ञोपवीत करते समय यही शिक्षायें दी जाती हैं और यही दी जानी चाहिए। इसी के लिए आपको दो काम करने पड़े थे- एक तो दस स्नान करने पड़े और दूसरा हेमाद्रि संकल्प करना पड़ा। यज्ञोपवीत करते समय, श्रावणी पर्व मनाते समय विशेष उपासना की प्रक्रिया को पूरा करते समय में ये दो आधार बहुत आवश्यक हैं कौन-कौन से? आपको दस स्नान करने चाहिए। इसका क्या मतलब है? हमारे पास इन्द्रियाँ हैं-दस और प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने ढंग से मलीनतायें पैदा करती हैं। जिससे हमारा स्वरूप, हमारे जीवन की श्रेष्ठता और शालीनता मलीन होती चली जाती है। इसीलिए इनकी धुलाई, मुजाई, घिसाई, पिसाई और धुनाई करना जरूरी है। दस स्नान से धोइये आप इनको। शरीर को? हाँ, शरीर को तो आप साबुन से भी धो ले तो कुछ बनता-बिगड़ता नहीं है। दस स्नान की फिलॉसफी आप समझिये कि हमको अपनी दसों इन्द्रियों के मध्यम से होने वाले गुनाहों और गलतियों से बाज़ आना चाहिए।

हमारे प्राण है दस। पाँच प्राण और पाँच उपप्राण ये हमारी चेतना के दस हिस्से हैं। पाँच उपप्राण ये हमारी चेतना के दस हिस्से हैं। पाँच तत्वों के भी दे हिस्से हैं-पंच तन्मात्राएँ और पंचतत्व। पंचतन्मात्रायें-शब्द रस, रूप, गंध और स्पर्श हैं, और अग्नि, जल, वायु, आकाश और पृथ्वी ये पाँच तत्व हैं। आप शरीर की धुलाई कीजिए, जिससे ये बना हुआ है, और मन की धुलाई कीजिए जो कि प्राणों से बना हुआ है। आपको सबेरे दस स्नान कराये गये थे अपने दस स्नान का ये मकसद, ये प्रेरणा, ये इच्छाधारा, ये संकेत समझा होगा, तब तो ठीक है और अगर संकेत नहीं समझा होगा तो “साँप निकल गया लकीर पीटें” ये आपकी मर्जी की बात है। आजकल कर्मकाण्डों और पूजा के नाम लकीर पिटती है। आदमी ने लकीर पीटने के पीछे, कर्मकाण्डों के पीछे जो दिशाधाराएँ रहनी चाहिए थी और रहती थीं, उन्हें न जाने क्यों वंचित रह गये। चन्द पूजा से आदमी को न जाने कैसे संतोष हो जाता है। जैसे आचमनम् समर्पयामि, अर्घ्यम् समर्पयामि, स्नानम् समर्पयामि, एक चम्मच जल के पीछे छिपी प्रेरणा और दिशाधारा समझिये। वह ये कि आपके शरीर में से जो पसीना निकलता है अर्थात् जो श्रम आपकी मेहनत और मशक्कत है उसे आप भगवान के लिए लगाइये। वह लोकहित के लिए हो, उसी से आप स्नान करा सकते हैं। ये अक्षत, नैवेद्य कहाँ है दिखाना जरा? शक्कर की गोलियाँ नहीं, भगवान का नैवेद्य है-हमारे श्रमदान के साथ-साथ में हमारा अंशदान। हमारी कमाई का एक हिस्सा भी जुड़ा रहना चाहिए। गवर्नमेंट का एक टैक्स- इनकमटैक्स और आदमी के धर्म का टैक्स-हर आदमी की कमाई में भगवान का एक शेयर यही है “अक्षत समर्पयामि” की प्रेरणा, आप सुनते नहीं दिशा निर्देशों को समझते नहीं और लकीर पीटने पर उतारू हो गये हैं। पीछे से कहते हैं भगवान प्रसन्न नहीं हुआ, हमारा उद्देश्य पूरा नहीं हुआ। इसीलिए मित्रो। आज श्रावणी के दिन आप ये कोशिश करें, अपने में मुँह डालें और जहाँ कहीं भी मलीनतायें दिखायी पड़ें उनसे बगावत करने के लिए अमादा हो जाइये। ये आपके दस स्नानों की शिक्षा है।

हेमाद्रि संकल्प किसे कहते हैं? चिन्तन और कृत्य जो हम शरीर से करते हैं। आदमी का चिंतन-बीज है और कृत्य उसका फल। विचार भी एक काम है, उसका परिणाम भी होता है। गंदे विचारों करते रहिये फिर देखिये आपका पतन कैसे होता है, दिमाग कैसे खराब होता है। हेमाद्रि संकल्प इस बात को बताता है कि हमारे जीवन में जो निषेधात्मक पक्ष है-उसको ठीक करें, धोये, लोहा ले, लड़ें, बराबर अपने आपसे। लड़ाई में कमजोरी को जाहिर शक्तियाँ हावी हो जायेंगी। इसीलिए हर समय आपको चौकीदारी करनी चाहिए। जिस दिन पहरा बन्द कर देंगे उसी दिन आपके घर का सफाया हो जायेगा, चोर माल उठा ले जायेंगे। इसके अतिरिक्त दो काम आपके और हैं-एक ऋषिपूजन और दूसरा देवपूजन। हमारे जीवन को ऊँचा उठाने के लिए सत्संग और स्वाध्याय अति आवश्यक है। चारों ओर के वातावरण का असर हम पर पड़ता है। उसे दूर करने के लिए हम ज्ञान का, विचारणाओं का लगातार शिक्षण करें। अगर हमें श्रेष्ठ जीवन जीना है तो गंदे विचार जो बिना प्रयत्न के हमारे ऊपर हावी होते रहते हैं, उनसे लोहा लेने, अच्छा जीवन जीने के लिए श्रेष्ठ विचारों के संपर्क में रहना पड़ेगा। हमारे मन में बड़ी मलीनता आती है। तो बेटे! उसको उखाड़ फेंक, उनसे लोहा ले, जद्दो-जहद कर। हाथी से हाथी की टक्कर होती है और भैंसे से भैंसे की। लाठी से लाठी की टक्कर होती है और बन्दूक से बन्दूक की। तेरे ऊपर जो कुविचार छाये रहते हैं उनसे मुकाबले के लिए अच्छे विचारों की सेना से लड़ा दे। मित्रो! ये क्या है? आपने उत्तम जीवन जीने के लिए जो देवपूजन, ज्ञान का पूजन और ऋषि पूजन किया।

ऋषि का अर्थ-वो व्यक्ति जो प्रभावशाली प्रतिभाओं के रूप में आपके ऊपर दबाव डाल सकते हो, आपको अनुशासन में रखने के लिए समर्थ हों। ऋषि वह जो आदमी को मजबूर कर सकते हैं, जो आदमी से धड़ल्ले से कह सकते है। आप ऋषि का अनुशासन पाये बिना आगे नहीं बढ़ सकते, कुसंस्कारों से छुटकारा नहीं पा सकते। ऋषि का पूजन हमने इसीलिए कराया कि आपके जीवन में अनुशासन आये। ऋषि हमारे जीवन की महती आवश्यकता हैं। ऋषि का सम्पर्क जिनसे हो गया, वो धन्य हो गये। नारद जी ऋषि थे। उनका सम्पर्क प्रहलाद और ध्रुव से हो गया वे धन्य हो गये हिमांचल के राजा की लड़की से नारद जी का सम्पर्क हो गया, वह धन्य हो गयी। वाल्मीकि से नारद जी का सम्पर्क हुआ, वह भी धन्य हो गये। कैसे हो गया? दबाव डालने वाले व्यक्ति जो आदमी की इच्छा के विरुद्ध भी बात कह सकते हों, उसे नाखुश भी कर सकते हों और इस पर झल्ला भी सकते हों-ऐसे आदमी कौन होते हैं? ऋषि जीवन को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने, के लिए आदमी को उन लोगों के साथ सम्पर्क बनाना चाहिए। ऐसे आधार खड़े करने चाहिए, जिनके बल पर हमारे लिए आगे बढ़ सकना संभव हो सके। श्रेष्ठ जीवन जीने भगवान के रास्ते पर चलने की, भगवान का प्रिय होने की, परमार्थ परायण होने की, अध्यात्म का जीवन में विकास होने की आवश्यकताएँ है।

स्वाध्याय और सत्संग क्या है? श्रेष्ठ पुरुषों का सान्निध्य और सद्ज्ञान के प्रति निष्ठावान् होना। अगर दो काम आपने नहीं किये है, तो आप ग्यारह माला जपें, चाहे ग्यारह हजार माला जपें, कुछ नहीं होने वाला। विकारों को आप काटते नहीं है। जीवन को ऊँचा उठाने के लिए जिस क्रेन की जरूरत है, उससे आपका सम्पर्क ही नहीं है। आप जान का तो निकाल देते है और लाश को लिए फिरते है। लाश को लेन से काम नहीं चलेगा, दिशाओं को लेने से काम चलेगा। मित्रो, आज हमने शिक्षण किया यज्ञोपवीत का, जिसे चौबीसों घण्टे कंधे पर धरण करते है। हम इसकी शिक्षाओं को, जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखेंगे, भुलायेंगे नहीं। हर साल इसको रिन्यु कराते है। टट्टी-पेशाब के समय आपको यज्ञोपवीत का ध्यान रखना चाहिए। जय पुराना हो जाता है, छः महीने हो जाते है, तब इसे आपको बदल देना चाहिए। क्यों? बार-बार हमें ध्यान रहे कि जनेऊ का भी हमारे जीवन में बच्चा हो, घर में गमी हो, चन्द्रग्रहण हो, सूर्यग्रहण हो। लाइये नया जनेऊ, बदलना पड़ेगा? हों बदलना पड़ेगा, ताकि आपको याद रहे। जनेऊ अर्थात् जीवन लक्ष्य आपको याद बना रहे और जीवन लक्ष्य के लिए जो काम आपको करने है, वे ध्यान में बने रहे। ये जीवन की महती आवश्यकता है। इन्हीं दोनों आवश्यकताओं को पूरा कर सके तो बात बन जाती है।

सुरक्षा के लिए क्या करना पड़ता है? कोई राष्ट्र, कोई समाज, कोई व्यक्ति, कोई कुटुम्ब सुरक्षित किस तरीके से रह सकता है? इसके लिए दो सूत्र है-एक लड़कियाँ अपने भाई के हाथ में राखी बाँधती है। बहिन राखी लेकर आयी और आपने उसे पाँच रुपये, एक धोती या टुपट्टा दे दिया और हो गया कार्य खतम! अरे भाई साहब, इसके लिए नहीं आती बहिन। भिखारिन नहीं है, जो आपसे कुछ माँगने आयेगी। किसलिए आयी थी? ये प्रतीकों का त्यौहार है। लड़कियाँ गा रही थी-” मेरी राखी”। मेरी से मतलब है नारी समाज, कोई व्यक्ति विशेष नहीं। कोई लड़की प्रतिनिधित्व करती है-सारे नारी समाज का। किसी का राष्ट्रीय, पारिवारिक और सामाजिक जीवन सुरक्षित बन सके, इसके लिए दो अपेक्षाएँ है। दो की रक्षा। काहे की रक्षा होनी चाहिए? एक रक्षा नारी के सम्मान की होनी चाहिए। नारी का सम्मान-शील भी उसी में आता है। नारी को दूसरे दर्जे का नागरिक, जैसा कि आज है, नहीं बनना चाहिए। उसको बलिष्ठ रहना चाहिए। नर के द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में उसका रक्षा-सूत्र नारी की ओर से बाँधा जाता है। उसका सम्मान, उसकी इज्जत, उसका गौरव हर जगह होना चाहिए। नर-नारी दोनों इंसान हैं। दोनों को एक-दूसरे की इज्जत करनी चाहिए। विचारों का विनिमय, मतभेदों का जहाँ तक ताल्लुक है आप बातचीत कीजिए, समझौता कीजिए, लेकिन सम्मान पर किसी के आँच मत आने दीजिए। न मर्दों की ओर से नारी के

सम्मान पर आँच आनी चाहिये न नारी ओर से मर्द के सम्मान पर आँच आनी चाहिये। नारियाँ मर्द के सम्मान की ओर से नारी के सम्मान पर ठेस पहुँचायी जाती है। ये नहीं होना चाहिये। नारी के सम्मान की रक्षा सामाजिक सुरक्षा के लिये सूत्र है। जहाँ नारी सम्मान पायेगी, विकसित होगी। जहाँ आपने उसके विकसित होगा। जहाँ आपने उसके सम्मान में कमी करना शुरू किया वे नारी के लिये न जाने क्या से क्या हो जायेगा और उसकी अंतरात्मा उसका गौरव गिरता हुआ चला जायेगा। एक और कारण भी है कि आर्थिक दृष्टि से नारी का कमजोर होना उसके लिये कितना कमाई ओर आपकी बुद्धि का एक हिस्सा इस काम के लिये लगना चाहिये। नारी ने पुकार की है। कि हमारी आर्थिक कमजोरी का अनुचित लाभ न उठाने दिया जाये। सारे समाज का कर्तव्य है कि जब सारा समाज नारी से लाभ उठता है माता, पत्नी बेटी और बहिन के रूप में तो उसका टैक्स भी चुकाना चाहिये। नारी का आर्थिक स्वावलम्बन कमजोर पड़ता है तो उसकी मदद करे ये रक्षा-सूत्र की प्रेरणा और शिक्षा है।

एक और रक्षा-सूत्र है सामाजिक सुरक्षा का जो ब्राह्मण यजमान को बाँधता है ये क्या? ये श्रेष्ठ पुरुषों का अनुशासन है �


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