किसी स्कूल या पाठशाला में क्रमबद्ध और नियोजित रूप से जिन्हें कहीं शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला, परन्तु जिन्होंने अपनी प्रखर-शक्ति के माध्यम से समूचे फ्राँस को एक नयी जीवन दृष्टि दी और सम्पूर्ण राज्यशासन को उलटने के लिये विप्लवी भूमिका तैयार की-उन महान विचारक रूसो से किसी ने एक बार पूछा- “अपने किस स्कूल में शिक्षा प्राप्त की?”
स्कूल के तो कभी दर्शन नहीं किये थे, परन्तु शिक्षा तो अवश्य प्राप्त की थी, तभी तो अपने प्रखर विचारों द्वारा आज फ्राँसीसी शासन और ढर्रे-बन्द समाज व्यवस्था की जड़ें खोदने में एक सीमा तक वे सफल हुये और शिक्षा तो किसी पाठशालाओं में ही प्राप्त की जाती हैं किसी पाठशाला का नाम ले रूसो को यह सोचते देर न लगी और जितना संक्षिप्त प्रश्नकर्ता का प्रश्न था उतना ही संक्षिप्त उत्तर था उत्तर दाता का “विपत्ति को पाठशाला में।”
विपत्ति बहुत बड़ी पाठशाला है यदि वहाँ कोई सीखने के लिये जाय। परन्तु अधिकाँश व्यक्ति तो उस पाठशाला के नाम से ही डरते है। अन्य पाठशालाएँ तो ऐसी है कि वहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये भर्ती होने जाना पड़ता है। आवेदन पत्र देने से लेकर कई एक प्रक्रियायें पूरी करनी पड़ती हैं तब कहीं जा कर प्रवेश प्राप्त होता है। महाविद्यालयों और उच्च कक्षाओं में प्रवेश प्राप्त कर सकना तो आजकल एक समस्या जैसा हो गया है। कई व्यक्तियों को इन कक्षाओं में प्रवेश की आकांक्षा से निराश होकर भी लौटना पड़ता है। कदाचित् जिस उत्साह से छात्र विद्यालयों और पाठशालाओं में भर्ती होने के लिये प्रयत्न करते हैं उसका एक अंश भी इस बिना बुलाई और नित्य खली रहने वाली पाठशाला में अनुग्रह पूर्वक वह समय व्यक्ति करें तो जीवन धन्य बन सकता है।
यहाँ कहा यह नहीं जा रहा है कि शिक्षण संस्थाएँ और विद्यालय, शालायें व्यर्थ है। वे उपयोगी है और उनका महत्व है तथा विद्यार्थी जीवन की अपनी एक गरिमा महिमा है। वहाँ बैठकर सरस्वती माँ का आराधना तो करनी ही चाहिए परन्तु अयाचित आने वाली विपत्तियों का भी उत्साह पूर्वक स्वागत करना चाहिए क्यों कि सीखने के लिए हमें वे बहुत कुछ देती है और सिखाने के लिए ऐसी महत्वपूर्ण शिक्षायें अपने साथ लेकर आती है कि कदाचित् उन्हें कोई सीख सके तो सुविधाओं और सम्पन्नता की परिस्थितियाँ न भी रहते हुए अपने व्यक्तित्व को सफल बना सकती हैं।
परन्तु प्रायः लोग विपत्तियों के आने पर या तो रोने घबड़ाने लगते हैं अथवा उनसे पलायन की बात सोचने लगते हैं। विपत्तियाँ न तो रोने के लिये हैं और न जीवन से पलायन कर जाने के लिये। जो लोग उनका उद्देश्य और प्रयोजन न समझ कर कलपने लगते हैं वे उस दब्बू छात्र की तरह हैं जो कक्षा में दिये गये पाठ को पूरा करने से घबराता हैं और सुनने से ऊब जाता हैं। ऐसे छात्र की न तो कोई प्रगति हो पाती हैं और न मानसिक विकास। परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिये फिर या तो वह अनुचित साधन अपनायेगा अथवा असफल हो जायेगा। उसी प्रकार विपत्ति रूपी पाठशाला में विपदाओं के पाठ से जी चुराने वाला, घबड़ाने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से पिछड़ जाता है। जब वे पाठ बीत जाते हैं और आगे का जीवन क्रम चलाने की बात आती है तो चोरी, बेईमानी, झूठ, फरेब और रिश्वत, शोषण जैसे अनुचित कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है। दूसरी सम्भावना अनुत्तीर्ण होने की है। वह पाता है कि जीवनरूपी गाड़ी चलाने में अब असमर्थ हूँ जो जीवन से पलायन कर लिया जाय। आत्महत्या, गृहत्याग और स्वजन परिजनों से विश्वासघात आदि इसी सम्भावना के अंग है।
प्रतिभावान छात्र के लिए अनुचित साधनों का प्रयोग और असफलता की सम्भावना दोनों ही बातें असम्भव हैं। परिश्रम, अध्यवसाय, लगन और संघर्ष की भावना से ज्ञान साधना में प्रवृत्त होकर वह अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो ही जाएगा अथवा उत्तीर्ण तो होगा ही। उसी प्रकार मनस्वी, श्रमशील और पुरुषार्थी व्यक्ति विपत्ति रूपी पाठशाला में पढ़ कर स्वयं को सफल और धन्य भी बना लेंगे तथा अन्य औरों के लिए भी ऐसा अनुकरणीय आदर्श उपस्थित कर जायेंगे जिसके प्रकाश में अन्य लोग भी चलते रहें।