नारद जी बोले “ सूत जी! आप ज्ञानी हैं। यदि किसी का कलेवर सजाया सँवारा जाय, परन्तु प्राण निकाल दिया जाय, तो वह रहेगा या नष्ट होगा?” सूत जी बोले- “ प्राण हीन कलेवर तो नष्ट होगा ही।”
नारद जी ने कहा- “ यदि बात दक्ष के यज्ञ पर लागू होती है। दक्ष अपनी क्रिया-कुशलता पर इतना गर्व करते थे कि यज्ञ के प्राण, यज्ञीय भाव पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया। यज्ञ परमात्मा को “ सुहृद् सर्वभूतानां अर्थात् सारी जड़ चेतन सृष्टि का मित्र हितैषी कहा गया है। इसीलिये यज्ञ सर्वहित भाव से किया जाता है।
हे ऋषिवर! जहाँ द्वेष या सत्कर्म को प्रारम्भ करने के पूर्व घोषणा होती है “ सर्वेषाम् अविरोधन यज्ञकर्म समारभे” अर्थात् सबके प्रति अविरोध का भाव रखते हुये यज्ञ कर्म प्रारम्भ किया जाता है।
दक्ष के यज्ञ का सारा विवरण समझने के बाद देवर्षि बोले- हे ऋषि श्रेष्ठ! यज्ञीय उपचार, यज्ञीय भावना, यज्ञीय चेतना के उभार और सदुपयोग के लिये किये जाते हैं। यज्ञीय भाव न होने से केवल उपचार कभी यज्ञ नहीं बन सकते, यह मर्म जो समझता है, वही यज्ञ रूप प्रभु का लाभ उठा पाता है।