महापूर्णाहुति समीप आ पहुँची, समझ लें हमें क्या करना है।

September 1995

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दूध में घुले मक्खन को अलग निकालने के लिए उबालने-मथने जैसे कई कार्य संपन्न करते पड़ते हैं। जैसे ही मलाई तैरकर ऊपर आती है, एक चरण पूरा हो जाता है-शेष थोड़े से पुरुषार्थ से पूरा हो दुग्ध का सार नवनीत के रूप में मिल जाता है। प्राणवान प्रतिभाओं को भी समुद्र रूपी दुग्ध के नवनीत की संज्ञा दी गई। इनका अनुपात जिस समाज में जितना अधिक होता है, उतना ही उसके प्रगति के पथ पर बढ़ चलने की संभावनाएँ प्रबल होती चली जाती है। प्राणवान प्रतिभाओं की इस युगसंधि के उत्तरार्द्ध की समापन वेला में जितनी आवश्यकता है उतनी विश्व के इतिहास में पहले कभी नहीं रही। अनिष्ट के अनर्थ से मानवीय गरिमा को विनष्ट होने से वे ही बचा सकते हैं। इन दिनों उन्हीं की ढूँढ़-खोज का कार्य चल रहा है।

आज के असंतुलन को संतुलन में बदलने के लिए महाकाल की ही योजना के अंतर्गत एक युगसंधि महापुरश्चरण की योजना बनी। 1980 में घोषित अभियान साधना के उग्र तपश्चर्या-परक बारह वर्षीय उत्तरार्द्ध वाले एक विश्वव्यापी महाअनुष्ठान के रूप परिवर्धित हुए इस उपक्रम की घोषणा परमपूज्य गुरुदेव द्वारा आश्विन नवरात्र 1988 को की गई थी। अब उस महापुरश्चरण की अंतिम समापन घड़ियाँ आ पहुँची हैं। यह सारी अवधि सारी मानवजाति के लिए प्रतिकूलताएँ झेलते हुए अग्नि परीक्षा की तरह बीती हैं। इस सदी का अंतिम गुरुपूर्णिमा पर्व भी इस महापुरश्चरण के साधना वर्ष व पूर्णाहुति वर्ष की मिलन वेला में आया है एवं हमें सोचने पर विवश करता है कि इस अग्निपरीक्षा में-तप−साधना प्रधान अनुष्ठान ने क्या वह उद्देश्य पूरा किया, जिस प्रयोजन के लिए इसे आरंभ किया गया था। अभी वह अभियान कसौटी की अवधि पूरी भी नहीं हुई है, आगामी कुछ परीक्षा की घड़ियाँ लिए डेढ़-दो वर्ष हमारे सामने हैं। परमपूज्य गुरुदेव ने तब अक्टूबर 1988 की अखण्ड ज्योति में लिखा था- यह एक लंबा संग्राम है। संभवतः प्रस्तुत परिजनों के जीवन भर चलते रहने वाला। इक्कीसवीं सदी आरंभ होने में अभी दस वर्ष से भी अधिक समय शेष है। इस युगसंधि वेला में तो हम सबको उस स्तर की तप−साधना में संलग्न रहना है, जिसे भगीरथ ने अपनाया और धरती पर स्वर्गस्थ गंगा का अवतरण संभव कर दिखाया था। महामानवों के जीवन में कहीं कोई विराम नहीं होता। वे निरंतर अनवरत गति से शरीर छूटे तक चलते ही जाते हैं। इतने पर भी लक्ष्य पूरा न होने पर जन्म-जन्मान्तरों तक उसी प्रयास में निरंतर रहने का संकल्प संजोये रहते हैं। इसी परंपरा का निर्वाह उन्हें भी करना है जिन्हें अपनी प्रतिभा निखारनी और निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में अनुकरणीय-अभिनंदनीय उपलब्धियाँ कमानी हैं।

परमपूज्य गुरुदेव ने ‘प्रतिभा की महासिद्धि’ की साधना हेतु ही इस विषम वेला में एक सामूहिक उसकी समापन घड़ियाँ हमारे सामने हैं। सारा मार्गदर्शन जो 1988 से 1990 तक लिखे पूज्यवर के अमृत वचनों के माध्यम से मिलता है-वह एक ही धूरी पर घूमता है। “प्राणवान प्रतिभाओं का परिष्कार उनके माध्यम से युगपरिवर्तन रूपी दैवी प्रयोजन पूरा किया जाना।” इसके लिए उनने साधना की धुरी पर दो मोर्चे आरंभ किए जाने की बात कही थी-पहला-आदर्शवादी सहायकों में उमंगों को उभारना और एक परिकर, एक सूत्र में संबद्ध करना, साथ ही कुछ नियमित-सृजनात्मक गतिविधियों का आरंभ होना, जो सद्विचारों को सत्कार्यों में परिणत कर सकने की भूमिका निभा सकें। दूसरा-अनीति विरोधी मोर्चा खड़ा किया जाना। उसे एक प्रयास से आरंभ कर विशाल-विकराल बनाया जाना।

परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद श्रद्धांजलि समारोह एवं शपथ समारोह से लेकर परम वंदनीय या माताजी के मार्गदर्शन में संपन्न देवसंस्कृति दिग्विजय के आश्वमेधिक पराक्रमों का लक्ष्य उपर्युक्त दो मोर्चों को सशक्त किया जाना था। 1994 की भाद्रपद पूर्णिमा को परम वंदनीय माताजी के गुरुसत्ता के साथ विलय हो जाने के बाद उनके सूक्ष्म संरक्षण में बाद के भारत व विश्व के विराट भव्य आयोजन संपन्न हुए, साथ ही संस्कार महोत्सवों, जिनकी संख्या प्रखर साधना वर्ष के शुभारंभ तक 400 को पार कर गई के द्वारा भारतीय संस्कृति के निर्धारण प्रायः चार करोड़ से अधिक सामान्यजनों तक जो गाँव-शहरों-महानगरों में रहते थे, पहुँचे। प्रखर साधना वर्ष वसंत पर्व 22 प्रायः सात माह पूरा होने को आ रहे हैं। अब महापूर्णाहुति वर्ष 10 फरवरी 2000(वसंत पंचमी) से आरंभ होने जा रहा हैं। इस गुरु पर्व पर हम एक के उत्तरार्द्ध एवं दूसरे की पूर्व तैयारी के संधि-स्थल पर खड़े हैं। एक ऐतिहासिक महापुरश्चरण की पूर्णाहुति कैसे-क्या होने जा रही है, यह सबके लिए एक कुतूहल का विषय हो सकता है। इस संबंध में बड़ा ही स्पष्ट चिंतन एवं एक सुनिश्चित लक्ष्य पूज्यवर हमारे समक्ष रख गए हैं। गुरु सत्ता ने प्रज्वलित संवेदनशीलों, प्राणवान, प्रतिभावानों की लक्ष्य संख्या एक से दो करोड़ निर्धारित की है। निश्चित ही गुरुसत्ता का भविष्य-कथन मात्र पदार्थ यज्ञ नहीं, विभूति यज्ञ की ओर इंगित करता है। जिसका हवाला प्रारंभ में दिया गया था।

विभूतियों से तात्पर्य परिष्कृत प्रतिभाओं से है, जो नवसृजन के निमित्त नियोजित होंगे। वे ही सही अर्थों में युगनिर्माण योजना, गायत्री परिवार-प्रज्ञा अभियान रूपी इस विराट संगठन के सही अर्थों में उत्तराधिकारी-प्रतिनिधि एवं श्रेय के अधिकारी माने जाएँगे, जो इस प्रखर साधना वर्ष में स्वयं को परिपक्वता के शिखर तक पहुँचाएँगे एवं अपने को दस से अधिक व्यक्तियों के रूप में बहुगुणित कर महापूर्णाहुति के निमित्त दो करोड़ साधकों के एक विराट जाग्रत संगठन के रूप में प्रस्तुतीकरण कर सकेंगे। ऐसे बीस लाख परिजन भी यदि हम इस प्रखर साधना वर्ष में संकल्पित कर लेते हैं। जिनने 48 साधना केंद्रों के माध्यम से स्वयं को जोड़ा है या अगले दिनों जुड़ सकते हैं तो यह लक्ष्य हम पूरा कर सकेंगे। वस्तुतः यह साधना की धुरी पर संगठन के पुनर्गठन का वर्ष हैं एवं निश्चित ही पूज्यवर द्वारा घोषित संधिवेला की प्रखरतम अग्निपरीक्षा का भी वर्ष है।

महापूर्णाहुति की एक मोटी रूपरेखा फिलहाल परिजनों के सम्मुख प्रस्तुत की जा रही है। मूल ढाँचा तो यही रहेगा, किंतु क्रमशः इसके सूक्ष्मतम विस्तार का पूरा स्वरूप निश्चित ही इस वर्ष की (आश्विन नवरात्र 10-18 अक्टूबर 1999) की वेला तक सबके समक्ष प्रस्तुत हो सकेगा। महापूर्णाहुति को परमपूज्य गुरुदेव द्वारा लिखित सभी मार्गदर्शन परक टिप्पणियों तंत्र ने पाँच खण्डों में बाँटा है।

प्रथम चरण-पूर्वाभ्यास महापूर्णाहुति के पूर्व एक पारमार्थिक पूर्वाभ्यास तथा संघशक्ति के प्रतीक रूप सभी धर्म-संप्रदायों की उसमें साझेदारी के रूप में इस वर्ष दिसंबर माह की तीन तारीख को एक आयोजन एक साथ सारे भारत में एक ही समय संपन्न किया जाना है। यह प्रसंग भारत में पोलियो उन्मूलन अभियान के राष्ट्रीय कार्यक्रम की पूर्व वेला में जन-चेतना के जागरण के रूप में आया है। इस सदी की अंतिम पोलियो खुराक 5 दिसंबर 99 के एक साथ सारे भारत में शिशुओं को पिलाई जाएगी। उसके पहले जन-चेतना जगाते हुए एक अभियान अपने विराट व्यापक तंत्र के द्वारा चलाया जाएगा, जिसमें सभी धर्म-संप्रदायों-समाजसेवी संगठनों की भागीदारी होगी। उन्हें सहमत किया जाएगा कि पोलियो उन्मूलन के इस महायज्ञ के साथ “सबको स्वास्थ्य, सबके लिए उज्ज्वल भविष्य ‘की प्रार्थना के रूप में 3 दिसंबर की संध्या 5 से 6 सभी एक साथ दीपयज्ञ करें। जहाँ दीप प्रज्ज्वलन संभव नहीं-वहाँ मोमबत्ती जलाकर, लोबान जलाकर अथवा अपने देवालयों की प्रतिमा के समक्ष एक साथ बैठकर प्रार्थना की जा सकती है एवं जनसाधारण की इसमें भागीदारी कराई जा सकती है। इसके लिए विभिन्न धर्म संप्रदायों के प्रमुखों, उपासनागृहों -देवालयों, तीर्थों तथा रोटरी लायन्स क्लब भारत विकास परिषद जैसे समाजसेवी संगठनों से संपर्क, अपने परिजनों को अभी से आरंभ करना होगा। इसमें हमें जन-जन तक पहुँचने, सबसे सद्भाव स्थापित करने का मौका मिलेगा, साथ ही महापूर्णाहुति का एक पूर्वाभ्यास भी संपन्न हो जाएगा, जिसमें संभवतः इन सभी संगठनों की हम पुनः भागीदारी करा सकेंगे।

द्वितीय चरण-फरवरी 2000 पर- वसंत पर्व, जो पूज्यवर का आध्यात्मिक जन्मदिवस व मिशन का प्रमुख पर्व है, की पावन वेला में पुनः एक ही समय सभी जगह पूर्वाभ्यास के समान दीप-महायज्ञ किए जाएँगे। इक्कीसवीं सदी के आगमन की शुभ वेला एवं महापूर्णाहुति के शुभारंभ पर सभी शाखाओं-प्रज्ञापीठों-शक्तिपीठों-प्रज्ञा-मंडल केंद्रों एवं पूर्व में जुड़े अन्यान्य धर्मावलम्बियों के उपासनागृहों में एक साथ संपन्न इस दीपयज्ञ के माध्यम से महापूर्णाहुति वर्ष में किए जानेवाले संकल्पों की, राष्ट्रनिर्माण की प्रतिज्ञाओं की घोषणा की जाएगी। हर परिजन अपनी भूमिका-भागीदारी का स्वरूप एवं अपने प्रभाव क्षेत्र का तब तक अध्ययन कर चुका होगा। ये सभी घोषणाएँ इस वेला में होंगी।

तृतीय चरण-वसन्तपर्व (10 फरवरी 2000) से गायत्री जयंती (11 जून 2000) पूरे देश में क्रमशः ग्राम पंचायत, ब्लॉक, जिला, संभाग एवं प्राँत स्तर पर पाँच खंडों में महापूर्णाहुति के घोषित कार्यक्रम पूर्व निर्धारित अनुशासनों के साथ चलेंगे।

चतुर्थ चरण- महापूर्णाहुति का उत्तरार्द्ध होने के नाते सामूहिक स्तर पर इसे वर्ष के अंत तक संपन्न किया जाना है। इसका स्पष्ट स्वरूप समयानुसार परिजनों को पढ़ने को मिलेगा। वसंत से गायत्री जयंती तक राष्ट्र-भर में व विश्व के अस्सी से अधिक देशों में उभरी शक्ति और संकल्पित कार्यों का संयुक्त स्वरूप इसमें उभर कर आएगा। इसमें पूरा भारत के परिजनों सहित युगतीर्थ आँवलखेड़ा, गायत्री तपोभूमि मथुरा एवं शान्तिकुञ्ज हरिद्वार की सक्रिय भूमिका रहेगी। जिस क्षेत्र में जिस स्तर की क्षमता उभरकर आएगी, उसी आधार पर परिजनों को-प्राणवानों को इक्कीसवीं सदी के सृजन अभियान की कमान सौंपी जाएगी।

पंचम चरण-वसंत पर्व 2001(29 जनवरी) -पर एक साथ पुनः दीपयज्ञ संपन्न होने के रूप में पूरा होकर महापूर्णाहुति का समापन होगा। इसमें 2000 के अंत में क्षेत्र-वार परिजनों-संगठनों द्वारा स्वीकार की गई जिम्मेदारियों की स्वीकारोक्ति के साथ नई सहस्राब्दी का स्वागत दीपदान द्वारा किया जाएगा।

यह दीपदान एक साथ सारे भारत के विभिन्न केंद्रों-देवालयों एवं विश्व भर के शक्ति केंद्रों में संपन्न होकर एक ऐसी शक्ति को जन्म देगा, जिसके माध्यम से आगत के शुभ होने एवं विभीषिकाओं के निरस्त होने की संभावनाएँ प्रबल होंगी। भारतीय संस्कृति पुनः विश्व संस्कृति के रूप में प्रतिष्ठित हो, उज्ज्वल भविष्य के माध्यम से सतयुग की वापसी के संकल्प को साकार करेगी।


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