सब दिन नाहिं बराबर जात (Kahani)

September 1995

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बाक्स में- एक गिद्ध था। उसके माता-पिता अंधे थे। सारा परिवार पर्वत की एक कोटर में रहता था। गिद्ध रोज सूर्योदय पर निकल जाता, अपना पेट भरता और अपने अन्धे बूढ़े माता-पिता के लिए भी खोज-खोज कर माँस के टुकड़े लाता था। कई दिनों तक यह क्रम चलता रहा। किन्तु ‘सब दिन नाहिं बराबर जात।’ एक दिन नदी के किनारे बहेलिये ने जाल डाला और गिद्ध आकर उसमें फँस गया। वह तड़फड़ाया, मगर उसकी सब कोशिशें बेकार रहीं। गिद्ध को अपने जाल में फँस जाने का सन्ताप इतना नहीं था, जितना उसे अपने माता-पिता के भूखों मर जाने का भय था। वह जोर-जोर से विलाप करने लगा। बहेलिये का ध्यान उधर गया। उसने गिद्ध के पास जाकर पूछा कि वह क्यों परेशान है? दूसरे गिद्ध तो रोते नहीं हैं वह अकेला ही क्यों जमीन-आसमान एक कर रहा है? गिद्ध ने अपनी व्यथा कही। बहेलिये ने ताना-मारा “ रे गिद्ध, तेरी बात मेरी समझ में नहीं आयी है। गिद्धों की दृष्टि तो इतनी तेज होती है कि वे सौ योजन ऊपर आसमान से भी मुर्दा चीजों को देख लेती है, लेकिन तू तो निकट बिछे जाल को ही नहीं देख पाया है, ऐसा गज़ब कैसे हो गया?” इस पर गिद्ध बोला- “ बहेलिये, बुद्धि की लगाम जब तक अपने हाथ में रहती है, तब तक मनुष्य प्रपंच में नहीं फँसता। किन्तु जब बुद्धि पर लोभ का अधिकार हो जाता है, तो थोड़ा रास्ता भूल जाता है और अपने साथ सवार को भी ले डूबता है। जीवन भर माँस पिण्ड के पीछे ही भागते-भागते मेरी नजर में माँस पिण्ड ही सर्वस्व बन गये हैं। उनके सिवाय मुझे और कुछ दिखलायी ही नहीं पड़ता है। दृष्टि जब इतनी सँकरी हो जाती है, तो सही रास्ता भी लुप्त हो जाता है। मेरे जाल को नहीं देख सकने का कारण यहीं है। लेकिन अब ज्ञान का उदय होने से क्या होगा? किये का फल भोगना ही पड़ेगा। “ बहेलिये को गिद्ध की बात भायी। उसने प्रसन्न होकर कहा- “ गिद्ध राज, जाओ! मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ। अपने अन्धे माता-पिता की सेवा करो। तुमने आज मेरी भी आँखें खोल दीं।

ठीक यही भूल मनुष्य अपने जीवन में करता है। जो पहले ही सँभल जाता है, वह जीते जी अपने दायित्वों से मुक्त हो जाता है।


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