गुरु हमें आत्मोन्मुख करने के लिए दिखाता है आइना

September 1995

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सांख्य योग’ नामक गीता का द्वितीय अध्याय सर्वाधिक है, यह पूर्व में बताया जा चुका है। बहत्तर श्लोकों के इस अध्याय के प्रारंभिक प्रसंग “अर्जुन के अंदर से शिष्यत्व आ उभार एवं उसके द्वारा श्रीकृष्ण को सद्गुरु-भगवान के रूप में वरण किया जाना” की चर्चा की जा चुकी है। यह प्रसंग द्वितीय अध्याय के दसवें श्लोक गीता का उपदेश यहीं से आरंभ होता है। इसके पूर्व अर्जुन कह चुका है “मेरे लिए निश्चित कल्याणकारक साधन मुझे कहिए, क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ-आपके शरण हुए मुझ अकिंचन को शिक्षा दीजिए।” साथ ही वह यह भी कहता है कि मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके ऐसा ज्ञान मुझे दीजिए, क्योंकि भूमि में निष्कंटक, धन-धान्य संपन्न राज्य को-स्वामित्व को प्राप्त होकर (सातवाँ व आठवाँ श्लोक)। इसके बाद के दो श्लोक में संजय द्वारा दी गई जानकारी से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे। इस अंक में अर्जुन के अंदर से शिष्यत्व के जागरण के बाद के इसी प्रसंग का विवरण है, जो योगेश्वर श्रीकृष्ण के श्रीमुख से तत्त्वज्ञान के रूप में निस्सृत हुआ है।

अर्जुन के अंदर एक अभीप्सा पैदा कर महाक्रान्ति की है श्रीकृष्ण ने, तभी वह युद्ध न करने की बात कहकर भी शिष्य भाव से उनकी शरणागति आया है एवं वह तत्त्वज्ञान जानना चाहता है, जो उसकी आत्मिक प्रगति भी कर सके एवं युगधर्म की स्पष्ट व्याख्या उसे समझा सके। गुरु ने भगवान ने जब भी शिष्य की ऐसी स्थिति देखी है, तो इसे उचित मनः स्थिति पाकर उसकी अच्छी-खासी धुलाई की है। चाहे वे विरजानन्द जी हों, रामकृष्ण परमहंस हों अथवा श्रीराम शर्मा आचार्य जी। गुरु की डाँट भी भले के लिए होती है। बिना धुलाई के रंगाई कैसे संभव होगी। शिष्य के प्रारब्धों को इसमें कम में काटा भी नहीं जा सकता। हम कभी-कभी असमंजस में आ जाते हैं कि हमने तो समर्पण किया हैं एवं गुरुजी हमें डाँट लगा रहे हैं-हमें झाड़ रहे हैं। यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। हममें से न जाने कितने हैं, जिन्हें उस डाँट को सुनने का सौभाग्य मिला, वह न मिलती, तो संभवतः पूर्व का अहंभाव, पूर्वाग्रह सभी यथावत

रहते एवं वह प्रगति न हो पाती, जिसने आज यहाँ तक पहुँचाया है। यदि वह प्रगति हो नहीं पाई है, तो इसका कारण संभवतः यही हे कि गुरु की डाँट को हमने अंतस् में प्रविष्ट नहीं होने दिया, बुरा मान बैठे अथवा हमारे जड़ता भरे पूर्वाग्रह आड़े आ गए। अर्जुन श्रीकृष्ण की डाँट ‘कुतस्त्वा कश्मलमिंद विषमे सपुपस्थितम्’ के माध्यम से दूसरे अध्याय के दूसरे श्लोक में सुन चुके हैं एवं तत्त्वज्ञान को जानने की अभीप्सा प्रकट कर रहे हैं, भगवान उन्हें गीता का वह तत्त्वज्ञान सुनाते हैं, जो हम सब शिष्यों के लिए है। अनादिकाल से यह ज्ञान सबका मार्गदर्शन करता रहा है एवं आगे भी असमंजस में-ऊहापोह में फँसी मानवजाति का त्राण करता रहेगा। समय-समय पर छोटे-छोटे व्यवधानों-शरीरगत क्लेशों या तनाव के कारण-पारिवारिक क्लेशों या तनाव के कारण-पारिवारिक संकटों के कारण हम शोकग्रस्त हो जाते हैं। समझ में नहीं आत, क्या करे? तब हमें समग्र मार्गदर्शन प्रदान करती है।

श्री भगवान कहते हैं-

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे। गतासूनगतासूंश्च नानूशोचन्ति पण्डिताः॥ (2/11)

अर्थात्- “हे अर्जुन! तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और पंडितों के से वचन कहता है- परंतु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और जिनके प्राण नहीं गए हैं, उनके लिए भी पंडितजन शोक नहीं करते।”

भगवान कह रहे हैं कि तु तो पंडित है। इतनी बड़ी-बड़ी पंडितों जैसी-बुद्धिमानों जैसी बातें पूर्व में कह चुका है। बोलता है-ज्ञानियों की भाषा और है पूर्णतः अज्ञानी। जो सोचना नहीं चाहिए, वह सोचता है। बुद्धि का मान रखने वाले बुद्धिमान-तथाकथित पंडित तर्क तो कई दे लेते हैं, किंतु व्यावहारिक धरातल पर उस ज्ञान के लागू आने का मौका आता है तो फिसड्डी साबित होते हैं। तर्क-बुद्धि को प्रपंच ही तो समर्पण में आड़े आता है। इसीलिए पहली चोट-डाँट लगाकर-लताड़ मारकर श्रीकृष्ण उसके अहं को विगलित करने का प्रयास करते हैं। कहते हैं कि पंडितजनों को जो प्राण छोड़कर चले गए हैं या जीवित हैं, उनके लिए कभी भी शोक नहीं करना चाहिए। भगवान सद्गुरु भी हैं, पारदर्शी भी, ऋषि भी और अंतर्यामी भी। वे कह रहे हैं कि मन के अरमान तो तेरे बड़े ऊँचे हैं। बड़ी-कड़ी विद्वता की बातें कहता है वे कहता हैं कि तू भीख माँगकर गुजारा कर लेगा, किंतु युद्ध नहीं करेगा। भीख माँगना अर्जुन के लिए संभव नहीं है, क्योंकि वह वैरागी नहीं है। वह स्वभावतः एक योद्धा है।

भिक्षा माँगना एक योगी-वैरागी के लिए ही ठीक हैं, वह भी तब, जब वैराग्य पूर्णतः प्रज्वलित हो। गैरिक वस्त्र जो पहने जाते हैं, वे प्रज्वलित अग्नि ज्वालाओं के प्रतीक हैं विरजु होम किया जाता है तब संन्यास धर्म अपनाया जाता है। वैरागी-संन्यासी अपना ही श्राद्ध-दर्पण करती है व फिर अपने नाम-कुल को भूल जाता है। कभी इस तरह भिक्षा माँगना ज्ञान की बात मानी जाती थी। महात्मा बुद्ध ने भी इस परंपरा का निर्वाह किया। परंतु परमपूज्य गुरुदेव ने कहा-आज के युग का धर्म, आज का नवसंन्यास है- परिव्रज्या समयदान - अंशदान द्वारा समाज को पीड़ा-पतन-पराभव से मुक्त कराना। यह बात अर्जुन के कथन के परिप्रेक्ष्य में बड़ी अच्छी तरह समझी जा सकती है कि युगधर्म का निर्वाह एवं परिव्राजक बनकर समय की माँग का परिपालन पूज्यवर के अभियान में जुटकर किया जा सकता है।

हम अर्जुन के तर्कों व उसकी पांडित्यपूर्ण तर्कों पर योगेश्वर श्रीकृष्ण की लताड़ के परिप्रेक्ष्य में चर्चा कर रहे थे। भगवान कहते हैं-तुझे शोक नहीं करना चाहिए। न तो ऐसा है कि मैं किसी काल में नहीं था तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे। (जिनके लिए तू शोक कर रहा है) और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। (बारहवाँ श्लोक)। इसके आगे वे कहते हैं कि जीवात्मा की इस देह में बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है। उस विषय में धीरपुरुष मोहित नहीं होते (शोक नहीं करते)। (तेरहवाँ श्लोक)

देह से परे जाकर समझने की बात कहकर भगवान अपने शिष्य को आसक्ति से मुक्त करना चाह रहे हैं। हर गुरु बचपन की याद दिलाकर, जो छूट गया से ठीक अब वर्तमान को देखने-जीवनयात्रा की निरंतरता के देखने की बात शिष्य को समझाता है। गुरु पूर्वकाल को भी जानता है, हमारे बचपन को भी-हमारे वर्तमान को भी एवं भविष्य में क्या होने वाला है यह भी। वह बार-बार यह बात कहता हैं, क्योंकि जब तक शिष्य के आसक्ति के बंधन नहीं छूटेंगे, तब तक अध्यात्म के मर्म को नहीं जाना जा सकता।

परमपूज्य गुरुदेव भी बार-बार हमारे आसक्ति के बंधनों पर चोट मारते थे। जो भी जीवनदान देकर शान्तिकुञ्ज आने की बात कहता था, उसे यही कहते कि एक झटके से मोह तोड़ सको पारिवारिक संबंधों से, तो ही आओ। नहीं तो रहोगे यहाँ, मन रहेगा परिवार संबंधियों में। न जाने हमारे काका जी, मौसी जी का क्या हो रहा होगा। जब भी कोई कार्यकर्ता किसी शादी-ब्याह में, किसी की बीमारी में जाता था, तो पूज्यवर यही कहते थे कि “तू अपनी नानी की बेटी की मौसी की, बच्ची के ब्याह में क्यों जा रहा है। अब तू बाबाजी बन गया है। तेरी जिम्मेदारी बड़ी है। भले ही तू अपने खर्चे से जा रहा है, तेरे समय की कीमत तुझे मालूम नहीं हैं। तू यहीं रह। शादी-ब्याह के बाद रिश्तेदारों को युगतीर्थ में आशीर्वाद के लिए बुला ले। सब निहाल हो जायेंगे, तेरा पैसा व मिशन का समय बच जाएगा। तू यहाँ के खर्चे से यदि शादी-ब्याह में जाएगा तो मान ले कि हमारे पेट में चाकू मारकर तो मान ले कि हमारे पेट में चाकू मारकर जा रहा हैं। किसी की बीमारी में जाना हो बेटे, प्रार्थना हम कर देंगे। तू कोई डॉक्टर है जो जाकर ठीक कर देगा। अब व्यवहार आदि की प्रक्रिया से परे होकर चलो तुम सब।” हमने यह सब यहाँ सभी को याद दिलाने को लिखा है कि देहातीत यात्रा-आसक्ति के बंधन तोड़कर यात्रा करने-आसक्ति के बंधन तोड़कर चलने की बात लोकसेवी के लिए एक दिशा-दर्शन की तरह है। यही समय-समय पर पूज्यवर ने सबको समझाई। यदि युगगीता के परिप्रेक्ष्य में आज भी यदि हम उनकी-गुरुसत्ता की वेदना को समझ सकें तो अपने आसक्ति के बंधन तोड़कर अपने को एक विराट परिवार का अंग मानकर उन सभी पर अपनी पारिवारिकता को लागू कर उनके कार्य को अंजाम दे सकते हैं। यदि श्रीकृष्ण-अर्जुन के इस संवाद के द्वारा यही तथ्य हमारे केंद्रीय-क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं की समझ में आ जाए, तो यह लेखन सार्थक माना जाएगा।

श्री भगवान अर्जुन के आसक्ति के बंधनों पर चोट करने के बाद चौदहवें श्लोक में उसके शोक संबंधी कथन पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहते है कि “हे कुंती पुत्र! सर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देने वाले इंद्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं। इसलिए तू उन्हें सहन कर।”

इसके पहले आठवें श्लोक में अर्जुन कह चुका है कि “मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सकने वाला उपाय मुझे दिखाइये यहाँ भगवान कह रहे हैं कि एवं उसे सहन करने की आदत डालनी चाहिए। वे आगे कहते हैं ऐसा व्यक्ति जिसे से संयोग व्याकुल नहीं करते, वही मोक्ष के योग्य होता है। (पंद्रहवाँ श्लोक) आगे वे सत्रहवें-अठारहवें श्लोक में कहते हैं कि हे अर्जुन! नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह संपूर्ण जगत- दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नहीं हैं। इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के ये सब शरीर नाशवान् कहे गए हैं। इसलिए हे भरतवंशी! तू युद्ध कर।

कितने बड़े दर्शनपरक प्रसंग को अति-संक्षेप में कहकर योगेश्वर कृष्ण उसे पुनः उसी प्रवाह में आते हैं कि यह शरीर तो नाशवान् है, मात्र आत्मा ही है, जिसे नष्ट नहीं किया जा सकता। जो दिखाई देता है, वह नाशवान् है-क्षणभंगुर हैं। जो अदृश्य है, वह अविनाशी है। देखते-देखते कितने लोग मृत्यु के गर्त में समा गए। उस अविनाशी तत्त्व को पहचान, जिसका नाम है आत्मा, जो देहातीत हैं। वे अगले श्लोकों में यही कह रहे हैं और उसे इस सांख्ययोग के प्रथम भाग ‘देहातीत आत्मा का भान’ के संबंध में समझाने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि वह अपना कर्तव्य समझ सके एवं युद्ध में स्वयं को नियोजित कर सके।

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्। उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः। अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

अर्थात्- जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते। क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और न किसी के द्वारा मारा जाता है। यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है, क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।

उपर्युक्त व्याख्या आत्मा के विभिन्न गुणों के विवेचन के साथ तीसवें श्लोक तक आई है। गीता का सार माने जाने वाले एवं किसी प्रियजन की मृत्यु पर शोकग्रस्त व्यक्ति के लिए मननीय-पठनीय अंश यही हैं, जो ग्यारहवें से तीसवें श्लोक तक फैले हुए है। बारबार अहसास करा रहे हैं भगवान कि इस देह के लिए परेशान मत हो। इन रिश्तेदारों के प्रति जो मरणधर्मा हैं, मोह मत कर। गुरु हर शिष्य को ही हम बुद्धिमानों की भाषा-पांडित्यपूर्ण वचन बोलते हैं- गुरु हमें आइना दिखा देता है। यह गुरूर किसलिए - यह मोह किसके लिए- समाप्त हो जाने वाली काया के लिए-नश्वर संबंधों के लिए। बारबार योगेश्वर कृष्ण अपने शिष्य अपने से कहते हैं कि वह शाश्वत संबंधों को पहचानो, अस्थायी संबंधों को भूले। शाश्वत है- आत्मा-परमात्मा का, जीव ब्रह्म का, शिष्य-गुरु का संबंध तथा अस्थायी व नाश को प्राप्त होते रहने वाला संबंध है-रिश्तेदारों वाला-भाई चाचा, मामा वाला। हम जिन्हें सगा मानते हैं-वे वस्तुतः मात्र गुरु-है युगों-युगों तक अनंतकाल तक चलते हैं गुरु-शिष्य के संबंध। जिस में सच्ची भावना है, उदात्त प्रगाढ़ पवित्र संबंध है- वह मात्र गुरु- शिष्य का संबंध है। जिस में सच्ची भावना है, उदात्त भावना है, प्रगाढ़ पवित्र संबंध है- वह मात्र गुरु- शिष्य को ढूँढ़ लेता है एवं सच्चे शिष्य को ढूँढ़ लेता है एवं सच्चा गुरु सदैव सच्चे शिष्य को ढूँढ़ लेता है एवं सच्चा शिष्य सदैव सच्चे गुरु को ढूँढ़ लेता है।

भगवान बारबार अर्जुन को मोह पर चोट करते हुए अगले श्लोकों में भी यही बात पुनः जोर देकर कहते हैं-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥

अर्थात्-पुराने वस्त्रों का त्याग कर मनुष्य जैसे नए कपड़े धारण कर लेता है वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर नए शरीरों को प्राप्त करती है। इस आत्मा को शस्त्र काट सकते हैं न आग ही जला सकती है, न जल इसे गला सकता है और न वायु इसे सुख सकता है।

नित्य-सर्वव्यापी-अचल-स्थिर-सनातन आत्मा की विशेषताएँ समझा रहे योगेश्वर उसे अगले श्लोकों में विकाररहित बताते हुए कहते हैं कि इस प्रकार से आत्मा को समझ लेने वाले अर्जुन को किसी भी स्थिति में शोक नहीं करना चाहिए, न ही अवसादग्रस्त होकर युगधर्म से मुँह ही मोड़ना चाहिए। यह सारा प्रसंग देहातीत आत्मा के भान का है, जो वे बराबर करा रहे है, ताकि उनका शिष्य मोहग्रस्तता की स्थिति से उबर सके। वे कहते हैं कि आज जो जन्मा है, उसकी मृत्यु निश्चित है एवं मरे हुए का जन्म निश्चित है, इसलिए बिना कोई विकल्प या कारण वाले इस शोक को करना उसे शोभा नहीं देता। आगे (सत्ताईसवां श्लोक)। आगे यह कहते हुए कि यह आत्मा सबके शरीरों में अवश्य है (उसका वध नहीं किया जा सकता- वध तो मात्रा शरीर रूपी बाह्य आवरण का होता है) इसलिए किसी भी स्थिति में उसे शोक नहीं करना चाहिए। वे सीधे युगधर्म की व्याख्या कर देह से स्वधर्म आचरण की बात पर आ जाते हैं।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥

अर्थात् अपने धर्म को देखकर भी तुझे भय नहीं करना चाहिए, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।

इस श्लोक के माध्यम से साँख्य योग रूपी इस दूसरे अध्याय के शिष्यत्व के जागरण के बाद का देहातीत आत्मा के मन से संबंधित दूसरा प्रकरण समाप्त होकर तीसरा आरम्भ हो जाता है एवं यह है देह से स्वधर्म आचरण की मीमांसा-परक भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुझे यह देह इसलिए मिली है कि तू देह के माध्यम से स्वधर्म निर्वाह कैसे किया जाना चाहिए, यह समझ सके। परमपूज्य गुरुदेव कहते थे कि हमें यह शरीर मिलता है कि इस माध्यम से ही आत्मा और ईश्वरीय प्रकाश की रश्मियाँ फैलती हैं। यह हमें मिला ही इसलिए है कि हमारे माध्यम से परमात्मा झर सके, परमात्मा का वैभव प्रकट हो सके। फव्वारा है हमार शरीर-हमारा मन-हमारी देह, हमारे प्राण हमारे कर्म एवं विचार। अद्भुत ईश्वरीय संरचना है मानवी देह। भगवत् चेतना में आरूढ़ होकर यदि हम इस देह से कर्म करेंगे, तो वह स्वधर्म आचरण-कर्तव्यपालन कहा जाएगा। अपने कर्तव्यपालन कहा जाएगा। अपने कर्तव्य के परिपालन से बड़ा कोई तप नहीं है।

इस परिप्रेक्ष्य में महाभारत की एक कथा बड़ी प्रासंगिक है। एक जाजल्य मुनि थे, जिनके तप की महिमा का गान गाया जाता था। उनने अपनी तपस्या से अद्भुत सिद्धियाँ प्राप्त की थीं। धोती वे हवा में फेंक देते थे एवं वह सुख जाती थी। कोई तार या रस्सी बँधनों की जरूरत नहीं पड़ती थी। एक दिन उनने देखा कि किसी कौवे ने उस पर बीट कर दी। उनने क्रोध से उसे देखा एवं वह जलकर भस्म हो गया। उन्हें अपनी तपश्चर्या-जन्य उपलब्धियों पर बड़ा ही नाज था। इसी घटना के तुरंत बाद एक आकाशवाणी हुई कि हे जाजल्य! ज्ञान व तप जानना चाहता है, तो अहंकार मत कर, सुलभा से मिलना चाहते हैं। सुलभा ने कहा कि वह थोड़ी देर में आएँगी- अभी बच्चों को खिला रही हैं, थोड़ी देर प्रतीक्षा करें। उन्हें गुस्सा आ गया। बोले- तू जानती है कौन आए है। रास्ते भर लोग हमें प्रणाम करते आए है। तू हमें पहचान की भी उपेक्षा कर रही है। अंदर से सुलभा बोल- न हम धोती हैं, जो आपके इशारे पर सूख जाएँ, न ही हम कौए है, जिसे जलाकर प्रणाम करते आए होंगे, पर हम जानते हैं कि आप क्या है? मुनिवर आश्चर्यपूर्वक सोचने लगे कि इसे अतींद्रिय ज्ञान कैसे मिला? यह कैसे हमारे बारे में इतना जानती है। सुलभा बोली-मुनिश्रेष्ठ आश्चर्य न करें, यह देह से स्वधर्म के आचरण का तप ही है, जिसने हमें यह सिद्धि दी है। यदि और जानना हो तो तुलाधार वैश्य के पास जाएँ।

तुलाधार वैश्य ग्राहकों को निपटा रहा था। मुनिवर बोल- हमें सुलभा ने भेजा है। हमारी बात पहले सुनो। तुलाधार बोले-पहले हम ग्राहकों को निपटायेंगे, फिर आपकी बात सुनेंगे। तुरंत उन्हें क्रोध आ गया। तुलाधार तुरंत बोले कि हम कौए हैं, न धोती है, क्रोध मत करिए धैर्य रखिए। आश्चर्यचकित जाजल्य मुनि सोचने लगे कि इन्हें यह सिद्धि कैसे मिली। वे बोले- हम मुनाफाखोर नहीं हैं, ईमानदारी से तौलते हैं- अपने धर्म पर सही-सही आचरण करते हैं। यही हमारा तप है। आगे जाजल्य मुनि को ऐसे कई अनुभव हुए, जिनने उन्हें यह समझाया कि अपने कर्तव्य का -धर्म का परिपालन ही सबसे बड़ा तप है। उन्हें अपने तप व उसकी सिद्धि पर इस तरह गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये क्षणिक होती हैं व क्रोध के आने के बाद समाप्त हो जाती हैं। जनक आदि ज्ञानी भी इसी देह के स्वधर्म आचरण से योगी-विदेह बन गए, यह तत्त्वज्ञान भी इसी माध्यम से जाजल्य मुनि को मिला।

यहाँ भगवान भी बार-बार यही तथ्य अपने शिष्य अर्जुन की समझा रहे हैं व कह रहे हैं कि यह युद्ध जिसे लड़ने तू खड़ा हुआ है, अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप में भाग्यवानों को ही मिल पाता है एवं यदि वह इस कर्तव्य का पालन- अपनी देह से स्वधर्म का आचरण नहीं करेगा-इस धर्मयुक्त युद्ध में नहीं लड़ेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। सब लोग बहुत समय तक उसकी अपकीर्ति का कथन करेंगे और माननीय पुरुषों के लिए तो अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है। (32, 33 व 34 वाँ श्लोक)

परमपूज्य गुरुदेव भी युग-संधिकाल के लिए हमें तप बता गए। संधिकाल के लिए हमें तप बता गए। महापुरश्चरण में भागीदारी, लोकहित में ही अपना हित समाहित है, यह मानते हुए है? ज्ञानयज्ञ में लगे रहना, यही सबसे बड़ा तप पूज्यवर ने बताया। लोगों को सद्बुद्धि की शरण में लाना-उज्ज्वल भविष्य का मार्ग दिखना- यही सबसे बड़ा आज का कर्तव्य है, यह पूज्यवर ने बताकर गायत्री परिवार को दिशा दी। इस तप-साधना में सुख भी छोड़ने पड़ सकते हैं, कठिनाइयाँ भी सहन करनी पड़ती है, परंतु सेवासाधना रूपी इस तप की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बहुत बड़ी भूमिका है, यह हमारी गुरुसत्ता हमें बारबार समझाकर चली गई। उनने कहा कि इस तप-साधना से विरत होना तमोगुणी बनने की तरह है- महाभारत से दूर भागने की तरह है। स्वधर्म से आचरण-लोकसेवा में अपनी विभूतियों का सुनियोजन, युगधर्म का परिपालन- इसी प्रसंग पर द्वितीय अध्याय पर और आगे की विवेचना अगले अंक में।


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