मातृ सत्ता की पुण्य तिथि पर विशेष-1 - वंदनीय माताजी द्वारा वर्णित अपने आराध्य की जीवन गीता

September 1995

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तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मशापहम्। श्रवणमगंलम् श्रीमदातं भुवि गृणन्ति ते भूरिदः जनाः।

परम पूज्य गुरुदेव की चर्चा करते करते वंदनीय माता जी श्रीमद्भागवत के इस श्लोक को भाव भरे स्वरों में अक्सर दुहराने लगती थी। पू. गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद उनका समूचा जीवन अपने आराध्य का कथामृत बन गया था। रोजमर्रा के जीवनक्रम में निजी जीवन के अनेकों घटना प्रसंगों के माध्यम से गुरुदेव के भाव विचारों उद्देश्यों को समझाया बताया करती। एक दिन शिष्यों बालकों को समझाती हुये कहने लगी बेटा! गीता की सही व्याख्या जानते हो कहाँ मिल सकती है? सुनने वाले कुतूहल और जिज्ञासा से उनकी ओर देख रहे थे। उनमें से कई ऐसे भी थे, जिन्होंने गीता की अनेकों टीकायें अनगिनत भाष्य समालोचनाएँ पढ़ी थी पर सही गलत का निर्णय नहीं हो सका। जब जिसको पढ़ा वही सही लगने लगा।

अद्भुत तर्क और अलौकिक व्याख्याएँ माता जी आज इनमें से सही व्याख्या बताने वाली है। सुनने वालों का ऊहापोह अधिक देर तक नहीं चला। उनके मुख से समाधान के स्वर निकले बोली गीता की सही व्याख्या सिर्फ कृष्ण के जीवन में मिल सकती है। जेल की काल कोठरी में पैदा होने वाली कृष्ण का जीवन हर पल आपदाओं विपदाओं से घिरा रहा। अधासुर बकासुर पूतना के ढेरों आघातों को सहते हुये भी उनकी प्रसन्नता यथावत रहीं किसी ने कभी उन्हें निराश हताश नहीं पाया। जिनके इशारे मात्र से युधिष्ठिर चक्रवर्ती सम्राट बन गये, वह स्वयं राजसूय यज्ञ में झूठी पत्तलें उठाने का अतिथियों के पैर धोने का काम प्रसन्नता पूर्वक करते रहें। कुबड़ी कुरूप स्त्री कुब्जा गँवार गोप गोपी उनके प्रेम से तृप्त हो गये। जहाँ कहीं पीड़ा देखी पतन देखा अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये उतावले हो उठे। सब कुछ करके भी सर्वथा निस्पृह पूरी तरह स्थित प्रज्ञ।

कहते कहते माताजी की बातों का रुख बदला कहने लगी। गुरुदेव के चिन्तन दर्शन का सही मर्म उनके जीवन में छिपा हुआ है उन्होंने जो कहा उसे पूरी तरह किया। बेटा! वह सिर्फ लेखक या कवि नहीं थे। वह ऋषि लेखक या कवि नहीं थे। वह ऋषि थे क्रान्तिदर्शी ऋषि। साहित्यकार और ऋषि में बड़ा फर्क होता है इसका स्मरण रखना। तुमने कभी देखा किसी की कविता पढ़कर मन डावाँडोल हो जाता है। डोल डोल उठता है। लेकिन उस कवि से मिलने जाओ तो बड़ी बेचैनी होती है। वह कोई साधारण आदमी से भी गया बीता आदमी मालूम होता है। तुम चकित होते हो, कैसे इस अभागे को ऐसी कविता का दान मिला। ऐसा अक्सर हो जाता है। क्योंकि कवि जो कहा रहा है उसकी झलकें भर आती है उसे कभी कभी छलाँग लगती है आकाश में फिर जमीन पर आ जाता है।

यही तो कवि और ऋषि का फर्क है। कवि छलाँग लगाता है, एक क्षण आकाश में उठ जाता है, फिर जमीन का गुरुत्वाकर्षण खींच लेता है फिर जमीन पर गिर जाता है। ज्यादा उचके कूदे खाई खड्ड में गिर जाते हैं समतल जमीन तक खो जाती है। तो निरा साहित्यकार अक्सर ऐसी दशा में होता है लंगड़ा लूला हाथ पाँव तोड़े अपंग। उसकी कविताओं में तो हो सकता है परमात्मा की बात हो और मुँह सूँघो तो शराब की बास आये। उसके गीत तो ऐसे हो सकते हैं कि उपनिषदों को माम करे। और उसका जीवन ऐसा फीका हो सकता है जहाँ कभी कोई फूल खिले इसका भरोसा ही न आये।

ऋषि और कवि में यही अन्तर है। ऋषि जो कहता है वही उसका जीवन है। सच तो यह है कवि का जो जीवन नहीं है उससे ज्यादा वह कह देता है। और ऋषि का जो जीवन है उससे वह हमेशा कम कह पाता है उतना नहीं कह पाता है क्योंकि शब्द में उतना अंटता नहीं है। उसके पास बहुत शब्द छोटे पड़ जाते है। कवि तो अक्सर अपने जीवन से ज्यादा कह देता है और ऋषि अपने जीवन से बहुत कम कह पाता है। उसका जीवन तो सागर है जो कह पाता वह बूँद ही रह जाती है।

गुरुजी ऋषि थे और में तो कहूँगी कि ऋषि से कुछ और अधिक थे। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने बड़े बड़े से जीवन में उन्होंने बड़े बड़े प्रयोग किये। इनमें जो निष्कर्ष निकला उसे सरल सीधी भाषा में कह डाला। उनके जीवन के विविध घटना प्रसंगों का चिन्तन मनन करने से लोगों को पता चलेगा कि बाहर से सामान्य जीवन क्रम को स्वीकार करते हुये असामान्य असाधारण कैसे बना सकता है गीता कृष्ण इसीलिये तो दसवें अध्याय में कह गए हैं कि - तेशां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकं। ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥ यानि कि जो मेरे जीवन को बारीकी से जानते हैं, उन्हें मैं बुद्धि योग हूँ। अर्थात् उनकी बुद्धि निष्कल्मष हो जाती है। यही बात योगदर्शन लिखने वाले महर्षि पतंजलि ने कही है कि - वीतराग विषयं वा चित्तं।।9/37॥ अर्थात् ऐसे वीतराग भाषियों के जीवन का हृदय से चिन्तन करने पर व्यक्ति का अन्तःकरण प्रकाशित होता है।

उनके जीवन की चर्चा का मतलब व्यक्ति पूजा नहीं है। वह तो व्यक्ति और व्यक्तित्व के संकरे दायरे से अपने जीवन काल में ही बहुत ऊपर उठ गए थे। मैं तो जब उनके जीवन की चर्चा करती हूँ तो मेरा मतलब एक जीती-जागती प्रयोगशाला में किए गए छोटे-बड़े प्रयोगों से होता है-जिसे दुहरा कर कोई इंसान धन्य हो सकता है। मुझे उनके नजदीक रहने का अवसर मिला। उन्हें देखा-पाया-उनमें जी सकी-यह मेरा सौभाग्य। यह सौभाग्य पत्नी होने के कारण मिला, ऐसी बात नहीं। मैं। उनकी पत्नी के रूप में कम-शिष्या बनकर अधिक रही हूँ। तुम लोग भी उनके शिष्य हो, उनके बच्चे हो, चाहो तो वह सब कुछ सकते हो-पा सकते हो-जो मैंने पाया।

अब अध्यात्म के बारे में ही लो। कितनी भ्रामक मान्यताओं-भ्रम जंजालों में छिपी पड़ी थी यह विद्या। लोगों ने इसे विज्ञान कम इन्द्रजाल का खिलौना ज्यादा समझ रखा था। यह भी मान्यता जनमानस में घर कर गयी थी-कि आध्यात्मिक होने के लिए तो घर परिवार छोड़ना ही पड़ता है। यह स्थिति उन्हें सदा अखरी और उन्होंने अध्यात्म प्रेमियों को यही समझाया कि आज घर को ही तपोवन बनाने की आवश्यकता है। और यदि वह ठीक ढंग से किया जा सके तो आत्म कल्याण के सारे प्रयोजन घर में ही पूरे हो सकते है। अपने इस कथन को उन्होंने चरितार्थ करके भी दिखाया और एक ऐसे सद्गृहस्थ का स्वरूप प्रस्तुत किया जिस पर हजार गृह त्यागियों का निछावर किया जा सकता है। उन्होंने अपने महान जीवन की सुगन्धि से अपने छोटे परिवार को इस प्रकार सुगन्धित किया कि देखने वालों के मुख से यही निकलता रहा - धन्यो गृहस्थाश्रमः।” ऐसा गृहस्थ सचमुच ही धन्य है जिसमें महानता के समस्त आधार ओत-प्रोत हो रहे हैं। अपने जितने अपने उतने ही उन दूसरों के जिनके पास बालकों के समुचित विकास की व्यवस्था न थी। अपने और पराए का अन्तर मिटाने के लिए उन्होंने सदा बाहर के बच्चों को अपने परिवार में सम्मिलित किए रहने की आवश्यकता समझी और इस बत का पूरा-पूरा ध्यान रखा कि अपने और पराये के बीच स्नेह से लेकर लालन-पालन तक में किसी प्रकार का भेद-भाव तो उत्पन्न नहीं हो रहा है। व्यस्त कार्यक्रम से छँट कर जब भी वे अवसर पाते बालकों के साथ खेलने-खिलाने में, हँसने-हँसाने में ऐसे तन्मय हो जाते मानों वे मात्र बालक ही हों। बड़ी आयु में बचपन का आनन्द लेने के इन क्षणों को वे सर्वोत्तम मनोरंजन साधन होते हुए भी बालकों को छोड़ जाने कहाँ क्लबों, शराब घरों की गन्दी दुर्गन्ध सूँघने चले जाते हैं।

गृह व्यवस्था के छोटे-मोटे कार्यों को अक्सर वे स्वयं करने लगते और बालकों समेत हम सबको साथ लगा लेते और बताते कि छोटे दिखने वाले कार्यों को भी यदि मनोयोग कुशलता पूर्वक किया जाय तो वे कितने सुन्दर बन जाते है। तथा कर्ता की योग्यता का कैसा विकास होता है। झाड़ू लगाने से कपड़े धोने तक और भोजन बनाने से लेकर बर्तन माँजने, टूटी-फूटी चीजों की मरम्मत करने तक के कामों को सुन्दरता पूर्वक कैसे किया जा सकता है-बताने समझाने के लिए वे हम सब को साथ लेकर-जब भी सुविधा होती जुट जाते। मैं अक्सर झगड़ती और कहती-आप इन छोटी बातों के लिए अपना मूल्यवान समय क्यों बिगाड़ते हैं। मुझे शर्म लगती है कोई बाहर का देखेगा तो यही कहेगा कि इनकी गृहिणी आलसी या बेशऊर है अन्यथा घर गृहस्थी के काम ये स्वयं क्यों करते?

वे हँस पड़ते-इसमें हर्ज ही क्या है जो देखेगा सो सीखेगा कि मर्दों को गृहस्थी चलाना आना चाहिए। इससे मर्दों की पराधीनता दूर होगी और स्त्रियों को लगेगा कि वे ही छोटे-छोटे काम करने के लिए बाधित नहीं। इसी प्रकार हँसी-मजाक चलती रहती। और हम सब मिलकर घर का काम निपटाते, तो न केवल व्यवस्था सम्बन्धी अनेक जानकारियों का प्रशिक्षण मिलता वरन् आनन्द भी खूब आता सुन्दर, सुसज्जित और सुव्यवस्थित रहे तो छोटे से किराये के घर भी बढ़िया होटलों से भी अधिक सुव्यवस्थित रहे तो छोटे से किराये के घर भी बढ़िया होटलों से भी अधिक सुविधाजनक रह सकते है। इस शिक्षा को अपने परिवार के प्रत्येक व्यक्ति ने पाया है। घर की पाठशाला में जीवन व्यवस्था के अनेक गुण जिन बालकों ने सीखे हैं आशा की जानी चाहिए वे भी अपनी गृहस्थी ऐसे ही आनन्दमय बनाकर शान्ति से जिएँगे और साथियों को सन्तोषपूर्वक जीने देंगे।

परिवार का खर्च, व्यवस्था, सुझाव के बारे में घर के हर सदस्य का परामर्श लिया जाता और आवश्यकता तथा कठिनाइयों को हर एक से पूछा जाता। जितना निराकरण सम्भव था किया जाता जो बात आर्थिक सीमा मर्यादा के कारण सम्भव न थी उसे वस्तुस्थिति समझा दी जाती। यही कारण था स्वल्प साधनों में निर्वाह करने पर हममें से कभी किसी को असन्तोष नहीं हुआ,


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