हृदय-परिवर्तन

October 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

“तुम हम लोगों के साथ रहो तो हम तुम्हारे लिए सब व्यवस्था कर देंगे।” आगन्तुक के स्वर एवं उसके एक तार की लय पर वह आकर्षित हुआ था या आगन्तुक के सुगठित शरीर ने उसे प्रभावित किया था यह कहना कठिन है। किंतु इतना निश्चित कहा जा सकता है कि यह दया का भाव नहीं था। उसके कठोर हृदय ने कभी किसी कोमल भाव को स्थान ही नहीं दिया। वह जब भी कहीं पिघलता है, अपने स्वार्थ के कारण।

“अब तो भाग्य ने ही मुझे आप लोगों के पास पहुँचा दिया है। भटकते-भटकते मैं थक गया हूँ।” कहने की बात भी नहीं थी, आगन्तुक का शरीर ही इस बात का प्रमाण था। पैर का चर्म क्षत-विक्षत हो गया है, शरीर सूखकर कंकाल सा हो गया है। कितना भी दृढ़ शरीर हो, कोई कहाँ तक सबल रह सकता है। लगभग एक महीने से उसके पेट में जल के अतिरिक्त कुछ नहीं गया। आज यहाँ पहुँचते-पहुँचते वह गिरकर मूर्छित ही हो गया। अब उसे आश्रय देने वाले ये लोग कोई भी हों कैसे भी हों इन्हीं लोगों ने उसे जीवन दिया है। दूध की कुछ घूंट कंठ के नीचे उतर जाने पर ही वह बोलने योग्य हुआ है।

“अच्छी बात है, लेकिन यह स्मरण रखना कि भागने का प्रयत्न किया अथवा हमारे विषय में किसी से बाहर कुछ कानाफूसी की तो मैं क्षमा नहीं जानता। मेरे क्रोध की यंत्रणा तुम्हारे लिये किसी भी नरक से अधिक भयंकर निकलेगी।” दस्युओं के दलपति से और कोई क्या आशा कर सकता है। एक मृतप्राय प्राणी को शरण देते समय भी इतनी सूचना देना वहाँ सामान्य आवश्यक कार्य समझा ही जाता था।

“मैं अब भागकर कहाँ जाऊँगा? मेरा संसार में है ही कौन? जिन्होंने मुझे मृत्यु के मुख में पड़े को जीवित किया है, उनके साथ विश्वासघात करने की बात भी सोचने से तो मर ही जाना अच्छा है।” आगन्तुक के नेत्र सजल हो गए। देश में अकाल है। घर पर उसके रहते उसके देखते-देखते भूख की ज्वाला में उसका बच्चा और पत्नी स्वाहा हो गये। जब पत्ते, वृक्षों की छाल तथा तिनकों के लिए भी लोग परस्पर मारपीट तक करने लगे, एक झोंपड़ी और कुछ भूमि का मोह क्या अर्थ रखता है। फिर किसके लिए अब वह उस स्थान में आसक्त बनता। जिधर पैर बढ़े चल पड़ा। सोचा था वन में या तो वन पशु उसे आहार बनाकर विपत्ति से छुड़ा देंगे या कुछ पत्ते ही मिल जायेंगे पेट के गड्ढे को पाटने के लिए। दुर्भाग्य आगे-आगे चलता है। वन में आजकल पत्तों का नाम नहीं। वृक्षों के कंकाल खड़े हैं। पता नहीं दावाग्नि ने यह दशा की या दुर्दैव ने। वह भटकता बढ़ता आया। हरियाली देखकर उसे कितना हर्ष हुआ था, उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता लेकिन जब वह हरे-भरे वृक्षों के समीप पहुँचा-मूर्छित होकर गिर पड़ा।

“अभी तुम विश्राम करो! आज तुम्हें केवल दूध पर रहना चाहिए। कल अन्न मिलेगा। एक सप्ताह में स्वस्थ हो जाओगे।” दस्यु प्रमुख ने एक साथी को ओर संकेत किया। सघन वृक्षों की छाया में पत्तों पर एक दरी मिल गयी बिछाने को। लंबे समय से भूखे व्यक्ति को सहसा कोई आहार मिलेगा तो उस पर भूखे बाघ की भाँति टूट पड़ेगा वह। लेकिन उसकी सूखी आंतें फट जाएँगी और यह उसका अंतिम भोजन होगा इस बात से दस्यु असावधान नहीं थे। आगन्तुक के पास न जल रखा गया, न दूध। उसे कुछ देर के अंतर से जल तथा दूध मिलते रहने की व्यवस्था कर दी उन्होंने।

“भगवान कितने दयामय हैं।” शीतल जल, सद्यः शक्तिदायक दूध शरीर में पहुँचा। महीनों से जिसे पत्ते तक दुर्लभ रहे हों, उसे कितनी शाँति मिली होगी। वह दरी पर नेत्र बंद करके पड़ा था।” प्रभु ने पता नहीं क्यों इस अधम को जीवित रहने दिया।” इस समय अपने आश्रय दाताओं के संबंध में सोचने योग्य मनःस्थिति उसकी नहीं थी। कब वह सो गया, यह कैसे पता लगता उसे।

उसे कई दिनों तक तीव्र ज्वर आवा यहाँ। उसका उपचार हुआ। अब वह स्वस्थ हो गया है। सामान्यतया घूम-फिर सकता है। उसके ये भीमकाय, उग्र आकृति, कठोर मुख, बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूछों वाले आश्रय दाता सज्जन पुरुष नहीं हैं यह अब समझ गया है वह। लेकिन इन लोगों ने उससे परिचय तक नहीं पूछा यह आश्चर्य की बात है। आज जब वह दल प्रमुख के पास गया परस्पर परिचय करने तो प्रमुख ने रुक्षता से उसे बताया-”हमारे यहाँ जाति आदि का कोई महत्व नहीं। तुम्हारे अब कोई संसार में नहीं है, इससे तुम और अधिक उपयोगी हो हमारे लिए। तुम्हें अब काम करना चाहिए। तुम्हारे काम का पूरा भाग मिलेगा तुम्हें और उसे तुम चाहे जैसे व्यय कर सकते हो। केवल इतनी सावधानी रखनी चाहिए कि यहाँ किसी को कभी न लाना। यहाँ का पता मत देना और यदि आगे चलकर कुछ पीने लगो तो कभी ऐसी अवस्था में इधर आने का साहस मत करना, जब तुम्हारी असावधानी में कोई तुम्हारा पीछा कर सके।”

“मुझे तो केवल भर पेट सात्विक भोजन चाहिए।” बड़ी अद्भुत लगी उसे वे सूचनाएँ। “मैं यथाशक्ति आप लोगों की सेवा करूंगा। थोड़ी देर मुझे नित्य अपने प्रभु के स्मरण में लगता है, जब शरीर स्मरण के योग्य होता है। मुझे किसी मादक वस्तु का अभ्यास नहीं और न धन का मुझे का कोई लोभ है।” बड़ी सरलता से उसने अपनी भावना व्यक्त कर दी।

“अभी तुम बहुत सीधे हो।” दल प्रमुख खुलकर हँस पड़ा “अच्छी बात है, काम में लगो। आगे की बात आगे देखी जाएगी तुम अपना एकतारा दोपहरी में बजा लिया करो, बस इतना ही अभी पर्याप्त है। सबेरे शाम को या रात्रि में इधर कोई भूला भटका आवे तो एकतारे की झंकार उसे आकर्षित करेगी।”

उसे कोई आपत्ति नहीं हुई इस आदेश को मानने में। अवश्य ही उसका हृदय आशंकाओं से पूर्ण हो गया। यहाँ आ फँसने की अपेक्षा तो मृत्यु बहुत अच्छी थी। लेकिन अब तो प्रारब्ध ने ही ला पटका है उसे इन दस्युओं के मध्य में।

जीवन क्षण-पल दिवस बन कर गुजरता रहा। “तुम अब तक क्या कर रहे थे? क्या ले आए तुम अपने साथ?” दल प्रमुख ने एक यात्रा से लौटकर पर्याप्त समय प्रतीक्षा की थी। सब साथी निश्चित स्थान पर आ गए। नवीन व्यक्ति के न पहुँचने से उनका चिन्तित होना स्वाभाविक था। प्रमुख का रोच तब और भी बढ़ गया जब उसने नवीन साथी को खाली हाथ आते देखा।

“मुझे पूरी आशा है कि मेरी बात सुनकर आप मुझे क्षमा कर देंगे।” नवीन व्यक्ति ने बड़ी नम्रता से प्रार्थना की।” मैंने उस स्थान पर जहाँ स्थित रहने को आपने मुझे आज्ञा दी थी, खड़े-खड़े ही एक बहुत कातर ध्वनि सुनी। इतनी करुण थी कि उसे सुनकर वहाँ न जाना तो निष्ठुरता होती। किसी क्रूर ने एक अच्छे सुन्दर युवक को आहत कर दिया था। मेरे पहुँचने तक वह युवक मूर्छित हो चुका था। मैं उसके सामान्य उपचार में लग गया। उसे एक सुरक्षित स्थान पर रख आया हूँ। अब भी वह चेतना में नहीं आया है। आघात बहुत.......।”

“बको मत।” दस्यु प्रमुख चिल्ला पड़ा। इस प्रकार की बातें सुनना उसकी शक्ति से बाहर था। “हम लोग वहाँ दया दिखाने नहीं गए थे। वहाँ गए थे धन लेने और जो भी हमारे मार्ग में बाधा दे, उसे ठिकाने लगा देना हमारा कर्तव्य था।”

“दूसरे का धन उसकी इच्छा के बिना हरण करना और निरपराध को मारना........।” वह सीधा, सरल व्यक्ति अपनी बात अपने ही ढंग से कह रहा था।

“पाप है-यही तो तुम कहना चाहते हो?” दस्यु ने नेत्रों में विष एकत्र करके व्यंग किया-”पाप और पुण्य नगरों में रहने वाले के समीप रहते हैं। यहाँ यह ढकोसला नहीं चल सकता। यहाँ एक ही पुण्य है धन एकत्र करना।”

“अभी वह बेचारा मूर्छित पड़ा है। आप मुझे आज्ञा दें कि उसकी कुछ ठीक व्यवस्था कर आऊँ।” यह अवसर इस योग्य नहीं था कि दस्यु से विवाद करने में समय नष्ट किया जाय। विवाद करने से कोई लाभ हो, इसकी आशा भी नहीं थी। कर्तव्य की पुकार थी सेवा के स्थान पर शीघ्र पहुँचने की।

“अब उसके जीने या मरने से हमारा कोई हानि-लाभ नहीं।” दस्यु प्रमुख पता नहीं क्यों इस अत्यंत विनम्र व्यक्ति की उपेक्षा नहीं कर पाता। इस सीधे व्यक्ति के साथ कठोर होना उसे भी कठिन जान पड़ता है। उसने अनुमति दे दी-”यदि तुम्हें यह मूर्खता करनी ही है तो जा सकते हो। लेकिन उसे न तुम यहाँ ला सकते हो और न अपना, हम लोगों का तथा हमारे आवास का कोई परिचय ही दे सकते हो।”

“मैं आज्ञा का पालन करूंगा।” वह शीघ्रतापूर्वक चला गया। दस्युओं ने एक दूसरे की ओर देखा किसी भाव से लेकिन आशंका का कोई कारण नहीं था।

लेकिन उसकी यह हरकत उनमें से किसी को बर्दाश्त नहीं हुई वह किसी यात्रा में हमारा साथ नहीं देता। आज दस्यु दल एकाँत जंगल में एकत्र हुआ था। दस्यु प्रमुख ने इस बार जिस नवीन व्यक्ति को शरण दी है उसे लेकर दल में एक झमेला खड़ा हो गया।

“हम सब जानते हैं कि हमारी यात्रा में उस ले जाना केवल व्यर्थ ही नहीं आशंकाजनक भी है।” प्रमुख की बात में दो मत नहीं हो सकते। जो दूसरे का धन उसकी अनुमति के बिना लेने को किसी प्रकार प्रस्तुत नहीं, जो असावधान लोगों पर आक्रमण को अन्याय मानता है, जो प्रत्येक आहत की सेवा के लिए अपने प्राण भी संकट में डालने को उद्यत रहता है, वह भला दस्युओं की यात्रा जो ठीक अर्थ में डकैती है, उसमें साथ जाकर उनकी कठिनाई बढ़ावे और आशंका का कारण हो, इससे अधिक और क्या हो सकता है?

“हम अपने प्राण संकट में डालकर उपार्जन करें और वह बैठा-बैठा एकतारा बजाया करे।” एक दस्यु ने अपनी ईर्ष्या व्यक्त की।

“दल के नियमानुसार कोई कभी भी किसी यात्रा में जाना अस्वीकार कर सकता है, हम सब इस विषय में स्वतंत्र है।” प्रमुख ने स्थिर कण्ठ से कहा-यात्रा से प्राप्त धन का भाग साथ न जाने वाले को नहीं मिलता। उनने कोई भाग लेना अस्वीकार कर ही दिया है। अपने साथ हमारे लिए भी वह फल एकत्र करता है। थोड़ा सा अन्न लगता है उस पर और आज से वह मेरे निजी भाग में से ले लेगा।

“वह दो रोटी के टुकड़े खा लेता है, इसलिए हम कोई विवाद उठावें इतना ओछा हममें से कोई नहीं है।” दस्युओं में से एक तरुण बोला-”विवाद तो यह है कि ऐसा व्यक्ति दल में क्यों रहे जिसे यात्रा में कभी भी साथ नहीं देना है।”

“उसे कह देने पर वह अभी चला जाएगा और इतना सच्चा है कि हमें उससे तब भी कोई आशंका नहीं हो सकती।” प्रमुख ने इस बार अपने हृदय की बात स्पष्ट कर दी-”लेकिन हमें संयोगवश एक ऐसा व्यक्ति मिला है, जो हमारे साथ रहकर भी हमारे सारे दुर्गुणों से अछूता रहता है। यही नहीं हममें प्रत्येक की सेवा सुश्रूषा भी करता है। जिसे डराकर, लोभ देकर, किसी प्रकार हम अपने किसी कुकार्य में साथी नहीं पाते। हमने धर्मात्माओं एवं सज्जनों की बातें बहुत सुनी हैं पर हमें पहली बार ऐसा मनुष्य मिला है जो संत है या नहीं वह भले न कहा जा सके पर यह निश्चित है कि वह सज्जन है। क्या इस अकाल के समय उसे भूखों मरने के लिए फिर निकाल दें?”

कोई कुछ बोलने का साहस न कर सका। प्रबलतर अधर्म भी सच्चाई से भरे धर्म का तिरस्कार न कर सका। उलटे उस आगन्तुक की सज्जनता ने ऐसा चमत्कार दिखाया कि धीरे-धीरे डकैतों का पूरा गिरोह स्वतंत्रता आँदोलन के सैनिकों में बदल गया। उपदेश नहीं अपने आचरण से यह चमत्कार करने वाले परम संत श्री रविशंकर महाराज।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118