बहिरंग का सौंदर्य आकर्षक है, सम्मोहक है तथा प्रत्यक्ष दिखाई देता है। अंतरंग का सौंदर्य दिखाई नहीं देता किंतु व्यक्ति की मुखाकृति से लेकर उसके शालीन व्यवहार तथा समष्टिगत संवेदना में सतत् मुखरित होता रहता है। जिस सौंदर्य एवं आत्म तेज की शक्ति का भंडार भीतर भरा पड़ा है उसे देखा भले ही न जा सके किंतु उसी के बलबूते किसी की व्यक्तिगत सज्जा बनती है। बाहरी साधनों से तो मात्र कायपिण्ड की सुव्यवस्था व सुसज्जा ही संभव हो पाती है।
किसी भी व्यक्ति में जीवन चेतना को कोई बाहर से प्रविष्ट नहीं करा सकता, थोप नहीं सकता। वह तो आँतरिक क्षमता पर ही निर्भर रहती है और जब यह जीवनी शक्ति खोखली हो जाती है, चुक जाती है तो किसी भी प्रकार का बाह्योपचार रोग की जीर्णता व मृत्यु की अपरिहार्यता को रोक सकने में सफल नहीं हो सकता। अध्यापक पढ़ा सकता है, पर वह मानसिक स्तर नहीं दे सकता जो छात्र को मौलिक रूप में निज के भीतर विकसित करना पड़ता है। बहिरंग की उपयोगिता मात्र इतनी ही है कि वह अंतः से उपजी प्रतिभा को निखार सके।
बीज की उत्पादन क्षमता मौलिक है। किसान उसे उगाने-बढ़ाने में अपने क्रम-साधन-कौशल का अधिकतम उपयोग कर सकता है, पर गेहूँ के दाने से कपास उगा पाना उसके लिए कहाँ संभव हो पाता है। वर्षा के बादल कठोर चट्टानों को न तो गीला कर पाते हैं और न उन पर हरियाली उगा पाने में समर्थ हो पाते हैं।
मनुष्य को यह भलीभाँति समझना होगा कि सौंदर्य और शक्ति-संपदा के अजस्र भंडार अपने ही भीतर भरे पड़े हैं। उन्हें पहचानना, ढूँढ़ा और समेटा जा सके तो कोई भी व्यक्ति अपनी दरिद्रता और कुरूपता से पीछा छुड़ा सकता है, पिछड़ेपन को त्याग कर अग्रगामी बन सकता है। बाहरी साधनों और अनुकूलता के उत्पादन हेतु जितना प्रयास व्यक्ति द्वारा किया जाता है, उससे कहीं कम में अंतः को कुरेद व विकसित कर मनुष्य असीम विभूतियों का अधिपति बन सकता है। शर्त एक ही है कि वह अंतः को खोजे और उसे परिष्कृत करने की तत्परता बरते। हर कोई यह कर सकता है।