नारी ही लायेगी अब सतयुग

October 1994

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वर्षा जब आती है तब अनेकों अनुदान साथ लाती है। सूखे क्षेत्र पानी से भर जाते हैं। नदी और सरोवर, झरने सभी लहराते हैं। हरियाली की मखमली चादर सब जगह बिछ जाती है। उद्यानों और कृषि क्षेत्र में नये सिरे से नई उमंग उभरती है। न जाने कितने प्राणियों को नवजीवन उपलब्ध होता है। दुधारू पशु अपनी अपनी दुग्ध संपदा को कहीं अधिक बढ़ा देते हैं। प्रकृति की शोभा देखते ही बनती है। इन्द्रधनुष उगते हैं, मोर नाचते हैं, पपीहे कूकते हैं और भी न जाने क्या-क्या होता है, उन दिनों! धन बरसने की प्रतीक्षा सभी को रहती है। जब वर्षा आती है तो अनेक विभूतियाँ इस धरती के लिए अनुदान रूप में लाती हैं।

“इक्कीसवीं शताब्दी” नारी वर्चस्व की शताब्दी है। उसमें उपेक्षित आधी जनसंख्या को ऐसा महत्व और श्रेय मिलने जा रहा है जिसकी वह अधिकारिणी तो आदि काल से थी, उस पर वैभव का किसी दैत्य दुर्भाग्य ने अपहरण कर लिया था। अब वह उस नये सिरे से, नये रूप में प्राप्त होने जा रहा है। उस शक्ति, समर्थता और साहसिकता के वे बल-वैभव फिर से प्राप्त होने जा रहे हैं जिसके बल पर वह अपनी सत्ता की महत्ता भली प्रकार प्रकट और प्रामाणित कर सके।

इस उदीयमान उषा का सुनहरा आलोक इस रूप में दृष्टिगोचर होगा मानो वह कायाकल्प स्तर का नया कलेवर लेकर स्वर्ग से धरती पर उतरी हो। उसके क्रिया-कलापों में वे सृजनात्मक तत्व ऊँचे स्तर पर उभरेंगे जो अब तक प्रायः अपना कार्यक्षेत्र घर परिवार तक ही सीमित रखे रहते थे। अब वह समाज और संसार के हर क्षेत्र को अपने तेजस् और वर्चस् से प्रभावित करेंगी।

राजनीति में उसे उत्साहवर्धक प्रवेश और अप्रत्याशित सफलता मिलने के आसार बन रहे हैं। इसकी चर्चा और विवेचना भारत में ही नहीं विश्व के कोने-कोने में इन दिनों विशेष रूप से चल पड़ी है। भारत में इस संदर्भ में कुछ ठोस काम होने जा रहा है। ताकि पूर्व से उदय होने वाला सूर्य अपने आलोक से दिग्दिगंत को आलोकित करने की परंपरा का निर्वाह कर सके।

नारी वह गंगा है, जिसके अनुदानों से धरती से लेकर स्वर्ग तक के निवासी कृतकृत्य होते हैं। पर दुर्योग कभी-कभी ऐसा कुछ कर गुजरता है जिसमें हीरा भी काँच के टुकड़ों के साथ कचरे में फेंका, धकेला जाता है। पिछले अंधकार युग में उसकी सत्ता का प्रयोग कामिनी, क्रीत-दासी, भोग्या के रूप में अधिकारियों के स्वार्थ प्रयोजन के निमित्त होता रहा अब वह कुछ ऐसा करने जा रही है जिससे समूची मानवता को अपने नये कलेवर के साथ विकसित, परिष्कृत होने का सुयोग मिल सके। संसार में अनेक क्षेत्र अपने-अपने प्रयोजनों में कार्यरत हैं। जिनमें शिक्षा, संस्कृति कला, संपदा, प्रतिभा आदि को प्रमुख माना जाता है। समाज-संरचना और प्रथा परंपरा के सहारे चलने वाले अनेकों क्रियाकलापों का भी प्रचलन है। इनमें नारी का योगदान पिछले दिनों अप्रत्यक्ष और नगण्य स्तर का ही रहा है। पर वह अगले दिनों कुछ से कुछ बनने जा रही है। निविड़ निशा के सघन अंधकार और प्रभात काल के स्वर्णिम अरुणोदय के बीच एक मध्यान्तर होता है जिसे ब्रह्म मुहूर्त, उषाकाल के नाम से जाना जाता है। उसमें मुर्गे बोलने, पक्षी चहचहाने, फूल खिलने, जैसे अनेक अभिनव दृश्य उभरते हैं। वर्तमान काल को इसी स्तर का समझा जा सकता है। विशेषतया महिलाओं की स्थिति में आशातीत सुधार होने के संदर्भ में।

प्रसव काल की सुनिश्चित संभावना निकट आ गई इसका पूर्वाभास प्रसूता को ही नहीं अन्य निकटवर्ती लोगों को भी शीघ्र हो जाता है। पेट में दर्द जो होने लगता है। नारी उत्कर्ष की संभावना सुनिश्चित हो गई कि अपंगों, असमर्थों, निराश ग्रस्त निर्जीव नारी समुदाय में से हर कोई इस परिवर्तन के प्रति अब प्रसन्नता व्यक्त करने लगा है। उसके साथ आने वाले नये उत्तरदायित्वों के निर्वाह की तैयारियाँ करने लगा है। वर्षा के आगमन से पूर्व चींटियाँ, मकड़ियाँ तक अपने सुरक्षात्मक प्रबंध करने लगती हैं। चूहे नई आवश्यकता के अनुसार नये बिल बनाते पक्षी नये सिरे से घोंसला मजबूत करते हैं। समुन्नत स्थिति उपलब्ध होने की प्रसन्नता में तद्नुरूप तत्परता हर प्राणवान महिला के मन में एक विचित्र उल्लास उत्पन्न कर रही हैं। वे नये ढाँचे में ढलने और नई गतिविधियाँ अपनाने के लिए मानसिकता ही विकसित नहीं कर रहीं, वरन् तद्नुरूप आवश्यक वस्तुएँ जुटाने में भी लग गई हैं। आश्चर्य की बात एक और भी है कि पुरुष इसी बात में अपनी शान और मर्दानगी समझते थे कि संबंधित नारियों के प्रति कितनी उपेक्षा दिखाई और कितनी कठोरता बरती जाय। अब उनका भी मूड बदल रहा है और अब वह समुदाय लाभ को लाभ और हानि को हानि समझ सकने की विवेकशीलता को अपनाने सँजोने में लग गया है। कुछ समय पूर्व जो लोग नारी प्रगति की बात को सुनकर इस प्रकार घबराते थे मानों उनका राजपाट ही छिनने जा रहा है। विरोध के भी सदा उद्यत रहते थे, इसे उद्दंडता कहते और गृहस्थ अनुशासन की बर्बादी मानते थे, उन्हें इसमें पूर्वजों की परंपरा टूटती दीखती थी और हर संभव विरोध करने के लिए उकसाते थे, उनने अचानक अपना मानस कैसे बदला, यह आश्चर्य होता है। नारी की निंदा या उसके वेदाध्ययन संबंधी अधिकारों पर प्रति गामी टिप्पणी करने वाले अब भर्त्सना के पात्र माने जा रहे हैं, चाहे वे कितने ही बड़े महामंडलेश्वर धर्माधिकारी ही क्यों न हों? अब समर्थक तत्व इस अभ्युदय को उचित ही नहीं हितकर और आवश्यक भी मानने लगे हैं और अपने प्रभाव क्षेत्र की महिलाओं को उत्साहित करने के साथ प्रगति प्रयोजन में भरपूर सहयोग देने के लिए तैयार हो गये हैं।

महिलाओं ने पीढ़ियों पूर्व अवगति को नियति मानकर उसके साथ समझौता कर लिया था। वे भी अब तेवर बदल रही हैं और वह कदम उठाने में गर्व-गौरव अनुभव कर रही हैं जैसा कि इससे पूर्व कभी सोचा भी नहीं गया था। दोनों पक्षों की मानसिकता में असाधारण अंतर आना इस तथ्य का पूर्वाभ्यास है कि भवितव्यता सुखद संभावना के रूप में तेजी से निकट खींचती चली आ रही है। मुर्गे की बाँग के भोर के आगमन की पूर्व सूचना देने जैसा ही यह मानसिक परिवर्तन पूर्व सूचना का प्रतीक माना जा सकता है।

पुरुष वर्ग सोचने लगा है कि सभ्य-सुयोग्य और प्रगतिशील नारी अब की अपेक्षा अगले दिनों अनेक गुनी सुखद संभावनाएँ लेकर सामने आ खड़ी होगी। घर परिवार को समुन्नत, सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत बनाने का माहौल बनेगा। आये दिन चलने वाले विग्रहों को बढ़ती समझदारी जड़ मूल से उखाड़ कर रख देगा। घर के कोने-कोने में प्रेम, सृजन और सहयोग ही बिखरा पड़ा दिखाई देने लगेगा। सद्भावना और शालीनता के विकसित होने पर सामान्य स्तर की नारी भी गृह लक्ष्मी के रूप में परिवर्तित हुई दीख पड़ेगी। इन परिस्थितियों में सबसे अधिक दाम्पत्य जीवन में सरसता और आत्मीयता की असाधारण अभिवृद्धि होने पर पति को ही लाभान्वित होने का अवसर मिलेगा स्वर्ग से उतरने वाली परियों की कथा गाथाएँ बड़ी रसीली और मोहक लगती हैं। पर वे होती काल्पनिक हैं। किंतु सुविकसित सहचरी का सान्निध्य तो सचमुच स्वर्गीय वातावरण बना देता है। सावित्री-सत्यवान की, सुकन्या-च्यवन की, नल-दमयंती की, कथाएँ जिनने पढ़ी हैं वे इसकी कल्पना करके भाव विभोर होते रहते हैं कि अगले दिनों अपने घर की नारी पुरानी काया में रहते हुए नये परिवेश में प्रकट होगी और नये आयाम प्रस्तुत करेगी। विकसित और अविकसित, समर्थ और अपंग के बीच क्या अंतर होता है उसे सहज समझदारी के आधार पर भी जाना जा सकता है।

नारी अगले दिनों आत्म परिष्कार की, समाज कल्याण-विश्व उत्थान की तैयारी के लिए सरंजाम जुटा रही होगी। वह उसकी अपेक्षा कर ही नहीं सकती कि घर परिवार के दाम्पत्य जीवन को मर्यादा के अंतर्गत किस प्रकार विकसित किया जाय। शालीनता की पक्षधर सुनयना सदा सब के लिए कल्याणकारी ही होती है। उनका सर्वप्रथम लाभ निकटवर्तियों को मिलता है। चूल्हें में आग जलाने पर निकट बैठने वाले सर्दी से बच जाते हैं, तो विकसित नारी के समीपवर्ती परिजन क्यों लाभान्वित न होंगे?

विकसित स्थिति में आजीविका के बढ़ने तथा अपव्यय के घटने के नये आधार खड़े होते हैं। फलतः ऐसे व्यक्तित्वों की छत्र छाया रहते दरिद्रता, अभावग्रस्तता, अव्यवस्था की हेय स्थिति से बच निकलना सहज संभव हो जाता है। कम आजीविका में भी परिवार को सुखी, संतुष्ट रहने और सुविकसित होने का अवसर मिल जाता है। जबकि फूहड़पन के रहते पर्याप्त आजीविका रहते हुए भी अभाव और दरिद्रता ही घेरे रहती है।

सुसंतति का निर्माण जन्मदात्री के व्यक्तित्व से ही अधिक जुड़ा रहता है। कुँती, सीता, शकुँतला, मदालसा, जैसी देवियाँ ही ऐसी प्रजा उत्पन्न करने में समर्थ हुई थीं, जिनका चरित्र, पुरुषार्थ न केवल अभिभावकों को भरपूर श्रेय प्रदान करता रहा, वरन् दूर-दूर तक अपनी उत्कृष्टता से जन जीवन के वातावरण को श्रेय समुन्नत बनाता रहा। ऐसी सुयोग्य संतानें उपलब्ध करने के लिए जननी की सुसंस्कारिता ही प्रधान भूमिका निबाहती है। ऐसे ही सद्गुणों से संपन्न नर रत्नों को समाज को देना नारी आँदोलन का प्रमुख लक्ष्य है जो विकसित होने पर समस्त नारी समुदाय को समुन्नत बना सकने में अपनी बढ़ती हुई प्रतिभा का परिचय देगा।

ऐसे-ऐसे अनेक लाभ हैं जिनकी कल्पना और आशा करने भर से हर समझदार पुरुष यही सोच सकता है कि घर की महिलाओं को अधिक सुविकसित होने, अधिक सेवा भावी बनने का अवसर देना चाहिए। बंधनों में जकड़े रहने की भूल का दुष्परिणाम नारी को अनाथ रखने और उसके द्वारा पग-पग पर अव्यवस्था उत्पन्न किये जाने के लंबे अनुभव के रूप में भली प्रकार भुगत लिया। अब नई संभावनाओं के उदय होने पर हर दृष्टि से लाभान्वित होने का अवसर जब सामने है तो बदली परिस्थितियों का श्रेष्ठतम सत्परिणाम उपलब्ध होने का अवसर भी नहीं चूका जाना चाहिए।

जिनमें देश, धर्म, समाज-संस्कृति की प्रगति-अवगति का अंतर समझ सकने की दूरदर्शिता है वे तो इस सुयोग के लिए अत्यधिक सहयोगी व विधेयात्मक रुख अपनाते हैं। वे सोचते हैं कि अपने कर्तव्यों में जो कमी रह जाती है उसकी पूर्ति यदि घर की महिलाओं से बन पड़ती है तो उससे भरपूर श्रेय संतोष पाने का प्रयत्न करना चाहिएं घर की महिलाओं को आगे करके व्यापक क्षेत्र की महिलाओं को उसी दिशा में चल पड़ने की स्थिति उत्पन्न करने में सहायक होना ही चाहिए। नासमझी तो सदा अनहित को हित के रूप में हित को अनहित के रूप में अपनाने के माध्यम से उलटी चाल अपनाती रही है। उसका अस्तित्व अभी भी पिछड़े क्षेत्रों में पाया जा सकता है। और अड़ंगे डालने का अनौचित्य जहाँ-तहाँ अपनी उपस्थिति दर्शाता रहा है। किंतु जहाँ प्रगति के लिए उत्साह है, जहाँ अभ्युदय के प्रयत्नों में समर्थन देने का विवेक जीवित है, वहाँ नारी पुनरुत्थान में स्वार्थ और परमार्थ का सुयोग ही अनुभव किया जाता और सहयोग का हाथ बढ़ता देखा जा सकेगा।

महिलाओं में से सभी को प्रतिगामिता ने डस लिया हो, सीमा बंधन के प्रचलनों के रूप में पूरी तरह स्वीकार कर लिया हो ऐसी बात नहीं है। औचित्य के प्रति उत्साह और साहस प्रकट कर सकने वाली महिला जाति का अभी भी सर्वत्र तिरोधान नहीं हुआ है। जिनमें जीवन के चिह्न मौजूद हैं वे इन दिनों अंतरिक्ष में अभ्युदय की कल्पना को सर्वथा अनुपयुक्त नहीं कर सकती। जब नन्हा सा अंकुर ऊपर उठने का क्रम अपनाकर विशाल वृक्ष बन सकता है तो क्यों यह असंभव रहेगा कि उत्कर्ष के लिए सच्चे मन से प्रयास किये जायँ और उनमें सफलता न मिले?

अंतःप्रेरणा द्वारा प्रगति की दिशा में कुछ कदम बढ़ाने की भावना भले ही किसी व्यक्तिगत संभावना द्वारा मिली हो। उसे निताँत ईश्वरीय उद्बोध ही समझा जायगा। समय की पुकार सुन सकने और युग का आह्वान स्वीकार करने वाले ही महामानवों के अग्रणी समुदाय में सम्मिलित हुए हैं। उन्हीं ने अपनी नाव में बिठाकर कुशल मल्लाह की तरह नाव खेने जैसे आत्म गौरव और श्रेय सम्मान के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।

जिनमें इस संदर्भ को भाव संवेदनाएँ उभरें, उन्हें उस ईश्वरीय वाणी को दबाना नहीं चाहिए वरन् कुछ न कुछ कर गुजरने के लिए कटिबद्ध हो ही जाना चाहिए।


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