जो था बस दो दिन का साथी, मालिक वह मेहमान बन गया। आत्मा की आवाज दबाकर-सुख जीवन का गान बन गया॥
अंतरिक्ष में उड़कर आयी, ‘आत्मा’ ने यह आश्रय देखा। पंचतत्व को एकत्रित कर, काया का यह रूप सहेजा॥ आत्म तत्व को भूल गये हम तब अपनी पहचान बन गया॥
रस की गागर भरकर रख ली, पथ में प्यास न ठगने पाये। बिखर गया वह रस कौतुक में, कभी न जी भर कर पी पाये। व्यसनों को जीवन रस माना, कैसा हाय रुझान बन गया॥
जिसने दिव्य चेतना दी थी, पंच तत्व का महल बनाया। भुला दिया हमने उसको ही, और विकारों को अपनाया॥ ब्रह्म मिलन का माध्यम था जो, वह पथ का व्यवधान बन गया॥
मानव यदि मानव बन रहता, यदि प्रज्ञा विकसित की होती। करते दीन-दुःखी की सेवा, तो यह आत्मा कभी न रोती॥ क्षणिक सुखों में उलझा जीवन, चिर-सुख का अभियान थम गया॥
जो था बस दो दिन का साथी, मालिक वह मेहमान बन गया॥ आत्मा की आवाज दबाकर सुख जीवन का गान बन गया॥
-माया वर्मा