प्रवेश करते ही दरबार में बैठे हुओं में प्रायः सभी की आँखें उस पर जा टिकीं। हर दृष्टि आश्चर्य से सनी थी। कोई इस विचित्र वेष-विन्यास में सभी नियमों का उल्लंघन कर निश्चित भाव से आकर बेधड़क सम्राट के सामने खड़ा हो सकता है ऐसी कल्पना किसी ने न की थी। उसकी कमर में मात्र एक कपड़ा लिपटा था। गले और भुजाओं में मानव अस्थियाँ इस तरह धारण की हुई थीं, जैसे सुवर्ण आभूषण हैं। लंबे तड़ंगे- कज्जल कृष्ण वर्ण शरीर को आवृत करती जटाएँ लंबी, घनी किंतु बेतरतीब फैली दाढ़ी, दहकते अँगारों की तरह धधकती आंखें उसके रहस्यमय व्यक्तित्व का परिचय दे रही थीं। भिक्षा पात्र के रूप में हाथ में मानव मुँड थमा था।
‘ताँत्रिक’! कई होंठ अस्फुट स्वरों में बुदबुदाए। लेकिन “यहाँ...क्यों...?” समूचे देश में गरुणध्वज फहराने वाले सम्राट समुद्र गुप्त ने राज्यासन सँभालते ही प्रथम कार्य के रूप में समस्त आसुरी प्रवृत्तियों पर कठोरता से प्रतिबंध लगाया था। राज्य भर में वाममार्गी साधनाएँ और आचार प्रतिबंधित हो चुके थे। लोगों ने आमतौर से धारणा बना ली थी, कि ऐसी क्रियाओं में प्रवृत्त लोग राक्षस होते हैं।
“राजन्! मुझे एक विशेष साधना के लिए नर बलि की आवश्यकता है। मैं इसके लिए आपकी अनुमति प्राप्त करने आया हूँ।” उसके बोलने से ऐसा लगा कि आकाश पर छायी घनघोर घटाएँ एक बारगी गहरा उठीं। अथवा किसी पर्वतीय गुहा से सिंह परिकर ने गर्जना की हो।
सभासदों सहित सम्राट भी आश्चर्य में पड़ गए। अब तक किसी ने भी इस तरह का आग्रह नहीं किया था। वामाचारी लोगों का जिस तरह दमन किया गया था उसी से लोगों में उन साधनाओं के प्रति भय से ही सही, इतनी विरति व्याप गई थी कि कोई उनका नाम तक नहीं लेता था। लेकिन यह साधक तो उन प्रतिबंधों के स्रष्टा-अधिष्ठाता के ठीक सामने खड़ा होकर किस कदर निःशंक भाव से याचना कर रहा था। सम्राट ने दृढ़ता पूर्वक उत्तर दिया-”किसी भी दशा में नर बलि की अनुमति नहीं दी जाएगी।”
“निवेदन भले न मानने पर मेरी एक जिज्ञासा तो पूरी कर दें।” उसने एक जलती दृष्टि सभी सभासदों पर डाली। “निवेदन तो अस्वीकृत हो चुका, जिसकी पहले से आशा थी क्योंकि आप नर बलि का अर्थ समझ न पाए। लेकिन जिज्ञासा तो आप अवश्य शाँत करेंगे, ऐसी संभावना की जा सकती है।” शब्द उसकी रहस्यमयी मुसकान में खोने लगे।
विचित्र पुरुष की जिज्ञासा भी विचित्र होगी। प्रायः हर मन संशय के चक्रवात में घूम रहा था। “कहीं”-सम्राट शाँत स्वर में बोले।
“मैंने शास्त्रों के अध्ययन और सत्पुरुषों के संग से यह जाना है कि पतन के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है। किंतु नष्ट हुए की परिणति क्या है? इस प्रश्न के उत्तर में सभी मौन हैं। राजन् तुम मेरे इस प्रश्न का समाधान करो।” एक बारगी सभी उसके प्रश्न जाल में उलझ कर रह गए। जबकि वह शाँत खड़ा मुसकान बिखेरे जा रहा था।
सम्राट ने राज्य सभा में विराजमान आचार्य पुरगोभिल की ओर देखा। आचार्य दृष्टि का निहितार्थ समझ गए। उन्होंने कनखियों से सम्राट की ओर देखकर कहना शुरू किया-”उस समय मैं गुरुकुल में अध्ययन रत था। एक दिन प्रातःकाल ही एक ब्राह्मण भिक्षा माँगने आ धमका। हम सभी अध्ययन रत थे। अध्ययन में व्यवधान पड़ता देख एक सहपाठी ने उसे दुत्कारते हुए कहा-”बहुत निर्लज्ज हो तुम। हृष्ट-पुष्ट शरीर एवं ब्राह्मण कुल में जन्म पाकर भीख माँग रहे हो।”
“मेरी जुआ खेलने की आदत है मित्र। रात में खेलते-खेलते सब कुछ गँवा बैठा इसलिए भीख माँगने निकलना पड़ा।” ब्राह्मण और जुआ-आश्चर्य से सहपाठी ने उसे देखा। “मैं जुआ खेलते-खेलते मदिरा पान भी करने लगा।” उसने जैसे आश्चर्य का समाधान किया।
“ओह इतना पतन।” सहाध्यायी चकित था।
“मदिरा पान से जगी वासना वृत्ति के शमन के लिए मजबूर होकर वेश्यागमन भी करना पड़ा।” जैसे वह अपनी सारी आत्मकथा सुना देना चाहता हो।
“फिर तो तुम्हारा ब्रह्मणत्व जाता रहा।” सहपाठी के स्वर थे।-इन सबके लिए धन मेरे पास कहाँ से आता। विवश हो चोरी करनी पड़ी। कहता हुआ वह भारी कदमों से आगे बढ़ गया। सभी विद्यार्थीगण चकित थे। सभी में उसी की चर्चा थी। भनक मिलने पर गुरुकुल के कुलाधिपति ने समाधान दिया-”जो एक बार हीन प्रवृत्ति के मार्ग पर चला, उसे उस प्रवृत्ति के संताप से छूटने के लिए अनेकों बार कुमार्ग पर चलना पड़ता है। यही है नष्ट हुए की परिणति।” पुरगोभिल की दृष्टि समूची राजसभा पर बिखरी। रहस्यमय व्यक्ति की जिज्ञासा का समाधान उसके चेहरे पर संतुष्टि भाव के रूप में दिखाई दे रहा था।
लौटने से पूर्व वह बोला-”राजन्! मैं साधक हूँ, प्रतिगामी स्तर का वाममार्गी ताँत्रिक नहीं। मैं तो नरबलि के माध्यम से उन कषाय कल्मषों की मुक्ति का प्रसंग तो तुम्हें समझाने आया था जो वासना, तृष्णा, अहंता के रूप में व्यक्ति को नष्ट करते रहते हैं। इनसे मुक्ति की सिद्धि ही वास्तविक नरबलि है।” राजन् के साथ सारे सभासद उस नवीन तत्व मीमाँसा पर आह्लादित सम्मानपूर्वक उसे विदाई दे रहे थे।