एक युवक बड़े उद्धत स्वभाव का था। बात-बात पर आग-बबूला होता और कहने, समझाने पर संन्यासी हो जाने की धमकी देता। परिवार वालों ने आये दिन की खिच-खिच से तंग आकर, उसे संन्यास की छूट दे दी।
समीप ही नदी किनारे एक संन्यासाश्रम था। उसकी जानकारी भी युवक को थी, सो वह सीधा वहीं पहुँचा। उसके संचालक ने पहले ही उसकी उद्दण्डता सुन रखी थी। पहुँचा, तो रास्ते पर लाने का विचार करते हुए, और भी अधिक स्नेह दिखाते हुए पास बिठाया। संन्यास दीक्षा का प्रस्ताव किया, तो उसे दूसरे दिन देने की अनुमति मिल गयी।
दीक्षा के विधान में पहला कर्म था, समीपवर्ती नदी में दिन निकलने के पूर्व स्नान करके लौटना। आलसी प्रवृत्ति और ठंड से डरने वाले स्वभाव में यह निर्धारण उसे अखरा तो बहुत, पर करता क्या, नियम पाले बिना कोई चारा भी न था।
जिन कपड़ों को खूँटी पर टाँग कर युवक नहाने गया था। आश्रम के संचालक ने उन्हें फाड़ कर चिथड़े-चिथड़े कर दिया। काँपता-थरथराता वापस लौटा, तो कपड़े फटे पाये। गुस्सा उसका और बढ़ रहा था।
दीक्षा का मुहूर्त शाम का निकला। तब तक कुछ फलाहार करना उपयुक्त समझा गया, तो उसकी थाली में नमक मिले करेले रख दिए गए। कड़ुवे बहुत थे, सो गले से नीचे न उतरे।
जल्दी उठने, ठंडक में नहाने, कपड़े फट जाने और करेले खाने के कारण, वह बहुत खिन्न-उद्विग्न हो रहा था। संचालक ने उसे फिर बुलाया और कहा-”संन्यास में कोई बारात की-सी दावत नहीं होती। इसमें प्रवेश करने वालों को पग-पग पर मन को मारना पड़ता है। परिस्थितियों से तालमेल बिठाना, संयम बरतना और अनुशासन पालन पड़ता है। इसी अभ्यास के लिए तो संन्यास लिया जाता है।
मुहूर्त आने तक युवक अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार करता रहा। तीसरे प्रहर वह कहते हुए घर वापस लौट गया कि यदि संयम-साधना और मनोनिग्रह का नाम ही संन्यास है, तो उसे घर पर रह कर सुविधापूर्वक क्यों न पालूँ?