अध्यात्म विज्ञान में स्थान-स्थान पर जिस “कला साधना” की चर्चा की गई हैं, वह और कुछ नहीं, वरन् वह परम ज्योति है, जो इस विश्व में चेतना का आलोक बन कर जगमगा रही है। गायत्री का सविता देवता इसी परम तेज को कहते हैं। इसका अस्तित्व ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में प्रत्यक्ष और कण-कण में संव्याप्त जीवन ज्योति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर देख सकता है। इस ‘कला’ अथवा ‘ज्योति’ की जितनी मात्रा जिसके भीतर विद्यमान हो, समझना चाहिए कि उसमें उतना ही अधिक ईश्वरीय अंश आलोकित हो रहा है।
कलायें दो प्रकार की होती हैं- 1-आप्ति और 2-व्याप्ति। आप्ति किरणें वे हैं, जो प्रकृति के अणुओं से प्रस्फुटित होती हैं। व्याप्ति उनको कहा गया है, जो पुरुष के अंतराल से आविर्भूत होती हैं। इन्हें ‘तेजस्’ भी कहते हैं। भौतिक जगत के समस्त पदार्थ पंच तत्वों से बने हैं, इसलिए उनके परमाणुओं से निकलने वाली किरणें अपने प्रधान तत्व की विशेषता भी साथ लिए होती हैं। वह विशेषता रंग द्वारा पहचानी जाती है। किसी वस्तु का प्राकृतिक रंग देखकर यह बताया जा सकता है कि इन पंचतत्वों में कौन-सा तत्व किस मात्रा में विद्यमान है।
यह शरीर भी पंचभौतिक है। काया में जिस तत्व की प्रधानता होती है, उसी का वर्ण व्याप्ति किरणें ग्रहण कर लेती हैं। इसीलिए साधना ग्रंथों में यत्र-तत्र पंचतत्वों को नियंत्रित कर व्याप्ति को व्यवस्थित करने का विधान समझाया गया है। जो इसे जिस अनुपात में संपन्न कर लेता है, उतने ही अंशों में व्याप्ति पर उसका नियमन हो जाता है।
इस ‘व्याप्ति’ कला का उद्गम मस्तिष्क मध्य वह स्थान है, जिसे ‘त्रिकुटी’ कहा गया है। यहाँ से प्रकाश कणों का एक फव्वारा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एक वृत्त बनाती हैं और फिर मूल स्रोत में लौट आती है। यह रेडियो प्रसारण और संग्रहण जैसी प्रक्रिया है। ब्रह्मरन्ध्र से छूटने वाली ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भाव स्थिति को विश्व-ब्रह्माँड में विद्युत चुम्बकीय तरंगों द्वारा प्रवाहित करती रहती है। इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का परिचय और प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता है। फुहारे की लौटती हुई धाराएँ अपने साथ विश्वव्यापी असीम ज्ञान की नवीनतम घटनात्मक तथा भावनात्मक जानकारियाँ लेकर लौटती हैं। यदि इन्हें ठीक तरह समझा जा सके, ग्रहण किया जा सके, तो कोई भी व्यक्ति भूतकालीन और वर्तमान काल की अत्यंत सुविस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है। कला-साधना का वास्तविक उद्देश्य शरीर के भीतर स्थित विभिन्न कला-केन्द्रों को परिमार्जित, परिष्कृत कर ब्रह्माँडव्यापी उन हलचलों और सूक्ष्म जानकारियों को अर्जित करना है, जो परमज्योति की लौटती धारा द्वारा उसके मूल उद्गम में संगृहीत होती रहती है।
प्रख्यात विज्ञानी डॉ. जे. सी. ट्रस्ट अपनी पुस्तक “दि लाइट विदिन दि सोल” में लिखते हैं कि जिस सूक्ष्म तत्व के एकपक्षीय अध्ययन के आधार पर विज्ञान ने उसे विद्युत कहकर अभिहित किया है, वास्तव में वह और कुछ नहीं, वरन् वह प्रकाश है, जिसे अध्यात्म दिव्य ज्योति कहकर पुकारता है। शरीर की भौतिक भूमिका में यही ज्योति देह संचालन जितनी स्थूल क्रिया का संपादन अपने वैद्युतिक गुण द्वारा करती है, जबकि उच्च आध्यात्मिक आयाम में यह आत्म ज्योति बनकर परमात्म तत्व की उपलब्धि कराती है। विज्ञान ने इस उच्चस्तरीय तत्व के जिन दो पहलुओं को अभी तक समझा है, वह चुँबक और बिजली के रूप में शरीर-व्यापार में संलग्न रहते हैं जिस दिन वह इसके अंतराल में प्रवेश कर यह समझ लेगा कि स्वभाव-संस्कार, इच्छा-आकाँक्षा, आस्था-क्रियाशक्ति जैसे व्यक्तित्व के सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष इसी के गर्भ में पकते, पनपते और पलते रहते हैं, उस दिन शायद इसे शोधित-संस्कारित करने की कोई विधा भी वह निकाल ले। यदि ऐसा हुआ, तो यह चेतना विज्ञान के क्षेत्र में पदार्थ विज्ञान की क्राँतिकारी उपलब्धि होगी, कारण कि तब व्यक्तित्वों को तराशने और गढ़ने का उसके पास एक सुनिश्चित आधार होगा, जिसका कि अभी एक प्रकार से अभाव है।
यह सत्य है कि संपूर्ण व्यक्तित्व को एवं उसकी बारीकियों को अकेले उस विज्ञान को समझ कर जाना जा सकता है, जो समस्त शरीर में कला अथवा किरण के रूप में व्याप्त रहती है। बोलचाल की भाषा में इसे ही ‘तेजस्’ कहते हैं। यह तेजस् मुख के आस-पास प्रकाश मंडल की तरह विशेष रूप से फैला होता है। यों तो यह सारे शरीर के इर्द-गिर्द प्रकाशित रहता है, पर सामान्य रूप से चेहरे के ओज के रूप में ही आँखें उसे देख पाती हैं। इसे ही ‘आँरा’ अथवा ‘आभामंडल’ कहते हैं। देवताओं के चित्र में उनके सिर के चारों ओर एक प्रकाश का गोला-सा चित्रित होता है। यह उनकी कला का ही चिह्न है। अवतारों के संबंध में उनकी शक्ति का माप उनकी कथित कलाओं से किया जाता है। परशुराम में तीन, भगवान राम में बारह, कृष्ण में सोलह, बुद्ध में बीस और प्रज्ञावतार में चौबीस कलायें बतायी गई हैं। इसका तात्पर्य यह है कि उनमें साधारण मात्रा से इतनी गुनी आत्मिक शक्ति थी।
साधना द्वारा जैसे-जैसे आत्मिक शक्ति बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे ही व्यक्ति में कलाओं का विस्तार हो जाता है। इस विस्तार क्रम में आगे बढ़ते हुए साधक कला कि किस भूमिका में पहुँच गया, इसे कोई दिव्यदृष्टि संपन्न महापुरुष ही जान सकता है। आमतौर से सामान्य व्यक्ति में शक्ति का दुरुपयोग भौतिक आकाँक्षाओं की पूर्ति में होता रहता है। किंतु साधना मार्ग का पथिक जब इसे संचित करते हुए आगे बढ़ता है, तो अंततः एक ऐसी अवस्था में पहुँच जाता है, जिसे कला की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण कहा जा सके। इसी के आधार पर उसकी क्षमता का अनुमान लगाया जाता है। जिस प्रकार मोटरों की सामर्थ्य उसकी “हार्स पावर” पर निर्भर करती है और जितनी अधिक हार्स पावर की मोटर होती है उतना ही बड़ा काम ले पाना उससे संभव होता है, वही बात कला शक्ति के साथ भी है। साधक में यह शक्ति जितनी बढ़ी-चढ़ी होगी, उतना ही बढ़ा-चढ़ा पुरुषार्थ कर सकने में वह समर्थ होगा।
संसार में अगणित स्वभाव और प्रकृति के मनुष्य हैं। कोई शालीन, सज्जन, शिष्ट और नम्र, तो कोई उग्र, उद्दंड और अशिष्ट। कोई दुष्ट-दुराचारी, तो कोई परले सिरे का क्रूर और कठोर। यह सब व्यक्ति के कला पुँज पर निर्भर है। इसमें परिवर्तन होने से आचरण भी बदलने लगता है। सामान्य तौर पर कला के रंग के आधार पर व्यक्ति के स्वभाव का अंदाज लगाया जाता है। जिस मनुष्य में यह श्वेत रंग का होता है, उसमें शाँति, रसिकता, कोमलता, शीघ्र प्रभावित होना, तृप्ति, शीतलता, सुन्दरता, बुद्धि, प्रेम आदि गुण देखे जाते हैं। इसके लाल रंग होने से वह गर्मी, उष्णता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, शूरता, सामर्थ्य, उत्तेजना, कठोरता, कामुकता, तेज, प्रभावशीलता, चमक, स्फूर्ति आदि का परिचायक है। पीला रंग-क्षमा, गंभीरता, उत्पादन, स्थिरता, वैभव, मजबूती, संजीदगी-हरा रंग चंचलता, कल्पना, स्वप्नशीलता, धूर्तता, गतिशीलता, विनोद, प्रगतिशीलता, पोषण, परिवर्तन-नीला रंग विचारशीलता, बुद्धि सूक्ष्मता, विस्तार, सात्विकता, प्रेरणा, व्यापकता, संशोधन, संवर्धन, सिंचन आदि गुणों को प्रकट करता है। धार्मिक ईश्वर भक्त और सदाचारी व्यक्तियों की आभा केसरिया रंग की होती है। गहरा बैंगनी अस्थिर मति अस्थिर गति का प्रतीक है। इसी प्रकार विभिन्न रंगों का सम्मिश्रण मिश्रित गुण, कर्म, स्वभाव का द्योतक माना जाता है।
कला विद्या का पारखी इन रंगों के आधार पर अपने शरीर-मन की स्थिति का पता लगाता और अपने आत्मबल से ही उसका सुधार-संशोधन कर सात्विकता की मात्रा बढ़ाता चलता है। इतना ही नहीं, वह दूसरों की भी सहायता इसके सहारे कर सकता है। जिसके शरीर के प्रकाश अणुओं की जितनी तीव्रता होगी, वह उतनी ही समर्थ सहायता कर सकने में सक्षम होता है। इसके माध्यम से वह दूसरों के शारीरिक मानसिक रोग दूर कर सकता है। मनोभूमि बदल सकता है और उसमें सात्विकता का संचार कर सकता है। पौराणिक कथाओं में ऋषि आश्रमों के निकट की सरिताओं में गाय और शेर के एक ही घाट पानी पीने का जो उल्लेख मिलता है, वह वस्तुतः कला-परिवर्तन की ही घटना है। ऋषियों के दिव्य प्रकाश-पुँज के प्रभाव में आकर हिंस्र पशुओं के प्रकाश कणों में क्षणिक परिवर्तन आ जाने और उनमें अस्थायी सात्विकता बढ़ जाने के कारण ही ऐसे प्रसंग प्रकाश में आते थे। प्राचीन काल के कई उदाहरण ऐसे भी हैं, जिनमें ऋषियों के संपर्क में आते ही दुष्ट प्रकृति के दुर्जनों का स्वभाव परिवर्तन हो गया। इन सब घटनाओं में प्रकाश अणुओं में रूपांतरण ही एक मात्र निमित्त है।
जड़ या चेतन किसी भी पदार्थ के प्रकट रंग एवं उससे निकलने वाली सूक्ष्म प्रकाश किरण से यह जाना जा सकता है कि इस वस्तु या व्यक्ति का स्वभाव एवं प्रभाव कैसा है? साधारणतः यह पाँच तत्वों की कला है, जिनके द्वारा यह कार्य हो सकते हैं-1-व्यक्तियों तथा पदार्थों की आँतरिक स्थिति को समझना तथा सुधारना 2-तत्वों के मूल आधार पर पहुँच कर तत्वों को गतिविधि तथा क्रियापद्धति को जानना 3-तत्वों पर अधिकार करके साँसारिक पदार्थों का निर्माण, पोषण तथा विकास करना। यह तीन लाभ ऐसे हैं जिनकी
व्यवस्था की जाय, तो वे ऋद्धि-सिद्धियों के समय आश्चर्य जनक प्रतीत होंगे। राजयोगी हठयोगी मंत्रयोगी तथा तंत्रयोगी इसका अपने-अपने ढंग से सदुपयोग-दुरुपयोग करके भले-बुरे परिणाम उपस्थित करते हैं। कला द्वारा साँसारिक भोग, वैभव भी मिल सकता है आत्म कल्याण भी हो सकता है और किसी को शापित, अभिचारित एवं शोक संतप्त भी बनाया जा सकता है।
भारतीय योगियों ने इसके मूल उद्गम को सहस्रार कमल कहकर वर्णन किया है। यह सर्वप्रभुता संपन्न प्रकाश केन्द्र है। कनपटियों से दो-दो इंच अंदर और भृकुटि से करीब तीन इंच भीतर यह स्थान दिव्य तेज पुँज रूप में है। तत्वदर्शियों के अनुसार यह स्थान उलटे छाते के समान 17 प्रधान प्रकाश तत्वों से बना है। छान्दोग्य उपनिषद् में इस दिव्य प्रकाश दर्शन की सिद्धि को निम्न प्रकार से वर्णित किया गया है-’तस्य सर्वेषु कामचारी भवति’ अर्थात् सहस्रार प्राप्त कर सेन बल योगी संपूर्ण विज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।
इस अंतिम प्रकाश तक पहुँचाने वाले मार्ग को ही कला-साधना के नाम से संबोधित किया गया है। इसमें पंचतत्वों के पाँच प्रमुख स्थानों गुदा, पेडू, नाभि, हृदय एवं कंठ प्रदेशों में निवास करने वाले पृथ्वी तत्वों का संतुलन-समीकरण बिठाते हुए, दोष-परिमार्जन करते हुए मूल प्रकाश को इतना निर्मल और प्रखर बना लिया जाता है कि सामान्य स्थिति में जो अनगढ़ बन कर रोग-शोक का कारण बना हुआ था, वही अपने उच्चस्तरीय आयाम में ऋद्धि-सिद्ध का भाँडागार बन जाता है। जो इस साधना मार्ग में प्रवृत्त होकर अपनी कला को जिस अनुपात में बढ़ाते हैं, वे उतने ही ऐश्वर्यवान बनते चलते हैं-ऐसा तत्वज्ञों का मत है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय” में इसी की याचना है। गायत्री का भर्ग इसे ही कहा गया है। यही सबका जीवन प्राण है।