तस्य वाचकः प्रणवः

October 1994

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भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि उसमें प्रतीकों, चिह्नों, आकृतियों और अक्षरों के मध्य ब्रह्माँड और विश्व के ऐसे रहस्यों को सँजोया गया है, जैसा अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलता। उदाहरण के लिए ओंकार को लिया जा सकता है। देखने में यह जितना नगण्य और छोटा प्रतीत होता है, उतनी ही बड़ी शक्ति का निरूपक है।

ईश्वरीय सत्ता का प्रतीक-प्रतिनिधि होने के नाते सभी माँगलिक अवसरों पर इसके लिखे और गाये जाने का विधान है, चाहे वैवाहिक आमंत्रण हो, निमंत्रण पत्र या सामान्य चिट्ठी-पूजा की वेदी हो या फिर यज्ञ का पवित्र कलश-सर्वत्र इसकी प्रतिष्ठा होती है। इन स्थापनाओं का अपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव है। जख-दर्पण के प्रयोग में जब प्रयोक्ता की निगाहें लंबे समय तक कालिख पुते नाखून में जमी रहती हैं, तो वह एक प्रकार से स्वसम्मोहन की गिरफ्त में आने लगता है। यही बात ओंकार के साथ भी है। उपासना के समय या शादी के मौके पर जब-जब दृष्टि इस पवित्र वर्ण पर पड़ती है, तो मन अनायास ही परमसत्ता के प्रति श्रद्धासिक्त हो उठता है। ऐसी पवित्र मनोदशा में संपन्न होने वाले अनुष्ठान और आयोजन के हर प्रकार से सफल और सिद्ध होने में फिर कोई संदेह रह नहीं जाता। यह घटना जब सभी उपस्थित जनों के मनों में घटती है, तो अंतःकरण में एक उदात्त भाव पैदा होता है। इस सामूहिक भाव, उत्कृष्टता से एक उच्चस्तरीय वातावरण का निर्माण होता है। देवता ऐसे ही दिव्य वातावरण में पधारते और प्रार्थी को अपने अनुदान-वरदानों से निहाल करते हैं। यह ‘प्रणव’ से उत्पन्न दैवी अनुदान है। इसका मनोवैज्ञानिक लाभ यह है। कि इस संपूर्ण काल में मन विकारग्रस्त होने से बचा रहता है।

ॐ, ‘अव्’ धातु से औणदिक ‘मन्’ प्रत्यय के संयोग से बनता है। इसको व्युत्पन्न कहते हैं। अतएव ‘अव्’ धातु के जितने अर्थ हैं, उन सबका यह बोधक है। इसके प्रायः उन्नीस अर्थ हैं। काँति, तृप्ति, प्रीति, रक्षण, गति, अवगम, प्रवेश, श्रवण, स्वार्म्यथ, याचन, क्रिया, इच्छा, दीप्ति, वाप्ति, आलिंगन, हिंसा, दान, भाग और वृद्धि। इनके पुनः कितने ही अर्थ हों। उन अर्थों को आगे यदि व्याकरण की रीति से विस्तार किया जाय, तो ‘ॐ’ अनन्तार्थ का द्योतक हो जायेगा। इस दृष्टि से वह जिस अनादि-अनंत सत्ता का वाचक है, स्वयं भी उसी प्रकार अपरिमित अर्थों वाला बन जाता है, जो वाच्यार्थ के अनुरूप ही है। जो स्वयं पूर्णता का बोधक हो, भला वह असीमित और अपूर्ण कैसे हो सकता है? इसे गणित के एक उदाहरण से भली-भाँति समझा जा सकता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ‘अव्’ धातु के 19 अर्थ हैं। इसमें एक और नौ के अंक उपस्थित हैं। गणितज्ञ इससे पूरी तरह परिचित हैं कि एक का अंक अपने में पूर्ण स्वतंत्र है, अतएव इसकी सत्ता का सद्भाव सभी अंकों में विद्यमान है। 9 का अंक स्वतंत्र तो नहीं, किंतु पूर्ण अवश्य है। पूर्ण वह है जो अपने में न्यूनता को न आने दे। यही कारण है कि संख्या एक से आरंभ होकर नौ पर समाप्त हो जाती है। शेष जो कुछ है, इन्हीं अंकों का विस्तार है। एक का अंक सबके आदि, मध्य और अंत में प्रकट हो रहा है, यथा एक, दो में तो हैं, किंतु दो एक में नहीं है। इसी प्रकार छोटी संख्या की सत्ता बड़ी संख्या में पायी जाती है। एक का अंक सूक्ष्म है, शेष सब स्थूल हैं। जिस प्रकार सूक्ष्म का समावेश स्थूल में हो जाता है, उसी प्रकार स्थूल का प्रवेश सूक्ष्म में नहीं हो सकता। नौ की संख्या पूर्ण है, यही कारण है कि इसके आगे संख्या का विधान नहीं है। जिस प्रकार एक और एक मिल कर दो हो जाते हैं और दो के साथ एक के संयोग से तीन बनते हैं, वैसे ही एक की वृद्धि से संख्या में वृद्धि और हानि से हृस का क्रम नौ तक बढ़ता और एकाँत घटता रहता है। नौ अंक की व्यवस्था अन्यों से कुछ भिन्न है। जब एक का अंक इसमें संयुक्त होने के लिए समीप आता है, तो वह वृद्धि को न प्राप्त होकर बिंदु के रूप में बदल जाता है, किंतु अपने गौरव को नहीं घटाता। यह सर्वदा पूर्णता का पक्षधर है, यही कारण है कि इस बिंदु ने ही उत्पन्न होकर गणित विद्या को पूर्ण बना दिया यदि इसको पृथक कर दिया जाय, तो अंक विद्या अपूर्ण और अधूरी बन जाती है।

इस बिंदु और नौ की समानता पर विचार करें, तो ज्ञात होगा कि इनमें स्वरूप भेद के अतिरिक्त और कुछ भी अंतर नहीं यह इस बात से प्रकट होता है कि यदि किसी अंक के आगे से बिंदु को हटाते हैं, तो निश्चय ही वहाँ से नौ को ही प्रकाराँतर से मिटाते हैं। प्रस्तुत दृष्टाँत से इसे भली प्रकार समझा जा सकता है। दस की संख्या के आगे से यदि बिंदु को दूर किया जाय, तो सामने एक बनता है। इस प्रक्रिया में प्रच्छन्न रूप से हम नौ को ही दूर करते हैं। ऐसे ही यदि 101 के मध्य से बिंदु को पृथक करें, तो 90 दूर होंगे। उक्त संख्या में नौ विद्यमान है। पुनः यदि 90 के सामने से बिंदु हटाया जाय, तो 81 मिटते हैं, जिसके 8 और 1 मिलकर नौ का निर्माण करते हैं। ऐसा ही सर्वत्र होता है। किसी भी अंक के आगे बिंदु लाने या हटाने से नौ ही आते अथवा जाते हैं। इस प्रकार प्रस्तुत अंक सर्वत्र अपनी पूर्णता का परिचय देता रहता है। अन्य अंकों को परस्पर गुणा करने से न्यूनाधिक लाभ होता है, किंतु नौ को गुणा करने से प्राप्त अंक का योग नौ ही बना रहता है। यह इसकी पूर्णता को दर्शाता है। ‘अव्’ धातु के उन्नीस अर्थों वाली इस संख्या में उपस्थित 1 और 9 के अंक ओंकार के इस पूर्णता बोधक तत्वदर्शन को ही अभिव्यक्त करता है।

ईश्वरीय चेतना अपरिवर्तनशील है। वह वृद्धि-हृस से परे एक रस बनी रहती है, अस्तु उसे अभिव्यक्त करने वाले अक्षर को भी इन गुणों से युक्त होना निताँत आवश्यक है। व्याकरण की दृष्टि से ‘उद्गीथ’ (ओंकार) पर विचार करने से ज्ञात होता है कि वह हर स्थिति में अपने मूल स्वरूप को बनाये रखता है और किसी भी दशा में कभी भी परिवर्तित नहीं होता। ‘वृक्ष’ से निर्मित वाक्य पर विभक्ति के आधार पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जायेगा। ‘वृक्ष स्थिर है’-यहाँ स्थिति क्रिया का वृक्ष कर्ता है। ‘वृक्ष को स्पर्श करता है’-यहाँ स्पर्श क्रिया का वृक्ष कर्म है। ‘वृक्ष पर से चन्द्रमा को देखता है’ यहाँ दर्शन क्रिया का वृक्ष करण है। ‘वृक्ष के लिए जल सींचता है’-यहाँ सिंचन क्रिया का वृक्ष संप्रदान है। ‘वृक्ष से पत्र गिरते हैं’-इसमें पतन क्रिया का वृक्ष अपादान है। ‘वृक्ष के फल मधुर हैं’-यहाँ फल संबंध से वृक्ष संबंधी है।’ वृक्ष पर पक्षी निवास करते हैं’ इस स्थान पर निवास क्रिया का वृक्ष अधिकरण है। इस प्रकार देखते हैं कि एक वृक्ष को विभक्ति ने भिन्न-भिन्न कारकों में विभक्त कर दिया। ऐसा ॐ के साथ घटित नहीं हो सकता। इसके आगे विभक्ति आते ही अपने स्वरूप को खो देती है, अतः यह अभेद्य है। भेद कारक विभक्ति की शक्ति इसका स्वरूप परिवर्तन नहीं कर सकती। इसमें वह पूर्णतः अक्षम है। अग्नि प्रायः उसी वस्तु को जलाती है, जो दहनशील हो, अदाह्य वस्तु को जलाने अथवा मिटाने की सामर्थ्य उसमें नहीं, वहाँ तो वह स्वयं शाँत हो जाती है। ऐसे ही ‘ॐ’ शब्द सर्वदा अपनी महिमा में स्थिर परिवर्तन से परे है।

व्याकरण के ‘वचन’ और ‘लिंग’ भी इसमें किसी प्रकार का कोई भेद उत्पन्न करने में सर्वथा असमर्थ हैं। वचन से व्यक्त होना-इसको निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है-जिस प्रकार ‘बालक’ शब्द एक वचन, द्विवचन, और बहुवचन प्रत्यय के संयोग से ‘बालकः, बालकौ, बालकाः’ ऐसे रूपों को धारण कर लेता है और उच्चारण भेद पाकर एक, दो और कई बालक हैं-इन अर्थों का द्योतक बन जाता है-ऐसा ‘ओम’ शब्द में दर्शन, उच्चारण और वचन भेद कदापि नहीं हो सकता।

लिंग दर्शाने वाले प्रत्यय शब्द के साथ जुड़ कर जिस तरह उसे कभी स्त्रीलिंग, कभी पुल्लिंग तो अनेक बार नपुँसकलिंग में रूपांतरित कर देते हैं, वैसा अक्षर ब्रह्म को व्यक्त करने वाले इस अक्षर के साथ कभी होता दिखाई नहीं पड़ता। सदा अपरिवर्तनीय बने रहना इसका स्वभाव है। परम चेतना बदलती कहाँ है। वह तो सदा स्थिर और एक रूप बनी रहती है। ‘प्रणव’ इसी का प्रतिनिधि है।

अव्युत्पन्न ‘ॐ’ अ, उ, म-यह तीन वर्गों के मेल से बनता है। यह वर्ण ‘उद्गीथ’ में अगणित ‘त्रिको’ को धारण किये हुए हैं। भूः भुवः स्वः-स्थूल, सूक्ष्म, कारण-जाग्रति, स्वप्न, सुषुप्ति-ब्रह्मा, विष्णु, महेश-ऋक्, यजुः, साम-वैश्वानर, तेजस्, प्राज्ञ-गार्हपत्य अग्नि, दक्षिण-अग्नि, आह्वनीय अग्नि-सूर्य, चन्द्र अग्नि-विराट् हिरण्यगर्भ, मायादेह-नाश, निर्माण, स्थिति-जीव, प्रकृति, ब्रह्म। इस प्रकार ओंकार अनंत गुणों और विभूतियों को अपने अंदर समाहित किये हुए है। इन सब की विस्तारपूर्वक चर्चा प्रश्न और छाँदोग्य उपनिषदों में मौजूद है। परंतु माँडूक्य में जो रहस्योद्घाटन हुआ है, वैसा आध्यात्मिक वर्णन इसका अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।

ध्वनिशास्त्र की दृष्टि से यदि इसके इन तीन घटकों पर विचार किया जाय, तो हम पायेंगे कि ये केवल ध्वनि मात्र नहीं है, वरन् समस्त ध्वनि जगत का अंतर्भाव करने वाले प्रतीक हैं। इसमें आया हुआ ‘अ’ मात्र एक स्वर या ध्वनि नहीं, अपितु निखिल संगीत जगत का, सृष्टि का, समस्त भाषाओं का मूलाधार एवं मूल प्रकृति है। गीता में विभूति-वर्णन के समय भगवान यह भी कहते हैं-’अक्षराणामकारोऽस्मि’, अर्थात् अक्षरों में ‘अकार’ मैं ही हूँ। निश्चय ही इसकी अनुपस्थिति में भाषा शास्त्र और स्वर विज्ञान अपंग एवं मूक स्तर के साबित होते हैं। इससे इसकी महत्ता स्पष्ट विदित हो जाती है। यह महत्व तब और सुस्पष्ट हो जाता है, जब विभिन्न वर्णों को अकार से पृथक करते हुए उच्चारण का विफल प्रयास किया जाता है। स्वरशास्त्र के अभ्यासियों को यह मालूम होता है कि ‘अ’ का सुदीर्घ उच्चारण करते हुए बाद में जब मुख से निकलने वाली वायु को होंठ सिकोड़ और फैला कर संपीड़ित और विस्तृत किया जाता है, तब उससे ही उ, इ, ए, ओ आदि दूसरे स्वर उत्पन्न होने लगते हैं। इससे स्पष्ट है कि वर्ण विज्ञान का आदि मूल ‘अकार’ है। अपितु ‘प्रणव’ में व्यक्त हो रही ईश्वरीय चेतना की व्यापकता ही है। ‘उ’ और ‘म’ इसी अकार के विकास रूप हैं। इन्हीं तीन ध्वनियों द्वारा संपूर्ण नाद जगत का प्रतिनिधित्व होता है, इसीलिए इनके संयुक्त रूप ‘ॐ’ द्वारा हम उस नाद ब्रह्म-शब्द ब्रह्म को जानने, समझने और उसकी अनुभूति करने का प्रयास करते रहते हैं।

शब्द आकाश का गुण है। आकाश में इसका निर्माण और विलय-विसर्जन होता रहता है। इसके उच्चारण से हम अनायास ही इस तत्व से जुड़ जाते हैं। इस आकाश तत्व पर विज्ञान अथवा दर्शन जिस भी दृष्टि से विचार करें, ज्ञात होगा कि सृजन प्रक्रिया का शुभारंभ यहीं से होता है। यह सूक्ष्मतम है और उत्तरोत्तर एवं स्थूलतम-इस क्रम में सृष्टि की उत्पत्ति उससे (आकाश तत्व से) हुई है। विज्ञान के ‘महा विस्फोट’ (बिग बैंग) वाले सिद्धाँत की इससे संगति बैठ जाती है, जबकि अध्यात्म की यह सुनिश्चित अवधारणा है कि सृष्टि के आदि में सब कुछ इस आकाश तत्व से ही प्रकट हुआ है और सृष्टि के अंत में उसे पुनः उसी में समाहित हो जाना है। हम ओंकार का जब उच्चारण करते हैं, तो नादब्रह्म द्वारा ब्रह्म से अर्थात् सृष्टि के आदि कारण से संबद्ध हो जाते हैं। यह आध्यात्मिक प्रक्रिया किसी संप्रदाय विशेष तक ही सीमित नहीं है, वरन् संपूर्ण मानव समाज इससे जुड़ा हुआ है। हमारी पूजा पद्धति चाहे कैसी ही क्यों न हो, हम किसी धर्म, किसी जाति, किसी क्षेत्र से संबद्ध क्यों न हो, ग्रंथ चाहे किसी भी इष्ट-आराध्य के उपदेश क्यों न करते हों, एकेश्वर या बहुदेववादी हों, फिर भी उक्त सत्य सदा शाश्वत और सनातन बना रहता है। विश्व के इस आदि कारण को चाहे हम ब्रह्म, ईश्वर, गॉड, टसाइटगाइस्ट, एनर्जी कुछ भी कह लें, केवल नामकरण से वह आदिकारण बदलने वाला नहीं। वह सदा एक है और एक ही रहेगा। इस दृष्टि से विचार करें, तो हम पायेंगे कि “ॐ ब्रह्म है। इस जगत में सब कुछ ॐ है।” तैत्तिरीय उपनिषद् की यह घोषणा न तो अनावश्यक है, न अत्युक्ति पूर्ण ऐसा स्पष्ट प्रतीत होगा।

पतंजलि योगदर्शन ओंकार का उल्लेख करते हुए लिखता है-”तस्य वाचकः प्रणवः” अर्थात् उसका (ईश्वर का) वाचक (शब्द) प्रणव है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि वाच्य और वाचक का रिश्ता परस्पर अविच्छिन्न होता है। वाचक के उच्चारण से वाच्य स्वयमेव प्रतिभासित हो उठता है गाय एक प्राणी है और उसका वाचक शब्द ‘गाय’ उससे पृथक् है। इतने पर भी शब्द के उच्चारण के साथ ही मन-मस्तिष्क में उस जंतु की तस्वीर स्वतः उभर आती है। इसी प्रकार ‘ॐ’ ईश्वरवाचक है। ईश्वर न तो स्थूल है, न इन्द्रियगम्य, फिर भी उसकी कल्पना-भावना करने और उससे संबंध-सूत्र स्थापित करने में यह अक्षर साधनभूत बनता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो शब्द और अर्थ अभिन्न एवं अन्योन्याश्रित हैं। नाम जप का यही रहस्य है। नामोच्चारण से ईश्वर का अनिवार्य स्मरण होता है-इसी बात को सूत्रकार अपने अगले सूत्र में स्पष्ट करते हुए कहते हैं-

‘तज्जपस्तदर्थ भावनम्’ अर्थात् नाम−जप से अंतः करण में भगवद् भावना उभरने लगती है। इस प्रकार उद्गीथ मनुष्य और महत् चेतना के मध्य संबंध स्थापित करने में सेतु का काम करता हैं

ओंकार-माहात्म्य का बखान आर्षग्रंथों में स्थान-स्थान पर हुआ है मनुस्मृति से लेकर गोपथ ब्राह्मण एवं उपनिषदों में कठ से लेकर अमृतनाद, अथर्वशिरा, अथर्वशिरपा, मैत्रायणी, मैत्रेय, ध्यान बिंदु आदि कितने ही प्रधान-अप्रधान ग्रंथों में इसका उल्लेख है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-”गिरारम्येम्येकमक्षरम्” अर्थात् वाणी में एक अक्षर ‘ॐ’ मैं हूँ। यजुर्वेद में इसी को ‘ॐ’ एवं ‘ब्रह्म’ कह कर वर्णित किया गया है, अर्थात् आकाश के समान व्यापक परमात्मा ‘ॐ’ नाम वाला है। शिव पुराण के कैलास संहिता में उल्लेख है-’शिवो यो प्रणयो ह्येष प्रणवो या शिवः स्मृतः’ प्रणव ही शिव है और शिव ही प्रणव है। अन्यत्र वर्णन है-’ॐ इति सर्वम्’। यहाँ संपूर्ण जगत को ‘ॐ’ अर्थात् ईश्वरमय बताया गया है इस प्रकार ओम के इस एक अक्षर में ही चराचर जगत और उसकी संपूर्ण शक्तियाँ अभिव्यक्ति पा रही हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो यह जगत ‘ॐ’ (परमात्मा) का व्यक्त रूप है, उसी का प्रकाश हे। इस प्रकाश-प्रेरणा को हम जितने अंशों में लोगों तक पहुँचाते हैं, समझना चाहिए उतने ही अनुपात में ॐ के तत्वदर्शन को आत्मसात किया और आचरण में उतारा गया। हम अपनी आत्मीयता को सीमाबद्ध न रखें, उसे विस्तृत और व्यापक बनायें-ओम का ‘अकार’ उससे आगे की गति-प्रगति का द्योतक है। जब यह विकसित होते हुए विराट् ब्रह्म में दूध-पानी की तरह घुल-मिल जाता है, तो यही ‘मकार’ बन जाता है। जीवन मुक्ति, एकत्व, अद्वैत इसे ही कहते हैं। इस प्रकार अकार से यात्रा आरंभ कर मनुष्य जब अपने को परिष्कृत और विकसित करते हुए चलता है, तो अंतिम परिणति मकार के रूप में, ईश्वर-उपलब्धि के रूप में सामने आती है। यह ‘प्रणव’ की सबसे बड़ी विशेषता है। वह प्रवृत्ति मार्ग में चलाते हुए भी अंततः आदमी को अंतिम लक्ष्य पर ला खड़ा करती है। ऐसी विशिष्टता किसी अन्य शब्द में नहीं।

हम ओम की उपासना और जप तो करते हैं, पर उसमें सन्निहित मर्म और आदर्श की अवहेलना कर देते हैं। आज की दुर्गति का यही प्रमुख कारण है। इसी से उबारने के लिए हमारे संस्कृति-विधायकों ने शब्द और सूत्र रूप में गागर में सागर उड़ेल कर रख दिया है, ताकि जब कभी अपने कर्तव्यों, दायित्वों और आदर्शों की उपेक्षा हो, तभी यह सूत्र-संकेत सामने आकर हमें अपनी विस्मृति और भूल का एहसास कराये इस त्रुटि-परिमार्जन के द्वारा ही हम ‘ॐ’ के सच्चे उपासक कहला सकते हैं, इससे कम में नहीं।


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