अवरोधों से जूझें तो आदतें छूटें

October 1994

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हिमालय की चोटियों पर जमी बर्फ जब पिघलती है तो तीव्र जलधारा का प्रवाह उमड़ पड़ता है। उसे यदि आगे का रास्ता मिल जाय तो गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र की तरह वे आगे-आगे बढ़ती चली जाती हैं। अपने लक्ष्य समुद्र तक जा पहुँचती हैं पर यदि रास्ते में कोई बड़ा पर्वत अड़ जाय तो उस जलधारा को वहीं रुककर रहना पड़ता है। मानसरोवर जैसी झीलें बन जाती हैं। अग्रगामी प्रवाह रुक जाता है।

मनुष्य का अंतराल जिसमें हिमशिखरों जैसी अकृत जलराशि विद्यमान है उसे सूर्य किरणों जैसी ऊर्जा जितनी मात्रा में मिलती है निर्झर उसी अनुपात में उमगते हैं। गंगोत्री का उद्भव इसी प्रकार हुआ है। प्रपात का प्रत्यक्ष दर्शन गोमुख जैसा होने लगता है। अवरोध अड़ने पर बहाव रुकने पर बाँध खड़े हो जाते हैं। वे भी यदि दबाव सँभाल नहीं पाते तो जिधर-तिधर हिम नदी के रूप में बहते एवं सूखते रहते हैं। मानवी अंतराल की भी यही स्थिति है। उसकी गतिशीलता यदि सुचारु रीति से गतिवान रहे तो जीवन संपदा विशाल सरोवरों, महानदियों के रूप में अपनी महानता का प्रमाण परिचय प्रस्तुत करती है पर अवरोध अड़ने पर तो विग्रह ही खड़े होते हैं। प्रपात उत्पातों का ही सिलसिला चल पड़ता है। प्रगति में बाधा इस कारण पड़ती है। अवगति का निराकरण इसी कारण नहीं हो पाता। ऐसी ही स्थिति में कुत्सायें

और कुँठायें आ घेरती हैं।

चर्म चक्षुओं से प्रत्यक्ष शरीर ही सब कुछ करता दीख पड़ता है। निंदा, प्रशंसा भी उसी की होती है। सुविधा-साधनों का लाभ भी वही उठाता है। सुसंपन्न एवं सुन्दर, आकर्षक भी वही लगता है। उपार्जन एवं अभिवर्धन में निरत वही दीखता है और वैभव का उपभोग भी वही करता है तथा चेतना का अलग अस्तित्व दिखाई नहीं पड़ता किंतु पृथकता रहती अवश्य है। काया की कठपुतली को चेतना का बाजीगर ही विविध विधि नाच नचाता है। इतने पर भी पर्दे की आड़ में बैठा होने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता। शरीर की हलचलें मस्तिष्क के साथ बँधे हुए और समग्र काया में बिखरे हुए ज्ञानतंतुओं के माध्यम से ही अनुभव होती है। स्पर्श जन्य संवेदना मस्तिष्क तक पहुँचती है, वहाँ अनुकृति होती है साथ ही यह फैसला भी होता है कि किस अंग को उस स्थिति में क्या करना चाहिए। इस प्रक्रिया की समग्र जानकारी होने पर वह वस्तुस्थिति सहज ही समझी जा सकती है कि शरीर द्वारा क्रियाकृत्य कुछ भी क्यों न किए जाते हों पर उनका सूत्र संचालन मन के द्वारा ही होता है। इस तथ्य के आधार पर यह वस्तुस्थिति सहज ही प्रकट हो जाती है कि स्थूल का संचालन सूक्ष्म क्षेत्र के संकेत पर होता है। इसलिए कर्तृत्वशील शरीर की गतिविधियों का निमित्त कारण सूक्ष्म को ही समझा जाता है। जैसे विचार होते हैं वैसे ही क्रियाकलाप बन पड़ते हैं। मनःस्थिति के अनुरूप ही परिस्थितियों का निर्माण होता है।

मन की रचना मधुमक्खी जैसी है। वह जिन फूलों में मधु के अनुरूप गंध पाती है उसी पर जा बैठती है और रस चूसना आरंभ कर देती है। मन तितली की तरह है। उसे एक जगह बैठे रहने में संतोष नहीं होता। रंग-बिरंगे फूलों की विविधता उसे आकर्षित करती है। फलतः वह अनेकानेक रंग रूप वाले फूलों पर यहाँ से वहाँ उड़ता रहता है। उसे बंदर स्वभाव का भी कहा जा सकता है जिसका सहज कौतुक कौतूहल इस डाली से उस डाली तक उचकना-मचकना ही बना रहता है। उसका श्रम, समय इसी आवारागर्दी में खप जाता है। मन भी यही करता है। उस पर अनेक रँगीली कल्पनायें चढ़ी रहती हैं। उन्हीं के द्वारा धकेला जाने पर वह बेकार की रंगीली उड़ाने उड़ता और अपनी बहुमूल्य शक्ति का अपव्यय करता रहता है। ऐसी दशा में शरीर के क्रियाकृत्यों का भी दिशाहीन होना स्वाभाविक है।

अभ्यस्त दिनचर्या में तो अचेतन मन कोल्हू के बैल की तरह निर्धारित विधि व्यवस्था को निपटाता रहता है। पर जब आदर्श का प्रश्न आता है, पतन प्रक्रिया रोकने और उत्कर्ष की दिशा में चलने की आवश्यकता सामने आती है तब वह उसे उपेक्षापूर्वक उड़ा देता है। नये एवं उच्चस्तरीय कदम उठाने का साहस नहीं करता। अड़ियल बैल की तरह जहाँ जी करता है पसर जाता है। ऐसा क्यों होता है? यही विचारणीय प्रश्न है। हित-अनहित का तात्विक विवेचन क्यों नहीं हो पाता? इस संदर्भ में मोटे तौर पर तो यही कहा जा सकता है कि उस प्रसंग को गंभीर नहीं समझा गया। उसे अपनाने के लाभ और न अपनाने पर होने वाली हानि की पूरी तरह कल्पना नहीं की गई। कृत्यों के परिणामों और संभावनाओं को दूरदर्शी, विवेक के सहारे समझने की चेष्टा नहीं की गई। इस संदर्भ में ध्यान एकाग्र नहीं हुआ और दूरगामी निर्धारणों तक पहुँचने का प्रयत्न नहीं हुआ। बालबुद्धि का यही चिह्न है। उसमें तत्काल का लाभ, लोभ, आकर्षण ही प्रधान रहता है। बच्चे इसी आधार पर हठ करते और मचलते हैं। यही स्तर बड़े होने पर भी बना रहता है। आयु की दृष्टि से प्रौढ़ या बुड्ढे हो जाने पर भी अनेक लोग बचकाने ही देखे गये हैं। वे तात्कालिक इच्छा की पूर्ति भर में लगे रहते हैं। दूरवर्ती परिणामों की बात न वे सोचने हैं और न वैसा अभ्यास ही होता है। इस कारण समझ काम ही नहीं देती कि विवेकशीलों जैसा निर्णायक निर्धारक कार्यक्रम क्या होना चाहिए? इसी अभाव के कारण आत्म सुधार और आत्म, निर्माण के दोनों कार्य नहीं हो पाते। कोई महत्वपूर्ण कदम इसीलिए नहीं उठने पाते। विशेषतया पतनोन्मुख प्रवृत्तियों को रोकने और सत्प्रवृत्तियों को उभारने की दिशा में कोई कहने लायक कदम उठ नहीं पाता।

सामान्य स्तर पर इस अड़चन के निवारण में स्वाध्याय, सत्संग एवं चिंतन मनन का अभाव भी माना जाता है। यह सही भी है। सर्वविदित प्रतिपादनों में इनका भी कम महत्व नहीं है। हम जो पढ़ते, सुनते, देखते हैं उसी आधार पर मानसिक स्तर का निर्माण होता है। चूँकि शिक्षितों द्वारा सुने गये तत्वदर्शन से लेकर कथा प्रसंगों तक सब कुछ ऐसा होता है, जो विवेक जगाता नहीं वरन् उसे और भी अधिक कुँठित करता है, अंधविश्वासों, मूढ़ मान्यताओं भाग्यवादी परावलंबन शैली का समर्थन करता है अतः चिंतन भी वैसा ही बनता चला जाता है। मनोरंजक समझे जाने वाले साहित्य में तो कामुकता भड़काने एवं छद्म रचने आक्रमण करने के लिए उभारने वाले ही प्रसंग भरे पड़े होते हैं। धर्मसंचों से भी ऐसे ही कथानक सुनने को मिलते हैं जो श्रद्धासिक्त भावुकता को कहीं से कहीं घसीट ले जाते हैं। वास्तविक स्वाध्याय वह है जो अपनी निम्न की तथा संबंधित परिवार की समस्याओँ के हर पहलू पर प्रकाश डाले और पाठक को, श्रोता को सही निर्णय तक पहुँचने में सहायता करे। ऐसी पुस्तकें सर्वथा उपलब्ध न हों ऐसी बात तो नहीं है पर उनकी कमी अवश्य है। उन्हें जहाँ-तहाँ से ढूंढ़कर उपलब्ध भी करना पड़ता है। ऐसा नियमित स्वाध्याय यदि विचारपूर्वक अपनी स्थिति के साथ तालमेल बिठाते हुए किया जाय तो उसका परिणाम विवेकशीलों की जागृति में सहायक सिद्ध हो सकता है। यही है वह परिष्कृत विचारशैली जिसे मेधा कहते हैं। इसके प्रकाश में अपना मार्ग खोजने में सहायता मिल सकती है।

सामान्य परामर्श के अनुसार दूसरा मार्ग सत्संग की उपलब्धि का बताया जाता है। यदि चरित्रवान विचारशील प्राणवान व्यक्तियों के साथ रहने का उनकी जीवनचर्या को गंभीरतापूर्वक समझने, अपनाने का प्रयत्न किया जाय तो अपने अंतराल में भी आदर्शवादी उमंगें उठ सकती है। किंतु ऐसे अवसर इन दिनों प्राप्त कर सकना अत्यधिक कठिन है। महत्वपूर्ण व्यक्ति महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न होते हैं। उनका समय अत्यधिक व्यस्त होता है। उच्चस्तरीय समस्याओं को सुलझाने, उसी संदर्भ में पढ़ने, सोचने, लिखने, मिलने के लिए वे अपना समय लगाते हैं। उनके साथ लंबे समय तक साथ रहने जैसा अवसर मिलना अत्यधिक कठिन ही नहीं असंभव जैसा भी है। जो लोग सत्संग के नाम पर बकवाद करते कराते फिरते हैं वे ऐसे नहीं होते कि उनके फेरे में पड़ा जाय। ऐसे दिग्भ्राँत करने वाले सत्संगी की अपेक्षा तो प्रकृति के सान्निध्य में बैठना, टहलना कहीं अच्छा। उस सुनसान में भी प्रकृति की विधि व्यवस्था को देखने, समझने में निज की बुद्धि विवेक से भी बहुत कुछ पाया जा सकता है।

अपने चारों ओर का परिकर लालचियों, व्यामोहग्रस्त, अनीति अपनाने वाले एवं दुर्गुणी लोगों से ही भरा पड़ा है। उनकी उपलब्धियाँ गौर से देखने वालों को ललचाती हैं और अनुकरण की प्रेरणा देती हैं। जिस प्रकार पृथ्वी को गुरुत्वाकर्षण शक्ति ऊपर से नीचे की ओर खींचती है उसी प्रकार संपर्क क्षेत्र में चलने वाली हलचलें भी ऐसी होती हैं जो सामान्य जन पर यही छाप छोड़ती हैं कि बहुजन समाज जिस दिशा में चल रहा है उसी में अपने को भी चलना सुविधा-जनक रहेगा। यह सहज मान्यता बन जाती है और अयाचित कुसंग अनायास ही शिर पर लाद लेते हैं। इस आधार पर अचिन्त्य चिंतन और अनाचार ही अपने पल्ले बँधता है। इस चक्रव्यूह से निकलने का एक ही मार्ग है कि महामानवों की जीवनचर्या कर्मपद्धति एवं विचारणा को पढ़ा सुना जाय। प्रत्यक्ष मिलन न हो सकने पर भी दिव्य मानवों का यश शरीर दिवंगत होते हुए भी मार्ग दर्शन के लिए सदा सर्वदा उपस्थित रह सकता है। जिन्हें सत्संग का लाभ लेकर अपनी कल्याणकारी मेधा जगानी हो उन्हें इसी उपाय उपचार का अवलंबन करना चाहिए।

स्वाध्याय, सत्संग बाहरी माध्यमों उपकरणों, व्यक्तियों द्वारा उपलब्ध किए जाते हैं। साथ ही दो अवलंबन ऐसे भी हैं जिन्हें भीतरी क्षेत्र में ही खोजा और सींचा जाता है वे हैं चिंतन और मनन। अपने दोष, गुणों को सूक्ष्म दृष्टि में देखना-परखना अपनी मान्यताओं, आकाँक्षाओं, अभिरुचियों को आदर्शवाद की कसौटी पर कसना यही है चिंतन। इसे रोग का निदान कह सकते हैं। निदान के उपराँत ही चिकित्सा बन पड़ती है। आत्म परिष्कार के समस्त पक्षों पर समग्र दृष्टि में विचार करना और साथ ही उनसे पीछा छुड़ाने के लिए सुनिश्चित संकल्प करना, तथा साहसिक दृढ़ निश्चय करना ही ‘मनन’ है। इस निमित्त एक सुनियोजित कार्यक्रम बनाना होता है। दूरगामी योजना बनाते हुए उस पर अंत तक चलते रहने का व्रत धारण करना यही है मनन। चिंतन में भूतकाल से लेकर वर्तमान तक का निरीक्षण-परीक्षण करते हुए खोटों को समझना पड़ता है। मनन इससे अगली आवश्यकता पूरी करना है। यह सुधारवादी योजना बनाकर देता है साथ ही उसे अपनाकर एकाकी चल पड़ने का साहस प्रदान करता है। ऐसे निश्चय यदि कल्पना लोक में ही मँडराते रहे तो बात दूसरी है अन्यथा यदि उन्हें कार्य रूप में विकसित होने का अवसर मिले तो उसका प्रभाव परिणाम किसी को भी सामान्य से असामान्य बना सकता है।

प्रत्यक्ष और प्रचलित सुधारवादी पद्धति यही है। स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन का आश्रय लेकर आमतौर से लोग सुधरते और आगे बढ़ते हैं। इसलिए सर्वमान्य, सर्वसुलभ विधि व्यवस्था यही है। इतने पर भी यह नहीं समझना चाहिए कि बात समाप्त हो गई। अभी उन रहस्यों को समझना शेष है, जो अंतराल की किन्हीं गहरी पर्तों में छिपे बैठे रहते हैं और जब ज्वालामुखी की तरह फूटते हैं तो स्वाध्याय, सत्संग जैसे अवलंबनों से जो हाथ लगा था, उसे लावे की तरह उछालकर दूर फेंक देते हैं यही समझ में आ जाय तो भटकाव की विडंबना से मानव बच जाय। जीवन साधना यही है कि सतत् अपने को श्रेष्ठ विचारों में लीन रखा जाय, पतनोन्मुखी विचार प्रवाह से स्वयं को बहने से रोका जाय तथा विभिन्न व्यावहारिक अध्यात्म के उपचारों से आत्मोत्थान के प्रयास किये जाते रहें।


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