सफलता-असफलता से राजर्षि के अधिकारी का निश्चय (Kahani)

October 1994

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राजा पुरुषोत्तमदास टंडन उन दिनों बीमार थे। उन्हें देखने के लिए उनके एक पुराने सहपाठी मित्र प्रयाग गये। तब राजर्षि ने बातों ही बातों में अपना एक संस्मरण सुनाया-किसी समय में देशी रियासतों में राजाओं का सुधार करने के लिए एक आदर्श योजना बना रहा था। ताकि यह दिखाने का अवसर मिले कि भारतीय अंग्रेजों से अच्छा शासन कर सकता है। इसी उद्देश्य के लिए बनायी गयी योजना को क्रियान्वित करने हेतु मैंने नाभा रियासत में नौकरी की, परंतु मैं असफल रहा। उनके मित्र ने कहा-’यह तो बड़ा अच्छा रहा।’ यही तो मैं भी कहना चाहता था। अंग्रेजों के कारण मैं असफल हुआ, तो मैंने अपना ध्यान अंग्रेजों, को यहाँ से हटाने में लगाया। ईश्वर के प्रति मैं धन्यवाद से भर गया हूँ। नाभा में सफल होने पर संभव था कि मैं कूप मण्डूक बना रह जाता। इस असफलता ने मेरे लिए सफलता और साधन का नया द्वार खोल दिया-टंडन जी बोले।

अपने कार्य में मिली सफलता-असफलता के प्रति यह सृजनात्मक दृष्टि भर अपनाने से ही वे राजर्षि उपाधि के अधिकारी सिद्ध होते रहे। यह प्रसंग हर उस व्यक्ति के लिए जीवनमुक्ति के समान है, जो प्रगतिपथ पर असफलताओं से जूझते हुए आगे बढ़ना चाहता है।


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