लक्ष्य सिद्धि

October 1994

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आज चरणाद्रि के राजकुमार ऋतक्रथु का समावर्तन संस्कार था। राजकुमार पूरे बारह वर्ष महर्षि भरद्वाज के आश्रम में रहे हैं। बारह वर्ष जटा, वल्कल, एवं मौजी मेखलाधारी ब्रह्मचारी राजकुमार के शरीर पर आज कौशेयवस्त्र तथा रत्नाभरण आये हैं। राजकीय रथ अपने राजकुमार को लेने आया है।

अधीतविद्य राजकुमार ने महर्षि को आग्रहपूर्वक गुरुदक्षिणा दी। आश्रम से विदा होते समय सहाध्यायियों को अंकमाल देकर जब उन्होंने रथ पर चढ़ने से पूर्व महर्षि के चरणों में मस्तक रखा, महर्षि का दाहिना हाथ राजकुमार के मस्तक पर आ गया और उनकी आशीर्वाद वाणी गूँजी “लक्ष्यवेध प्राप्त करो वत्स।”

“लक्ष्यवेध प्राप्त करो?” राजकुमार किंचित चौंके थे। महर्षि की सेवा में रहते हुए अपनी शिक्षा के मध्य उनका बाण कभी लक्ष्च्युत हुआ हो यह उन्हें स्मरण नहीं। अपने सहपाठियों में अकेले वे शब्दबेध कर सकते थे। महर्षि ने स्वयं उनके हस्तलाघव की तथा लक्ष्यवेध की अनेकों बार प्रशंसा की है। ऐसी दशा में महर्षि का यह आशीर्वाद?

राजकुमार विनयशील हैं। वे जानते थे कि देवता परोक्ष प्रिय होते हैं। महर्षि सर्वज्ञ हैं। अपने शिष्य की दैहिक एवं बौद्धिक शक्ति उनसे अज्ञात नहीं है। चलते-चलते उन्होंने यह आशीर्वाद दिया है, इसका अर्थ ही है कि वे नहीं चाहते कि उनसे उनका शिष्य आशीर्वाद का स्पष्टीकरण पूछे। अवश्य इसका कुछ गंभीर तात्पर्य है और महर्षि समझते हैं कि उनका अंतेवासी अपने चिंतन से उस तात्पर्य तक पहुँचने में सक्षम है, चिंतन ही करना चाहिए।

आज समावर्तन का दिन है। चरणाद्रि का उत्तरदायित्व अब राजकुमार के कंधों पर आने वाला है। अतः उन्होंने सोचना प्रारंभ कर दिया कि उनके राज्य का, उनके कुल का लक्ष्य क्या है। ऐसी कौन सी महत्वाकाँक्षा है जिसे उनके पूर्व पुरुष अब तक प्राप्त नहीं कर सके हैं राज्य की सीमा का विस्तार? शत्रु का प्रतिशोध? कोई अपूर्ण कृति? किसी मित्र के उपकार का प्रत्युपकार? अनेक बातें ध्यान में आयीं। राजकुमार अभी अपने राज्य के विषय में अधिक जानते भी कहाँ हैं। वे जब केवल सात वर्ष के थे, महर्षि के आश्रम में आए थे। चरणाद्रि समीप हैं प्रयाग से। आश्रम में अनेक बार राजपुरुष महर्षि के दर्शन करने आते थे, किंतु इस प्रकार प्राप्त विवरण पूर्ण तो नहीं है।

राजसदन लौटने पर जो समारोह होता था, पूरे उत्साह से हुआ। नीतिनिपुण राजकुमार ने राज्य के कार्य सम्हालने प्रारंभ कर दिए। महाराज का, महामंत्री का और प्रजा का सहयोग एवं स्नेह अर्जित करने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा। वृद्ध महाराज ने जब वानप्रस्थ ग्रहण का निश्चय किया, राजकुमार चरणाद्रि के सिंहासन पर अभिषिक्त हुए।

समय किसी की प्रतीक्षा कहाँ करता है। फल लगता है, बढ़ता है, पकता है और टपक पड़ता है। भगवान काल प्रत्येक परिपक्व फल को खा लेते हैं। जो राजकुमार थे, नरेश हुए विवाह किया, संतानें हुई और श्वेतकेश हो गए। चरणाद्रि नरेश ऋतक्रथु को श्वेतकेशों ने काल भगवान का संदेश दिया-”अब यह देह रूपी फल उनका ग्रास बनने के समीप है।”

जिसने बाल्यकाल में संयम का अभ्यास किया हो, यौवन उसे प्रमत्त नहीं कर पाता। उसके भोग धर्म के नियंत्रण में रहते हैं और जब यौवन में भोग उच्छृंखल न बना सकें, वार्धक्य देह की चिंता नहीं दे पाता। जो भोग में संयमित रहा है, क्षीयमाण देह की आसक्ति उसे अपनी शृंखला में घेरने में असमर्थ रहती है।

चरणाद्रि नरेश ने अपने शासनकाल में राज्य की कोई महत्वाकाँक्षा अपूर्ण न रहने दी। अब देह का भोग का मोह उन्हें किसलिए हो सकता था। पुत्र को सिंहासन पर बिठाया, पत्नी का भार पुत्र पर छोड़ा और एकाकी, निराभरण, नंगे पाँव राजसदन से निकल पड़े।

उन्होंने चित्रकूट के दिव्य क्षेत्र में वानप्रस्थ का काल व्यतीत करने का निश्चय किया था। चरणाद्रि से चलते हुए वे प्रयाग आए और त्रिवेणी स्नान करके गुरुदेव के आशीर्वाद की आकाँक्षा उन्हें महर्षि भरद्वाज के आश्रम में ले आयी।

बाल्यकाल का वह गुरुकुल वास। समिधाचन्दन, हवन, अध्ययन के वे पुनीत दिवस। आज फिर देह निराभरण है। मस्तक मुण्डित है। कटि में कौपीन है और हाथ में कमंडलु है। बार-बार लगता है-जैसे वह दिन फिर आ गया है, जब उपनयन संस्कार के पश्चात् वे इस आश्रम में आये थे।

“आज हमारा आतिथ्य स्वीकार करो वत्स।” महर्षि भरद्वाज ने आशीर्वाद के अनंतर अर्घ्य पात्र जब उठाया, बड़ा संकोच, बड़ा विचित्र लगा ऋतक्रथु को। किंतु महर्षि कह रहे थे-” अब न तुम यहाँ के अंतवासी हो और न चरणाद्रि के नरेश। तपोवन को जाते गृहत्यागी वानप्रस्थ का आतिथ्य करना चाहिए मुझ जैसे आश्रमस्थ को।

महर्षि का आदेश टाला नहीं जा सकता था। यह अनुग्रह किया उन्होंने कि अतिथि अर्चन का कार्य अपने छात्रों पर छोड़ दिया। महर्षि की अग्निशाला में रात्रि विश्राम किया ऋतक्रथु ने और प्रातः त्रिवेणी स्नान करके आह्निक कृत्यों की समाप्ति के पश्चात् प्रस्थान से पूर्व जब उन्होंने महर्षि श्रीचरणों में मस्तक रखा, महर्षि का दाहिना हाथ मस्तक पर आ गया। उनकी वही आशीर्वाद वाणी गूँजी-”लक्ष्यवेध प्राप्त करो वत्स।”

ऋतक्रथु फिर चौंके जैसे वर्षों पूर्व समावर्तन संस्कार के दिन वे चौंके थे। महर्षि ने आज भी प्रस्थान के समय वह आशीर्वाद दिया है। अपने शिष्य की प्रजा में उन्हें आज भी उतनी ही आस्था है। उनके आशीर्वाद का तात्पर्य पूरे शासनकाल में भले उनका शिष्य समझ नहीं सका, किंतु सर्वज्ञ महर्षि जब उसे इसे समझने योग्य मानते हैं, समझना ही होगा उसे।

उस समय अधिक अवकाश नहीं था। आज कोई राजस्थ ऋतक्रथु को लेने नहीं आने वाला था। उन्हें पैदल यात्रा करनी थी। अपने अग्नि तथा अग्निहोत्र के उपकरण स्वयं उन्हें ले जाने थे और त्रिकाल संध्या, स्नान, हवनादि करके ही चलना था उन्हें।

चित्रकूट क्षेत्र में उन्होंने गुपत गोदावरी की गुफा को अपना गृह बनाया। आस-पास उस समय न कोई ग्राम था और न आज के समान कुटीरें थीं। घोर वन-वन पशु और बीहड़ प्रदेश। लेकिन गुफा के मध्य से निकलती कलकल करती जलधारा वानप्रस्थ तपस्वी को अग्नि रक्षामात्र के लिए छाया तथा आह्निक निर्वाह के लिए जल का सामीप्य बस इतनी सुविधा ही तो चाहिए।

वन में बिल्ब, आमलकी तथा कुछ कंद मिल जाते हैं उनका संग्रह गुफा में सुरक्षित रहता है। अन्यत्र घास के बीजों की अपेक्षा उन्हें थी नहीं। अग्निहोत्र के अतिरिक्त वे गुफा में जाते नहीं थे। शीतकाल के दिनों में जलधारा गिरने वाले कुँड में वे ध्यानस्थ रहते और ग्रीष्म की लू तथा वर्षा की झाड़ियाँ शिलातल पर बैठे उस तपस का सत्कार करती थीं।

“लक्ष्यवेध प्राप्त हो।” महर्षि भरद्वाज का आशीर्वाद ऋतक्रथु के मनन का सूत्र बन गया था। शस्त्र का त्याग करके वन को प्रस्थान करने वाले तपस्वी को दिया गया यह आशीर्वाद कोई भौतिक लक्ष्यबेध उसका तात्पर्य नहीं हो सकता था यह बहुत स्पष्ट बात थी। ऋतक्रथु को कोई विलंब नहीं हुआ था यह समझने में कि महर्षि का तात्पर्य क्या है?

प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्च्मुच्यते।

यह श्रुति शीघ्र स्मृति में आ गई और उन्होंने यह समझ लिया कि महर्षि ने आशीर्वाद के रूप में उन्हें प्रणव की साधना का आदेश दिया है।

वानप्रस्थ आश्रम की कठोरता लोकविदित है। शरीर रोगी है, देह में तप की, त्रिकाल स्नान की, शक्ति नहीं, किंतु वानप्रस्थ आश्रम में तो नियम त्याग की विधि नहीं है। नियम पालन करो और न कर सको तो अनशन करके या अग्नि में देह की आहुति देकर प्राण त्याग करो। विश्राम, औषधि, तप विरति के लिए कोई स्थान नहीं यहाँ।

ऋतक्रथु ने पूरे बारह वर्ष का नियम लिया था। नियम पूरा हो जाता किंतु प्रारब्ध जब अनुकूल न हो, प्राणी क्या कर सकता है। केवल कुछ ही दिन रहे थे संकल्पित अवधि पूर्ण होने के और देह को ज्वर ने अपना आखेट बना लिया।

लक्ष्यबेध प्राप्त नहीं हुआ। प्राण का मोह तपस्वी को नहीं होता। जीवन रखना वह चाहे, जो देह को भोग दे रहा हो। किंतु ऋतक्रथु को क्लेश यह था कि जीवन का लक्ष्य प्राप्त नहीं हुआ।

महर्षि की वाणी असत्य का स्पर्श नहीं करती, उनका आशीर्वाद व्यर्थ नहीं जा सकता। ऋतक्रथु अभी तक ज्वराक्राँत रहते हुए भी कभी नियम पालन में शिथिल नहीं हुए। आज लगता है कि अब आसन से उठना कदाचित् संभव न हो और इसी से वे विशेष चिंतित हैं। “आज मनोमंथन प्रबल हो उठा है-कहीं त्रुटि है। कहीं प्रमाद हो रहा है गुरुदेव।”

आर्त प्राणी की पुकार यदि व्यर्थ जाने लगे, विश्वात्मा को कौन सर्वज्ञ और सकरुण कहे? साहसी ज्योति आ गई तपस्वी ऋतक्रथु के मुख पर। वे स्वयं बोल उठे-”तू क्षत्रिय है। धनुर्धर रहा है और ज्या चढ़ाए बिना शिथिल धनुष से तू लक्ष्यबेध करने का प्रयत्न कर रहा है? इतनी सीधी बात तेरी समझ में नहीं आती कि ज्यों पहले चढ़नी चाहिए।”

प्रणव का धनुष। अकार, उकार, मकार इनका एकी भाव ‘प्रणव।’ अकार और मकार इस धनुष की दो नोंके और उकार इसकी प्रत्युच्चा। अकार से उठकर मकार तक पहुँचने में उकार को खींचकर उठाए चलती प्राणों की प्रत्यंचा यदि शिथिल हो प्रणव की साधना सम्यक् पूर्ण कहाँ हुई।

ऋतक्रथु तपस्वी, त्यागी, वासना वर्जित, शम्, दम्, उपरति, तितिक्षा संपन्न श्रेष्ठतम अधिकारी हैं। उनके चित्त में मल तो तब भी नहीं था जब वे तपोवन आये थे। पूरे बारह वर्ष होने को आ रहे हैं। विक्षेप क्या होता है? उनका मन यह बात भी भूल चुका है। अब ऐसे अधिकारी का आवरण कब तक टिका रह सकता है।

बात ध्यान में आती नहीं, विलंब इतना ही था। शरीर कुछ और सीधा हो गया। मूलाधार से उठकर मूर्छा तक गूँजता दीर्घ घंटा नाद के समान प्रणव का नाद प्राणों ने उठाया उसे प्रथम यह ठीक है, किंतु आवृत्ति दस तक पहुँचे उससे पूर्व ही वह अनाहत मेघगर्जन से एक हो गया। नाद केवल नाद। त्रिमात्रा नाद में लीन हो गयी और चन्द्राकार अमृतोज्वल दिव्यनाद चलता रहा। चलता रहा नाद और कब बिंदु में वह लय हुआ कोई साक्षी पृथक् रह गया हो तो वह बतावे।

स्थिर निष्कंप, प्रकाशपुँज देह ऋतक्रथु। जिसका बिंदुबेध-लक्ष्यवेध हो चुका, उससे कौन कहेगा कि अब स्नान, संध्या का समय हो चुका। उसके लिए तो श्रुति ने भी घोषणा कर रखी है -

न तस्य कार्यं कारणं च विद्यते।


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