जगदंबे! अंतिम प्रणाम, सुमनों का अंगीकार करो। अपने इन मानस-पुत्रों की, श्रद्धाँजलि स्वीकार करो॥
तुमने अपनी पलकों से, ममता के सिंधु उड़ेले थे। जिसकी पावन लहरों में, हम सब हँस-हँसकर खेले थे॥
सद्गुण विकसे पर्वत-पर्वत, मैदानों-मैदानों में। बादल बन-बनकर करुणा, बरसी थी रेगिस्तानों में॥
उठो चिता से, स्नेह-सिक्त, वाणी की फिर बौछार करो। अपने इन मानस-पुत्रों की, श्रद्धाँजलि स्वीकार करो॥
मानवता की बगिया सींची, अमृत से उपदेशों के। दौड़-दौड़ कर बालक आये, देशों और प्रदेशों के॥
शिवा-सरीखे दिये सुवन, संस्कृति की रक्षा करने को। शक्ति रूप बनकर उतरी थीं, जग की पीड़ा हरने को॥
दुर्व्यसनों के खड़े राक्षस, उठकर वज्र-प्रहार करो। अपने इन मानस-पुत्रों की, श्रद्धाँजलि स्वीकार करो॥
जीवन-सागर मथकर जो, अनुभव के रत्न निकाले थे। वे देवों के चौदह रत्नों, से भी अधिक निराले थे॥
परमपूज्य के साथ रहीं तुम, हर पल मैत्रेयी बनकर। गायत्री माँ की अनुजा-सी, मुसकाती बैठीं घर-घर॥
फिर होकर साकार हमें, पुचकारो और दुलार करो। अपने इन मानस-पुत्रों की, श्रद्धाँजलि स्वीकार करो॥
शाँतिकुँज के कण-कण का, मन डूबा है दृग के जल में। भावुकता-विह्वलता बनकर, उमड़ रही है पल-पल में॥
संयम, निस्पृहता की जैसे, शिक्षायें बेकार हुईं। आज तुम्हारे बिन इनकी, परिभाषायें लाचार हुईं॥
तुम्हीं अधीरों को धीरज दो, और एक उपकार करो। अपने इन मानस-पुत्रों की, श्रद्धाँजलि स्वीकार करो॥
हम देखेंगे, जननि नित्य ही, तुम्हें सूर्य की लाली में। तम को दूर भगाने वाली, पूनम की उजियाली में॥
कर-तल का सु-स्पर्श मिलेगा, शीतल, मंद हवाओं में। पायेंगे मातृत्व तुम्हारा, हर पल दसों दिशाओं में॥
बनो प्रेरणा शक्ति हृदय की, हम सब का उद्धार करो। अपने इन मानस पुत्रों की, श्रद्धाँजलि स्वीकार करो॥
तुमने जो पथ दिखलाया, हम उसे कदापि न छोड़ेंगे। शपथ उठाते हैं, कर्तव्यों से, न कभी मुँह मोड़ेंगे॥
सत्कर्मों की सद्विचार की, भागीरथी बहायेंगे। एक दिवस, देखना, स्वर्ग हम, इस धरती पर लायेंगे॥
दो हमको आशीर्वाद माँ, आत्म-शक्ति संचार करो। अपने इस मानस पुत्रों की, श्रद्धाँजलि स्वीकार करो॥
-देवेन्द्र कुमार ‘देव’