विशेष लेख-1युग निर्माण प्रक्रिया के द्वितीय अध्याय का समापन - स्नेह सलिला परम वंदनीया माताजी अपनी इष्ट आराध्य

October 1994

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भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धाविश्वास रुपिणौ। याभ्याँ बिना न पश्यंति सिद्धाः स्वाँतस्यमीश्वरम्॥

इस प्रार्थना के साथ गोस्वामी तुलसीदास जी अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित कर अपने रामचरित मानस का शुभारंभ करते हैं। वह ऐतिहासिक कृति जिसने घर-घर श्रीराम कथा को पहुँचा दिया, अपने आप में एक ऐसा ग्रंथ महाकाव्य है जो हमें जीवन जीने की कला के विभिन्न आयामों का बहुविधि शिक्षण देता है। भवानी अर्थात् पार्वती जहाँ श्रद्धा है, वहाँ औघड़दानी शंभू “विश्वास” का रूप हैं। श्रद्धा-विश्वास के युग्म के बिना किसी की जीवन यात्रा चल नहीं सकती, चाहे वह एक ब्रह्मचारी हो, साधक हो, गृहस्थ हो, आयु के तीसरे चरण में प्रवेश कर रहा वानप्रस्थ हो अथवा परिव्राजक परंपरा पर चल रहा एक धर्म-परायण व्यक्ति हो। शिव व पार्वती जहाँ अति उच्चस्तरीय साधना को जीवन में अंगीकार कर औरों को उस पथ पर चलने का शिक्षण देने वाले शिव अर्थात् कल्याण तथा पार्वती अर्थात् शक्ति। वह कल्याणकारी शक्ति जिसके अवलंबन के बिना जीवन अधूरा है, दंपत्ति युग्म है, वहाँ वे प्रत्येक साधक स्तर का जीवन जीने वाले सिद्धि-भौतिक ऐश्वर्य-कीर्ति-ब्रह्मवर्चस् की प्राप्ति के इच्छुक हर गृहस्थ के लिए एक प्रेरणा स्रोत भी है।

हम सबके लिए जहाँ परमपूज्य गुरुदेव शक्ति के साथ चलने वाली “शिव” कल्याणकारी सामर्थ्य के “विश्वास” के परिचायक हैं, वहाँ परम वंदनीया माताजी उस आद्यशक्ति “पार्वती” की जो “श्रद्धा” रूपेण है, जिसके बिना जीवन संवेदनहीन श्रीहीन, शक्तिहीन, तेजस् रहित है, उसकी द्योतक है। बिना विश्वास के श्रद्धा अधूरी है तथा बिना श्रद्धा के मात्र विश्वास बिना किसी ठोस आधार पर टिका एक छलावा है। दोनों मिलकर एक दूसरे को परिपूर्ण बनाते हैं। दोनों का जीवन शिव-पार्वती के युग्म के रूप में देखा जा सकता है, जो सप्त-सरोवर समान पुण्य तीर्थ में कैलाश समान शाँतिकुँज में निवास कर करोड़ों के हृदय में श्रद्धा व विश्वास का अभिसिंचन करता रहा स्नेह की गंगोत्री प्रवाहित कर संवेदना के मानसरोवर में स्नान करा उन्हें सतत् हंस वृत्ति अपनाने की प्रेरणा देता रहा-उनमें देवत्व का संचार करता रहा।

पार्थिव देह का परित्याग कर अपने इष्ट-आराध्य के साथ एकाकार होने को आतुर हमारी मातृसत्ता 19 सितंबर महालय श्राद्धारंभ के दिन भाद्रपद पूर्णिमा की पुण्य वेला में पूर्वाह्न 11.50 पर महाप्रयाण कर गयीं, किंतु सजल श्रद्धारूपी वह सत्ता हमें एक विश्वास दिला गयी है कि शिव व शक्ति का संरक्षण उसे सतत् मिलता रहेगा, यदि हमारी निष्ठा उनके आदर्शों पर, कर्तृत्व पर यथावत् टिकी रही। स्थूल शरीर का अपनों के बीच न होना हर किसी के लिए दुखदायी है, विशेषतः उस दैवी स्वरूपा मातृ शक्ति ने ढेरों व्यक्तियों पर प्यार उड़ेलकर उन्हें एक सूत्र में पिरो दिया, एक माला बनाकर उसे गायत्री परिवार का रूप दे दिया। परम पूज्य गुरुदेव ने सतत् अपनी लेखनी द्वारा वह तथ्य लिखा है कि सजल श्रद्धारूपी माताजी उनकी जीवन यात्रा का एक ऐसा आधार स्तंभ है, जिसके अभाव में वे इतना बड़ा संगठन खड़ा नहीं कर सकते थे। अपनी मथुरा से विदाई की पूर्व वेला में मई 1971 की अखण्ड ज्योति में परम वंदनीया माताजी के संबंध में पूज्यवर ने लिखा है कि “यों वे रिश्ते में हमारी धर्मपत्नी लगती हैं, पर वस्तुतः वे अन्य सभी की तरह हमें भी माता की भाँति दुलारती रही हैं। उनमें मातृत्व की इतनी उदात्त गरिमा भरी पड़ी है कि अपने वर्तमान परिवार को भरपूर स्नेह दे सकें। हमारा अभाव में कोई भी पौधा सूखने-कुम्हलाने न पाये, यह भार उन्हीं के कंधों पर डाल दिया गया है। बाप के मर जाने पर माँ मेहनत-मजदूरी करके भी बच्चों को पाल लेती है, पर माँ के न रहने पर बाप के लिए वह भार कठिन हो जाता है। हमारा न रहना परिजनों को कुछ ही समय अखरेगा। पीछे वे अपने आप को अभावग्रस्त या असुरक्षित अनुभव न करेंगे। माताजी का प्यार और प्रकाश उन्हें समुचित मात्रा में मिलता रहेगा........।” “उन्हें हमारी तरह अधिक बातें करना नहीं आता, पर आत्मिक गुणों की दृष्टि से वे हम से कुछ आगे हैं, पीछे नहीं। परिवार को प्यार और प्रकाश देने की जिम्मेदारी उन पर छोड़कर हम एक प्रकार से निश्चिंत हैं।”

उपरोक्त पंक्तियाँ तब की हैं, जब पूज्यवर अपने जीवन के चौथे सोपान में कठोर तप हेतु पहले एक वर्ष की हिमालय यात्रा तथा फिर परोक्ष मार्गदर्शन हेतु शाँतिकुँज में स्थायी रूप से रहकर प्राण प्रत्यावर्तन ऋषि परंपरा का बीजारोपण आदि की भूमिका बना रहे थे। 1971 ये बाद आज चौबीस वर्ष होने को आये, वह स्नेह गंगोत्री सतत् निर्मल, निर्झर की तरह बरसती रही। प्रत्यक्ष न दिखाई पड़ने पर भी पूज्यवर के दर्शन की कमी किसी को खली नहीं, सभी परम वंदनीया माताजी का प्यार पाकर मधुमक्खी के छत्ते में रानी मक्खी के चारों ओर एकत्रित समुदाय की तरह गायत्री परिवार के एक घटक बनते चले गये व एक विशाल परिवार जिसे प्रायः 5 से 10 लाख की संख्या में पूज्यवर आज से 24 वर्ष पूर्व छोड़ गये थे, सौ गुना कर परम वंदनीया माता जी ने भी हम सबसे मुँह मोड़ लिया। स्थूल काया का परित्याग कर स्वयं को पूज्यवर की सत्ता से एकाकार कर लिया। कैसे विश्वास करें इस तथ्य पर कि वे अब नहीं हैं? कौन बागडोर थामेगा, परिवार में स्नेह बाँटने की? कौन रोतों के आँसू पोंछेगा तथा कौन कहेगा कि “और कोई हो न हो पर मैं तुम्हारा/तुम्हारी हूँ?” यह प्रश्न अगणित परिजनों के मनों में उठ रहे होंगे।

इन पंक्तियों का लेखक जिसे उनके अगाध स्नेह का पयपान करने का अवसर मिला तथा उनके जीवनकाल के उत्तरार्ध की पाँच माह की अवधि में बड़ी समीपता से उन्हें देखने-समझने उनकी सेवा-सुश्रूषा का अवसर मिला, कुछ इस संबंध में सभी परिजनों को आश्वस्त करने की इच्छा रखता है। परम पूज्य गुरुदेव व वंदनीया माता जी के मध्य कैसा अविच्छिन्न संबंध था-कितना पारस्परिक तालमेल व एक-दूसरे के लिए समर्पण था, जिसे शब्दों में अभिव्यक्त करना हमारे लिए संभव नहीं। दोनों एक दूसरे के पूरक थे। जहाँ गुरुदेव जीवन के हर पक्षों में कार्यकर्ताओं द्वारा व्यावहारिक भूलों के संबंध में कड़ा रुख अपनाते थे, वहाँ परमवंदनीया माताजी उन सभी को प्यार का मलहम लगाकर पूज्यवर के बताये मार्ग पर चलने की सतत् प्रेरणा देती रहती थीं। बालक की तरह सरल हृदय वाले पूज्यवर स्पष्ट रूप में अपनी बात सामने वाले के समक्ष रख देते थे, वहाँ परम वंदनीया माताजी प्यार की डोर थामे अपने वात्सल्य से उसके अंतःस्तल की चिकित्सा करती थी। महाप्रयाण के पूर्व उनने उपस्थित परिजनों से, जिनमें श्री बलरामसिंह परिहार, श्री वीरेश्वर उपाध्याय, श्री गौरीशंकर शर्मा, शैलवाला पण्डया, श्री मृत्युँजय शर्मा एवं इन पंक्तियों का लेखक सम्मिलित था, एक ही बात कही कि “निरंतर प्यार-ममत्व बाँट कर ही हमने यह संगठन खड़ा किया था। तुम सब इसी जिम्मेदारी को निभाना। मिशन का भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल है। मुझे अपने पुत्र-पुत्रियों पर पूरा विश्वास है कि वे स्नेह की डोर में परस्पर बँधे इस मिशन के संस्थापकों व दैवी संचालन तंत्र के नियामक ऋषिगणों द्वारा निर्धारित लक्ष्य को अवश्य पूरा करेंगे। सूक्ष्म शरीर धारण कर पूज्यवर की सत्ता से एकाकार हो मैं सूक्ष्म रूप में और भी निकट अपने परिजनों की दैनन्दिन समस्याओं से लेकर विश्व स्तर की विषम विभीषिकाओं से मोर्चा लेने का कार्य कर सकूँगी। अगस्त 1994 की अखण्ड-ज्योति का विशेष संदेश पढ़कर परिजनों ने परम वंदनीया माताजी के मन में क्या ऊहापोह चल रहा है, इसका एक अनुमान तो लगा लिया था, पर किसी की लीला संदोह के एकाएक इस तरह पर्दा गिरने की तरह पटाक्षेप होने का अनुमान संभवतः नहीं होगा किंतु हमें था। होते हुए भी किसी को बता पाना संभव नहीं था कि यह कब होगा?

पूज्यवर ने 2 जून 1990 को अपने महाप्रयाण से पूर्व कहा था कि “मेरी व माताजी की सत्ता अर्द्धनारी नरेश्वर के रूप में है। मेरे बिना वे चार वर्ष से अधिक नहीं रह पायेंगी। अधिकतम चार वर्ष किंतु इस अवधि में वे इतना कुछ कर जायेंगी, जो तुम्हारे कंधे सशक्त करने योग्य होगा, तुम्हें अपने पैरों पर खड़ा कर देगा तथा इस मिशन की जड़ें इतनी मजबूत कर देगा कि हजारों वर्षों तक कोई इसे हिला न सके।” यह बात तब सतत् याद आने लगी थी, जब अप्रैल माह में चित्रकूट अश्वमेध के बाद परम वंदनीया माताजी कहने लगी थीं कि “अब मुझे इष्ट के पास जाना है, अपने आराध्य से मिलना है-करोड़ों बच्चों तक अब उन्हीं के साथ-साथ पहुँचना है यह स्थूल काया का जर्जर बंधन तोड़ना है।” हम नादान इस बात को समझ नहीं पाते थे व बार-बार कहते थे कि अभी तो आपको आँवलखेड़ा की अर्द्ध-पूर्णाहुति संपन्न करना है। आपको हमें सन् 2001 तक लेकर चलना है-यही पूज्यवर का लिखित में “अखण्ड-ज्योति” पत्रिका में वादा है, आप इस तरह हमें छोड़कर नहीं जा सकतीं, अभी हमारे कंधे इतने मजबूत नहीं हुए हैं कि हम इतने बड़े मिशन की बागडोर सम्हाल सकें, इत्यादि। हमें क्या मालूम था कि जानबूझकर ओढ़ी गई अशक्तता उनकी अपनी आराध्य से मिलने की आतुरता ही थी, पूर्व नियोजित थी तथा विधि व्यवस्था के अंतर्गत थी, किंतु गायत्री जयंती 19 जून 1994 के बाद लगने लगा था कि अब के बाद का प्रत्येक दिन एक प्रकार से पूज्यवर द्वारा दिया गया एक्सटेंशन है, बोनस का दिन है तथा कभी भी वे इस लीला संदोह का समापन कर सकती थीं। हम नहीं जानते थे कि यह कब होगा व कैसे होगा? परंतु मानवी स्तर पर जो भी संभव था, वह किया गया। जो भी कुछ पुरुषार्थ हो सकता था, उसमें कोई कमी नहीं रखी गई व जब भाद्रपद पूर्णिमा को प्रातः 11:40 की पुण्य वेला आयी तो मात्र 10 मिनट में वह सब हो गया जो पूरे गायत्री परिवार के लिए एक वज्राघात के समान था। एक शिष्या अपने आराध्य गुरुसत्ता इष्ट के साथ एकाकार हो गयी। एक महाशक्ति ने परम शक्ति के साथ अपनी ज्योति विलीन कर ली व युग निर्माण के इस द्वितीय अध्याय का समापन हो गया। ऐसी विलक्षण दिव्य अनुभूति उस समय में हुई थी। कि पूज्यवर प्रत्यक्ष दिखाई पड़े। उनमें परम वंदनीया माताजी के शरीर को अपनी गोद में उठाकर कहा कि मैं इन्हें ले जा रहा हूँ। तुम कदापि शोक न करना। अब मैं व ये हम दोनों, और भी घनीभूत ऊर्जा पुँज के रूप में पूरे शाँतिकुँज तथा समष्टि में संव्याप्त हो प्रत्येक को शक्ति देंगे। कोई भी कृत्रिम उपचार कर इनके शरीर को कोई कष्ट न देना। तुम एक विशेषज्ञ चिकित्सक हो, पर अब इन्हें चिकित्सक की नहीं, मेरी जरूरत है, मैं इन्हें ले जा रहा हूँ।”

बस इतना हुआ व दोनों देखते-देखते अंतर्धान हो गये। रह गयी वह पार्थिव देह, जिसने अपने हाथों के प्यार भरे स्पर्श से सिर पर हाथ फिराया था, अपने हाथों से भोजन कराया था व प्यार की घूँटी पिला-पिला कर अपना अंतरंग अवयव बना लिया था। पाठकगण विश्वास करें कि उस पल से ही शोक-संताप-दाह-तपन सब शाँत हो गयी व न जाने कहाँ से वह शक्ति आ गयी, जिससे औरों के मनोबल को बढ़ाया ज सका-संबल दिया जा सका-रोतों के आँसू पोंछे जा सके। जाते-जाते पूज्यवर हमसे आश्वासन पुनः दुहरवाते चले गये कि प्यार बाँटकर, आत्मीयता का विस्तार कर ममत्व की डोरी में इस संगठन को बाँधे रहना। यही हमारी एकमात्र निधि-पूँजी जीवन भर रही, इसी पर माताजी ने यह भवन खड़ा किया। यही हमारी विरासत है। यही आश्वासन हम पुनः इन पंक्तियों के माध्यम से अपने लाखों परिजनों, गुरु-भाइयों व बहिनों तक पहुँचाते हैं कि उस प्यार में कहीं कोई कमी कभी आयेगी नहीं। किसी को उस रूप में ऋषि युग्म का अभाव खलेगा नहीं।

चिड़िया जब अपने बच्चों को उड़ना सिखाती है तो उन्हें सही समय आने पर अपने घोंसले से उठाकर पंखों पर बैठाती है व ऊपर हवा में उड़ते-उड़ते गिरा देती है। बच्चे को लगता है कि मेरी माँ कितनी निर्दयी है-संवेदनहीन है कि मुझे नीचे गिरा कर मेरी जीवन-लीला ही समाप्त कर रही है, किंतु जान बचाने की यह छटपटाहट ही उसे पंख फड़फड़ाकर उड़ना सिखा देती है व वह क्रमशः अपनी माँ की तरह ही उड़ने लगता है। तैराकी सिखाने वाले अपने चेलों को पूरा पाठ पढ़ाने के बाद जब देखते हैं कि इसमें पानी में घुसने में भी भय लग रहा है, बार-बार मेरे आश्रय-अवलंबन की इसे आवश्यकता लग रही है, तो वह एक धक्के से उन्हें पानी में धकेल देता है। देखते-देखते हाथ-पाँव मारते-मारते वह तैरना सीख जाता है। वह बात अलग है कि उस समय वह मन में भाव यही रखता है कि कितनी क्रूरता से मेरे मास्टर ने मुझे पानी में धकेल दिया। यह भी न सोचा कि मैं डूब जाऊँगा। किंतु नहीं, ऐसा नहीं होता एवं वह तैरना सीख जाता है। मित्रों! आपको व हमें हवा में उड़ना व पानी में तैरना सिखाने के लिए-समाज परिकर में संव्याप्त अनीति से नैतिक-बौद्धिक-सामाजिक मोर्चे के स्तर पर जूझने के लिए ही यह एक झटका दिया गया है। यह क्रूरतापूर्वक उठाया गया कदम नहीं, अपितु लीला पुरुषों का सुनियोजित उपक्रम है एवं हम सभी इस महाप्रयाण की दुःखद वेला में उबरकर और शक्तिशाली बनकर सूक्ष्म में संव्याप्त ऋषि-युग्म की प्राण ऊर्जा के सहारे आने वाले 7 वर्षों में वह सब करके दिखा देंगे जिसकी कि उनने हमेशा अपेक्षा की है। 600 करोड़ व्यक्तियों के भाग्य को बदलना, उनके आत्मोत्थान का पथ प्रशस्त करना तथा जन-जन के मन को भावनात्मक परिष्कार की प्रक्रिया से संस्कार परिवर्तन से बदलकर नवयुग की आधारशिला रखने का दायित्व इसी मिशन के जिम्मे महाकाल ने सौंपा है वह वह निश्चित रूप से पूरा होकर रहेगा, इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।


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