कैसे नकारेंगे आप पुनर्जन्म को?

October 1994

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देवसंस्कृति में आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म की सुनिश्चितता को आरंभ से ही मान्यता प्राप्त है, किंतु ईसाई एवं इस्लाम धर्मों में मान्यतायें पृथक् हैं। उनमें मरणोत्तर जीवन का अस्तित्व तो माना जाता है, पर कहा जाता है कि वह प्रसुप्त स्थिति में बना रहता है। महाप्रलय के उपराँत पुनः जीवन मिलने की बात उनके यहाँ कही गयी है, किंतु विज्ञान और बुद्धिवाद ने जो नवीन जीवन दृष्टि प्रदान की है उससे पुनर्जन्म सिद्ध होता है। परामनोविज्ञान की एक शाखा के अंतर्गत आज ऐसे अनेकों प्रमाण एकत्रित किये जा चुके हैं जिनसे मनुष्यों के पुनर्जन्म होने के प्रमाण मिलते हैं। ऐसे अन्वेषणों में प्रो॰ राइन एवं एडगर केसी की खोजें विस्तृत एवं प्रामाणिक मानी गयी हैं। उनके आधार पर अन्यत्र भी इस दिशा में बहुत सी जाँच पड़ताल हुई हैं। इस खोजबीन से यह मान्यता और अधिक पुष्ट होती है कि आत्मा का अस्तित्व मरने के बाद भी बना रहता है और उसका पुनर्जन्म होता है।

शरीर के न रहने पर आत्मा का अस्तित्व बने रहने के बारे में जिन पाश्चात्य दार्शनिकों और तत्वेत्ताओं ने और अधिक स्पष्ट समर्थन किया है उनमें राल्फवाल्डो ट्राइन, मिडनी फ्लावर, एला ह्नीलर, विलियम वाकर, एटकिंसन, जेम्स केनी आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। पुराने विख्यात दार्शनिकों में कार्लाइल, इमर्सन, काष्ट, हीगल, थामस, हिलमैन, डाटसन आदि का भी मत इसी प्रकार का था। डेस्कार्ट आत्मा को पीनियल ग्रंथि में मस्तिष्क में अवस्थित मानते थे तथा मृत्यु के बाद नयी काया में अवतरित होने की मान्यता के समर्थक थे। गत शताब्दी के पाश्चात्य वैज्ञानिक आत्मा के अस्तित्व को जितना नकारते थे, अब वे उतने कट्टर नहीं रहे। वे भी मानने लगे हैं कि मरण थकान की परिणति है। थकान मिटते ही पुनर्जीवन का सिलसिला पुनः प्रारंभ हो जाता है।

पुनर्जन्म की घटनाओं को विज्ञान की भाषा में ‘पैरानार्मल फिनामिना’ भी कहा जाता है। पाश्चात्य वैज्ञानिकों में जिनने इस संदर्भ में गंभीरतापूर्वक अनुसंधान किये और प्रमाण जुटाये हैं, उनमें से प्रमुख हैं-सर विलियम वारनेट, सरओलिवर लाज, सर विलियम कुक, अल्फ्रेड रसेल वालेस एवं डॉ॰ ईवान स्टीवेन्सन। वर्जीनिया विश्व विद्यालय-यू॰ एस॰ ए॰ में मनश्चिकित्सा विभाग के संचालक डा॰ ईवान स्टीवेन्सन ने तो विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से पुनर्जन्म की लगभग 600 घटनायें एकत्रित कीं जिनमें अधिकतर भारत और लेबनान की हैं। पुनर्जन्म को उनने आत्मा के चिरस्थायी अस्तित्व का अच्छा प्रमाण माना है और भारत को इस शोध कार्य के लिए विशेष रूप से उपयुक्त पाया है। कारण कि भारतीय संस्कृति में आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म की मान्यता पर वैदिक काल से ही दृढ़ आस्था रही है, इसलिए पिछले जन्म की स्मृतियाँ बताने वाले बच्चों की बातें यहाँ दिलचस्पी से सुनी जाती हैं और उससे प्रामाणिक तथ्य उभर कर सामने आते रहते हैं। अन्य देशों में यह स्थिति नहीं है। यदि वहाँ कोई बालक इस तरह की बातें करे तो उसे शैतान का प्रकोप समझ कर डरा-धमका दिया जाता है। जिससे उभरते तथ्य समाप्त हो जाते हैं।

डा॰ स्टीवेन्सन ने जिन व्यक्तियों के उनके पूर्वजन्मों के अनुभव एकत्रित किये हैं, इनमें बड़ी आयु के लोग बहुत कम हैं। अधिकाँश तीन से लेकर पाँच साल तक के बच्चे हैं। नवोदित कोमल मस्तिष्क पर पुनर्जन्म की छाया अधिक स्पष्ट रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ वर्तमान जन्म की जानकारियाँ इतनी अधिक लद जाती हैं कि उस दबाव से पिछले स्मरण विस्मृति के गर्त में चले जाते हैं। इस संदर्भ में भारत से संबंधित कई प्रामाणिक घटनाओं का उनने अपनी कृतियों में उल्लेख किया है।

पश्चिम-बंगाल के कंपा गाँव की एक घटना का वर्णन करते हुए उनने लिखा है कि इस गाँव के श्री के. एन. सेन गुप्ता के यहाँ सन् 1954 में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया-शकुला। जब वह बोलने लायक हुई तो अचानक ही उसके मुँह से ‘मीनू’ की आवाज प्रस्फुटित होने लगी। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गयी, पूछने पर मीनू के बारे में वह विस्तृत ब्यौरा देने लगी। मीनू को उसने अपनी पुत्री बताया। इतना ही नहीं वह अपने पिछले जन्म के पति, बच्चों तथा घर-परिवार के बारे में सभी बातें बताने लगी। उसने बताया कि पूर्वजन्म में उसका पालन ब्राह्मण कुल में पं. अमृतलाला चक्रवर्ती के यहाँ हुआ था। खोजबीन करने पर उसके सभी कथन सत्य पाये गये। इसी तरह सन् 1937 में दिल्ली की चारी वर्षीय एक हिन्दू कन्या शाँति ने पूर्वजन्म के वृत्तांत को स्पष्ट प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया है। वह पहले जन्म में चौबे कुल में जन्मी थी। उसके पति पं. केदारनाथ चौबे मथुरा में कपड़ा व्यवसायी थे उसने मथुरा का पता जब लोगों को बताया तो पं. केदारनाथ को दिल्ली सादर आमंत्रित किया गया। वह दूसरी शादी भी कर चुके थे। जैसे ही शाँति ने उन्हें देखा तो तुरंत पहचान लिया।

बिसौली उत्तर प्रदेश में प्रवक्ता श्री बाँकेलाल शर्मा के पुत्र प्रमोद कुमार का जन्म 11 अक्टूबर 1944 को हुआ। ढाई वर्षीय प्रमोद ने एक दिन अचानक ही अपनी माँ को भोजन बनाने से मना कर दिया और कहा-यह काम तो मेरी पत्नी का है जो मुरादाबाद में रहती है। कुछ दिन पश्चात् उसने मुरादाबाद स्थित अपनी सोडा और बिस्किट की दुकान की चर्चा की। एक अन्य दुकान मोहनब्रदर्स के नाम से सहारनपुर में बतायी। उसने अपनी मृत्यु का कारण भी बताया कि किस प्रकार अत्यधिक मात्रा में दही खा जाने के कारण उसे अपनी जान गँवानी पड़ी थी। जब प्रमोद को बिसौली से मुरादाबाद और सहारनपुर में मेहरा परिवार के पास लाया गया तो उसने वहाँ के सभी निवासियों को अच्छी तरह पहचाना ही नहीं, वरन् उनका नाम लेकर भी पुकारा। अपने रहन-सहन के तौर-तरीकों से भी उन्हें अवगत कराया। इस पर जाँच-पड़ताल कर रहे वैज्ञानिक दल एवं मेहरा परिवार को यह समझते देर नहीं लगी कि निश्चित ही यह मामला पुनर्जन्म का है और यह वही परमानंद मेहरा है जो गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल एवं एपेण्डीसाइटिस रोग से ग्रसित होकर मृत्यु को प्राप्त हुआ था। उसकी मृत्यु के ठीक सात माह पश्चात् ही प्रमोद का जन्म हुआ। परमानंद मेहरा अपने व्यवसाय का संस्थापक और प्रबंधक था। अपने पीछे वह पत्नी, चार पुत्र और एक पुत्री छोड़ गया था। प्रमोद ने जब उनसे बात की तो उसके पूर्व परिवारजनों की खुशी का कोई ठिकाना न रहा।

“रिइन्कानेशल” नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में मूर्धन्य मनोवेत्ता विलियम वाकर एटकेन्सन ने ऐसी बहुत सी घटनाओं का वर्णन किया है जो पुनर्जन्म के साथ-साथ जीवात्मा की इच्छा शक्ति की प्रबलता को प्रमाणित करती हैं। टोकियो जापान के प्रख्यात जनमत एवं अध्यातमवेत्ता रस्याओकोवासूटानी ने अपनी कृति दि मिस्ट्री आफ पुनर्जन्म का अनेक प्रामाणिक घटनाओं का विस्तृत रूप से वर्णन किया है और ऐसे तर्क-तथ्य एवं प्रमाण दिये हैं कि पुनर्जन्म के सिद्धाँत की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उक्त पुस्तक का उपनाम “देन एक्सपैरीमेन्टल रिकार्ड आफ रिवर्थ आफ हूमेन बीइंग” है। इसमें उन्होंने जापान की प्रसिद्ध पुस्तक “यामूटानीन” में भी बहुत कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, किंतु उस सबसे अच्छी और प्रामाणिक एक घटना इस प्रकार है-

टोकियो शहर के सुगीनामी नामक स्थान में माटशुटारो नाम का अड़तालीस वर्षीय एक धनी व्यक्ति रहता था। 10 अक्टूबर 1935 में उसकी मृत्यु हो गयी। हैइजाबूरोकजिको उसका बहुत ही घनिष्ठ मित्र था। अपने इस बौद्ध मित्र से माटशूटरा प्रायः कहा करता था कि यदि मैं मर जाऊँ तो मेरे शरीर की रक्षा करना और अच्छी तरह दफनाना, क्योंकि यहाँ मेरा कोई रिश्तेदार नहीं है। कुछ समय बाद जब वह मर गया तो बौद्ध मित्र ने उसके पुनर्जन्म लेने की परीक्षा ली। इस प्रक्रिया में मृतक शरीर पर अभिमंत्रित जल का छिड़काव किया जाता है और प्रार्थना की जाती है। पुनः जन्म लेगा या नहीं इसको परखने के एक प्रकार की स्याही का उपयोग किया जाता है और मृतक के पैर पर उससे उसका नाम और पता लिखा जाता है। साथ ही एक बौद्ध सूत्र भी लिख दिया जाता है और तब अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। उसके अंतिम संस्कार में भी काफी लोग आये और बड़ी धूमधाम से काम समाप्त हुआ।

तीन वर्ष बाद 15 अक्टूबर 1938 को रात्रि के समय एक सिपाही आया और यामजिकी को बताया कि उसके यहाँ एक शिशु ने जन्म लिया है जिसके कंधे पर “माटशूटरो” शब्द अंकित है साथ ही उसका पता एवं एक मंत्र ओर ‘यामजिकी’ शब्द लिखा है। इसे हटाने-मिटाने के लिए उसने प्रार्थनायें की, धार्मिक कर्मकाण्ड एवं पूजन किये, किंतु वे जन्मजात चिह्न नहीं मिटे। इससे वह परेशान रहने लगा। एक दिन स्वप्न में उसे संकेत मिले कि जिस आदमी ने यह लिखा है वही ठीक कर सकता है। सिपाही की याचना पर यामजिकी बच्चे को लेकर माटशूटरो की कब्र पर गया, और अपने बच्चे को बैठाकर कुछ मंत्र पढ़े, प्रार्थनायें कीं तथा अभिमंत्रित जल से अंकित अक्षरों पर रुई के फाहे से पानी लगाया। उपस्थित लोगों के आश्चर्य का तब ठिकाना नहीं रहा जब उनने देखा कि अब एक चिह्न भी बाकी नहीं था। इस घटना ने मस्तिष्कों को भी सोचने के लिए विवश कर दिया कि शरीर के न रहने पर भी जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है और कर्मफल के सुनिश्चित विधान के अनुरूप उसे नया जन्म धारण करना पड़ता है। जापानी भी भारतीयों की तरह ही पुनर्जन्म एवं कर्मफल की सुनिश्चितता पर विश्वास करते हैं।

इसी तरह जापान के मूर्धन्य अध्यात्मवेत्ता एवं दर्शनशास्त्री शूटन कोडशी एवं टामोकीची स्मृताई में अपनी खोजपूर्ण कृतियों, यथा-”पैगनामल पावर” में पुनर्जन्म संबंधी अनेक प्रामाणिक घटनाओं का उल्लेख किया है। “रिवर्थ आफ कटशूगोरो” नामक अपने प्रसिद्ध ग्रंथ में मनोवेत्ता लाफकाडियो हियरन ने मरणोपराँत दोबारा जन्म लेने का प्रामाणिक उदाहरण प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार टोकियो प्राँत के मुशाशी क्षेत्र में सन् 1825 में एक किसान दंपत्ति के यहाँ दूसरे बच्चे का जन्म हुआ। नाम रखा गया ‘जेनजो’। जब वह कुछ बड़ा हुआ तो उसने बताया कि वह टोकियो के ही दूसरे गाँव ‘होडोक्य्रवो’ का रहने वाला है जो ‘तामा एरिया’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसने अपने पिता का नाम क्यूहेड बतलाया और कहा कि जब वह 6 वर्ष का था तो चेचक निकलने से उसकी मृत्यु हो गयी थी। इस तथ्य का पता लगाने जब वैज्ञानिकों का एक दल बतलाये हुए स्थान पर पहुँचा तो स्थान एवं घटना को सही पाया। मजिस्ट्रेट की फाइल में वही रिकार्ड दर्ज थे जो ‘जेनजो’ ने बताये थे। इसी तरह पुनर्जन्म संबंधी अनेक घटनाक्रम इयान किसी जावाकृत प्रसिद्ध पुस्तक “लेक्वस आफ दि समरी आफ ए जापानीज सूत्रा” में भी वर्णित हैं।

अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि पूर्वजन्म का स्मरण किस प्रकार के लोगों को रहता है? इस संबंध में डा. स्टीवेन्सन का मत है कि जिनकी मृत्यु किसी उत्तेजनात्मक आवेशग्रस्त मनःस्थिति में हुई हो, उन्हें पिछली स्मृति अधिक याद रहती है। दुर्घटना, हत्या, आत्म हत्या प्रतिशोध, कायरता, अतृप्ति, मोहग्रस्तता का विक्षुब्ध घटनाक्रम प्राणी की चेतना पर गहरा प्रभाव डालते हैं और वे उद्वेग नये जन्म में भी स्मृति पटल पर उभरते रहते हैं। अधिक प्यार या अधिक द्वेष जिनसे रहा है, वे लोग विशेष रूप से याद रहते हैं। भय, आशंका, अभिरुचि, बुद्धिमत्ता, कलाकौशल आदि की भी पिछली छाप बनी रहती है। आकृति की बनावट और शरीर पर जहाँ-तहाँ पाये जाने वाले विशेष चिह्न भी अगले जन्म में उसी प्रकार पाये जाते हैं। खोजकर्ताओं के अनुसार पूर्वजन्म की स्मृति संजोये रहने वालों में आधे से अधिक ऐसे थे जिनकी मृत्यु पिछले जन्म में बीस वर्ष से कम थी। जैसे-जैसे आयु बढ़ती जाती हैं, वैसे-वैसे भावुक संवेदनायें समाप्त होती जाती हैं और मनुष्य बहुधंधी, कामकाजी तथा दुनियादार बनता जाता है। भावनात्मक कोमलता जितनी कठोर होती जायेगी, उतनी ही उसकी संवेदनायें धीमी पड़ती और स्मृतियाँ धुँधली पड़ती चली जाती हैं। निश्चित ही पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य है व यह चिंतन सतत् हमें आस्तिक बनाता है व अपने कर्मों पर निरंतर एक कड़ी दृष्टि रखने की प्रेरणा देता है।


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