दलदल से उबरने की रीति नीति

October 1994

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

रेत में अनाज बिखर जाने पर उन्हें एक-एक करके बीनना पड़ता है। इन दिनों यथार्थता और प्रवंचना इस कदर आपस में घुल गई हैं कि उस मिली-जुली स्थिति में से हित-अनहित का, औचित्य-अनौचित्य का वर्गीकरण, विश्लेषण अतिकठिन हो गया है। यह कार्य कोई राजहंस जैसा नीर-क्षीर विवेक के कलाकौशल का धनी ही कर सकता है।

सायंकाल की संध्या के उपराँत सूर्य का प्रकाश धूमिल हो जाता है और अंधकार के घिरते आने का माहौल बनता जाता है। कुछ ही देर में अंध-तमिस्रा आ धमकती है और हाथ को हाथ नहीं सूझता। यही स्थिति मानवी चिंतन-चेतना की इन दिनों हो रही है। यों कहने को तो बुद्धिमत्ता बढ़ी है। शिक्षा में इजाफा हुआ है। चतुरता, कुशलता की बढ़कर ढींग हाँकी जाती है। इसके सबूत में प्रत्यक्षवादी भौतिक विज्ञान की उपलब्धियों को प्रस्तुत किया जाता है। प्रकृति के रहस्यों को जान लेने और उस पर आधिपत्य जमा लेने का दावा करने वाले को मूर्ख कैसे कहर जा सकता है? एक ओर जहाँ प्रस्तुत समझदारी की सराहना करनी पड़ती है। वहाँ दूसरे ही क्षेत्र उसकी स्थूल बुद्धि अविवेकशीलता भी पकड़ में आती है। उपलब्ध समझदारी को तात्कालिक लाभ पर अवलंबित अदूरदर्शिता ही कहा जा सकता है। विवेक की समग्रता इस बात पर निर्भर है कि दूरवर्ती परिणामों का सही अनुमान लगाते हुए किसी निर्णय निष्कर्ष पर पहुँचा जाय क्योंकि अदूरदर्शिता और दूरदर्शिता के आधार पर किए गए मूल्याँकनों में जमीन आसमान जितना अंतर होता है। तुरंत की उपलब्धि को ही सब कुछ मान लेने पर चिड़िया और मछली जाल में फँसती और प्राण गँवाती है। मक्खी चासनी की कड़ाही से उठने वाली गंध और बहुलता को देखकर इतनी आतुर हो जाती है कि धैर्यपूर्वक किनारे पर बैठकर उसका स्वाद लेते हुए पेट भरना संभव नहीं रहता। वह एक बारगी उस सारी संपदा को निगल जाना चाहती है। फल यह होता है कि पर और पैर दोनों ही चासनी में फँस जाते हैं। मजा उड़ाने के स्थान पर तड़पते हुए प्राण गँवाने पड़ते हैं। ऐसे ही प्रलोभनों में पतंगे को दीपक को निगल जाने के लालच में दुर्गति करानी पड़ती है। समझदारी इसमें है कि दूरवर्ती परिणामों पर विचार किया जाय और जो अंततः हितकर सिद्ध होता हो उसी को अपनाया जाय। इसके निमित्त यदि तात्कालिक लाभ छोड़ना पड़ता हो तो उसमें संकोच नहीं करना चाहिए।

किसान आरंभिक दिनों में बीज बोने, खाद पानी देने, निराई गुड़ाई में लगे रहने, रखवाली करने जैसे घाटे उठाता है। उसका विवेक कहता है कि समय आने पर अच्छी फसल उपलब्ध होगी। उसका अनुमान और अनुभव सही सिद्ध होता है। किसान घाटे में नहीं रहता जो त्यागता है उसकी तुलना में कहीं अधिक पाता है। व्यापारी व्यवसाय में पूँजी लगाकर आरंभिक दिनों में पूरी तरह अपनी जेब खाली कर देता है। विद्यार्थी स्नातक बनने की प्रतीक्षा में चौदह वर्ष की राम वनवास जितनी अवधि गुजारता है और इस बीच कड़ा परिश्रम करता है। फीस, पुस्तक, कापी आवागमन आदि के कितने ही दायित्व वहन करता है। पर अंततः वह समूचा श्रम सार्थक होता है। उच्च शिक्षा प्राप्त करके तब वह मूर्धन्य मनीषियों की पंक्ति में बैठता है। कोई बड़ा अधिकारी, अफसर बनता है। पहलवानों को भी दंगल पछाड़ने से पूर्व मुद्दतों अखाड़े में कड़ा अभ्यास करना पड़ता है। यदि उपरोक्त सज्जन अधीरता के वशीभूत होकर एक सोने का अंडा रोज देने वाली मुर्गी के सारे अंडे एक दिन में ही प्राप्त करने के लिए उसका पेट चीर डालें तो उस लालच का बुरा परिणाम विवशतापूर्वक सहन करेंगे।

अधीर लोग तात्कालिक लाभ देखते हैं और दूरगामी परिणामों पर नजर उठाकर भी नहीं देखते। इसी का परिणाम है कि जीभ के स्वाद को सब कुछ समझने वाले चटोरे व्यक्ति अधिक मात्रा में अभक्ष्य उदरस्थ करते रहते हैं और पाचन तंत्र को बिगाड़ कर अनेकानेक रोगों के शिकार बनते हैं। कामुकता के वशीभूत लोगों को तात्कालिक रसास्वादन ही सब कुछ दीखता है। यौनाचार में अति बरतते हैं और जीवनी-शक्ति गँवा कर खोखले हो जाते हैं। मस्तिष्कीय प्रतिभा पलायन कर जाती है। आलसी, प्रमादी लोग तात्कालिक श्रम से बचे रहने में सुविधा समझते हैं फलतः योग्यताओं और सफलताओं से वंचित रहकर अपंग-अपाहिजों की स्थिति अपना लेते हैं। नशे जैसे दुर्व्यसनों के शिकार होकर अपनी स्वस्थता, अर्थव्यवस्था, प्रतिष्ठिता, पारिवारिकता को भारी क्षति पहुँचाते हैं। प्रदर्शन-प्रिय अपव्ययी भी यही करते हैं। सज-धज ठाट-बाट सस्ती वाहवाही, नकली अमीरी के माध्यम से बड़े आदमी बनने की ललक में फँसते हैं। अंततः हर विचारशील की दृष्टि में ओछे, बचकाने, अप्रामाणिक बनते हैं। पैसा और समय अपना गँवाते हैं, साथ ही हर समझदार की दृष्टि में अपना मूल्य गिराते चले जाते हैं।

ऐसा लगता है कि इन दिनों अदूरदर्शिता का ही बोलबाला है। अपराधी गतिविधियाँ अपनाकर लोग तुर्त-फुर्त धनी बनना चाहते हैं। ऐसा अनेकों करते भी हैं और कुछ कमा भी लेते हैं। पर साथ ही इतना गँवाते भी चलते हैं। जिसकी क्षति-पूर्ति किसी भी प्रकार नहीं हो सकती। प्रामाणिकता गँवा बैठने वाला अविश्वासी किसी का भी सच्चा सम्मान, विश्वास या सहयोग प्राप्त नहीं कर सकता। धूर्तता का प्रकट होकर रहना सुनिश्चित है। हींग की गंध बँधी पोटली को छेद कर भी हवा में फैलती है। कच्चे पारे को खाकर हजम नहीं किया जा सकता वह शरीर के अनेक अंगों को छेदकर व्रण रूप में बाहर निकलता है। काठ की हाँडी दूसरी बार आग में नहीं चढ़ती। कागज की नाव पानी में दूर तक नहीं तैरती। छल-प्रपंच से भरा हुआ अपराधी, अनाचार करते रहने पर अधिक देर तक अपनी वस्तु स्थिति छिपाए नहीं रह सकता। पर्दाफाश होने पर पूर्व परिचितों के सामने ठहरते नहीं बन पड़ता। तब उसे अन्यत्र डेरा डालना पड़ता है। एक के बाद दूसरा स्थान बदलना पड़ता है। सारा जीवन इसी प्रकार उलट-पुलट में निकल जाता है। अंततः हिसाब लगाने पर प्रतीत होता है कि यदि कुटिलता का मार्ग न अपनाया होता, सीधे मार्ग पर चला गया होता तो अन्यत्र सज्जनों की तरह अपनी प्रतिष्ठा भी अक्षुण्ण रही होती और महामानवों की तरह लोक सम्मान के आधार पर उच्च स्थिति उपलब्ध करते हुए उस स्थान तक पहुँचा गया होता जिसे चोर-उचक्के भगीरथ प्रयत्न करने पर भी, कभी भी हस्तगत नहीं कर सकते। छद्म अपनाया जाय या सत्य, इनके चयन में अदूरदर्शिता छद्म का पक्ष लेती है। सत्य का अवलंबन लेने के निर्णय तक पहुँचना मात्र दूरदर्शी विवेक के आधार पर ही संभव होता है। इतनी मोटी बात भी उनकी समझ में नहीं आती जो बिना प्रतीक्षा-परिश्रम किए, जैसे भी बने वैसे बढ़-चढ़ कर लाभ प्राप्त करने की आतुरता प्रदर्शित करते हैं। उन्हें कुमार्ग पर चलना और दुष्परिणाम भुगतना पड़ता है।

बुद्धि-वैभव कितना ही क्यों न हो, चतुरता कितनी ही बढ़ी-चढ़ी हो पर वह दूरदर्शिता अपनाए बिना अँधेरे में ही भटकती है। पग-पग पर ठोकरें खाती है। इसलिए श्रेयस्कर एवं हितकर यही है कि हर प्रसंग को विवेक की कसौटी पर कसा जाय और यह देखा जाय कि किस मार्ग पर चलते हुए अंततः कहाँ पहुँचा जायगा। लक्ष्य निर्धारण को ही इष्टदेव कहते हैं। यह उच्च स्तरीय उत्कृष्ट होना चाहिए। उसे प्राप्त करने के लिए आवश्यक त्याग, पुरुषार्थ करने के लिए अपने आप को तैयार करना चाहिए। सही स्तर की बढ़ी-चढ़ी सफलता का यही राजमार्ग है। उसे छोड़कर कँटीली पगडंडी में हम पाते कम और गँवाते अधिक हैं।

लगता है आस्था संकट की इस वेला में चारों ओर अदूरदर्शिता ही सघन तमिस्रा बनकर हर दिशा में, हर क्षेत्र में छाई हुई है। लोग उसी के कुचक्र में दिग्भ्राँत की तरह भटकते, ठोकरें खाते और एक दूसरे से टकराते हुए देखे जाते हैं। पर्यवेक्षण करने पर प्रतीत होता है कि लोग वस्तु स्थिति समझने का प्रयत्न नहीं करते। अंधी भेड़ों की तरह एक दूसरे के पीछे चलते और बेहिचक पंक्तिबद्ध होकर गहरे गर्त में गिरते हैं। बहुमत जिस समुदाय का होता है, वही चुनाव जीतता है। लगता है अदूरदर्शिता का ही प्रबल बहुमत हो चला है। फलतः संचालन और नियंत्रण भी इसी वर्ग का हो रहा है। व्यक्ति का, समाज का, हर वर्ग इसी प्रक्रिया से प्रेरित, नियंत्रित हो रहा है। हम अदूरदर्शिता के दल-दल में इतने गहरे धँस गए हैं कि वस्तु स्थिति समझने और उबर कर नवजीवन प्राप्त करने का प्रयत्न तक नहीं कर पा रहे हैं। जो ढर्रा चल पड़ा है उसी के साथ प्रवाह में बहते पत्ते की तरह निश्चेष्ट होकर किसी अनिश्चित दिशा में अनिष्ट की ओर बहते जा रहे हैं।

एक-एक करके जीवन के सभी क्षेत्रों की परीक्षा करें तो सुविधा रहेगी। दिनचर्या पर दृष्टिपात करें तो प्रतीत होता है कि समय संपदा का मूल्याँकन कोई नहीं करता, यदि किया गया होता तो आजीविका उपार्जन ही नहीं योजना अभिवर्धन के लिए सामाजिक हितसाधना के लिए भी ढेरों समय निकल आता। संत विनोबा भावे ने व्यस्त जीवन के बीच ही संसार की प्रमुख 23 भाषाओं का अध्ययन कर लिया था। अनेक सद्गृहस्थों ने समय का वर्गीकरण और सदुपयोग करके इतने महत्वपूर्ण कार्य कर डाले जिनकी यशगाथा सुनकर हर सुनने वाले को पुलकित होना पड़ता है। पर हम में से कितने हैं जो समय सारिणी सही तरह निर्धारित करते हैं, और अपने समय का ऐसा सदुपयोग करते हैं जिसकी प्रतिक्रिया से न केवल स्वयं लाभान्वित हों वरन् अन्य अनेकों के लिए भी अनुकरणीय बनें। वस्तुतः “टाइम मैनेजमेंट” से बढ़कर व्यवस्था बुद्धि का सही रूप कोई और है नहीं।

जीवन का प्रमुख आधार आहार है। मनुष्य का प्राकृतिक आहार फल-शाक है। उसमें मसालों का सफेद शक्कर का, खनिज नमक का, गरिष्ठ चिकनाई का, माँस का, कहीं कोई स्थान नहीं है। फिर भी देखते हैं कि जो कुछ थाली में आता है, उसमें हितकर का अंश कम और अहितकर का अधिक होता है। स्वाद ही खाद्य के चयन का प्रमुख आधार बनकर रह गया है। स्वाद के लालच में मात्रा भी इतनी उदरस्थ की जाती है जिसको पचा सकना सीमित सामर्थ्य वाले पेट के लिए असंभव तो नहीं पर कठिन अवश्य होता है। यही वह भूल है जो दुर्बलता, रुग्णता, अकाल मृत्यु आदि अनेकानेक अभिशापों को लेकर सिर पर आ धमकती है।

मन, मस्तिष्क की उर्वरता, कल्पनाओं, विचारणाओं पर निर्भर करती है। विचार ही कर्म बनते हैं। कर्म से परिस्थितियाँ विनिर्मित होती हैं और वे ही उत्थान-पतन का आधारभूत कारण बनती हैं। ऐसी बहुमूल्य संपदा को आमतौर से इतना उच्छृंखल, अनियंत्रित बनाया जाता है कि कल्पनाएँ बेलगाम घोड़े की तरह किसी भी क्षेत्र में चढ़ दौड़ती हैं। अपनी सामर्थ्य का अपव्यय करती हैं। इतना ही नहीं, ऐसे प्रसंगों में रुचि लेने लगती हैं जो खरपतवार की तरह असाधारण रूप से उगते और समूची फसल पर छा जाते हैं। कुकल्पनाओं का कारण ही है कि मनुष्य कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाता। शेखचिल्ली जैसे असंभव, अनुपयुक्त सपने देखता है और वह करता है जो नहीं करना चाहिए। वह सोचता है जो नहीं सोचना चाहिए। विचार क्षेत्र में अराजकता छाई रहती है। फलतः सब से मूल्यवान मस्तिष्कीय शक्ति का दुरुपयोग होता रहता है। व्यक्ति अपने ही पैरों आप कुल्हाड़ी मारता रहता है। यदि विचारों को आदर्शों के साथ जोड़कर रखा गया होता तो निश्चित ही हर कोई सामान्य परिस्थिति में जन्मा अभावग्रस्त व्यक्ति अब्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन, गारफील्ड की तरह किसी बड़े राष्ट्र का राष्ट्रपति बनने की स्थिति तक पहुँच गया होता। उच्च कोटि का विद्वान, समाजसेवी आदर्शवादी महामानव बनकर रहा होता। पर उस अदूरदर्शिता को क्या कहा जाय, जो न समय सारिणी बनाने देती है, न आहार का चयन करने देती है और न विचार प्रवाह को कोई उपयुक्त दिशाधारा में चलते रहने की स्थिति उत्पन्न होने देती है।

अर्थ-उपार्जन सर्वोपरि उद्देश्य बनकर रह रहा है। यह उचित भी है और आवश्यक भी। पर ध्यान यह भी तो रहना चाहिए कि अपने पसीने का कमाया ईमानदारी की कसौटी पर खरा कसा गया धन ही फलता-फूलता है। उसी का सदुपयोग बन पड़ता है। अनीति युक्त, बिना परिश्रम का, धन भले ही कितनी ही बड़ी मात्रा में जमा कर लिया गया हो पर उसको उस संयम के साथ खर्च नहीं किया जा सकता है जैसा कि “सादा जीवन उच्च विचार” का सिद्धाँत अपनाने वाले औसत नागरिक स्तर अपनाने वालों को प्रयुक्त करना चाहिएं निताँत आवश्यक उपयोग करने की बात को सदा ध्यान में रखने वाले उचित आत्मोत्कर्ष को प्राप्त होते तथा परिवार को सुसंस्कारी बनाते हैं। जन हितार्थ अंशदान में पैसा खर्च करने की सूझबूझ उन्हीं में रहती है जो उपार्जन एवं उपयोग के बीच आदर्शवादी औचित्य का तालमेल बिठाए रहते हैं। धन कमाना, श्रम एवं कौशल पर निर्भर करता है। पर उसका खर्च सही ढंग से कर पाना गहरी सूझबूझ का काम है। देखा जाता है कि लोग अनीतिपूर्वक कमाते हैं और इस तरह खर्च करते हैं मानो वह मुफ्त में कहीं पड़ा हुआ पाया गया हो जिसका दुर्व्यसनों के अतिरिक्त और कोई उपयोग सूझता ही न हो। यदि धन की पवित्रता और उपयोगिता पर ध्यान रखा गया होता तो जितना पैसा लोगों के पास है उतने से ही देवोपम जीवन जी सकना संभव हो गया होता और मिल बाँट कर खाने की प्रवृत्ति अपना लेने से वातावरण स्वर्गोपम सुख शाँति से परिपूर्ण बन गया होता। पर आज तो सब कुछ उलटा ही हो रहा है। अधिक कमाने की ललक किसी हद तक पूरी होते रहने पर भी फूटे घड़े में भरे हुए पानी की तरह उपार्जन अस्त-व्यस्त कामों में खर्च हो जाता है और दरिद्रता-अभावग्रस्तता यथावत् बनी रहती है। नजर पसार कर देखने पर यह स्थिति सर्वत्र दीख पड़ती है। धनी निर्धन सभी अपने-अपने ढंग एवं कारणों से चिंतित दिखाई पड़ते हैं। इस क्षेत्र में सुख संतोष उपलब्ध करते किन्हीं विरलों को ही देखा जा सकता है।

जीवन के साथ जुड़ा हुआ एक महत्वपूर्ण पक्ष है परिवार। जो किया या कमाया जाता है वह मात्र शरीर के लिए ही नहीं होता। योजनाओं और गतिविधियों में बहुत बड़ा भाग परिवार पोषण का रहता है। पर यह कार्य किस प्रकार ठीक तरह किया जा सकता है इसकी रूपरेखा बहुत कम लोगों के मस्तिष्क में रहती है।

उचित उपयुक्त यह है कि जिन परिजनों की उपस्थिति पहले से ही है, उन्हें संतुष्ट, सुखी, समुन्नत, स्वावलंबी, सुसंस्कृत बनाने के लिए सामर्थ्य-भर आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक साधन जुटाए जायँ। चूँकि मनुष्य परिवार के बीच ही पलता, बढ़ता है। इसलिए उस संस्था का अत्यधिक ऋण चढ़ा होता है। इस पारिवारिक ऋण का चुकाना आरंभ करने के लिए प्रत्येक को समर्थता आरंभ होते ही प्रयत्नरत होना चाहिए। वयोवृद्ध, जीर्ण-शीर्ण, होने लगते हैं उन्हें शारीरिक सहायता, मानसिक निश्चितता और उचित प्रतिष्ठा की आवश्यकता पड़ती है।

अपने से छोटी आयु वाले योग्यता की दृष्टि से पिछड़े हुए बच्चे तथा महिलाएँ यह सभी वर्ग ऐसे हैं जिन्हें सुयोग्यों की सेवा सहायता अनेक संदर्भों में चाहिए। अपनी सहायता जिसने भी की हो, वे ही उसका प्रतिफल भी प्राप्त करें। परिवार संस्था के किन्हीं सदस्यों ने जिस स्तर के अनुदान दिए थे उन्हें दूसरे रूप में अन्य सदस्यों को चुकाया जा सकता है। हर संयुक्त परिवार में कई सदस्य होते हैं उनकी आवश्यकताएँ भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। इन साधनों के जुटाने में अपना श्रम, समय और साधन लगें तभी परिवार ऋण से मुक्ति मिलती है। इसलिए यह देवसंस्कृति की मान्यता है कि पिछला ऋण चुकाए बिना नया उत्तरदायित्व ओढ़ना अनुचित है। विवाह करके एक नया सदस्य तो बढ़ता है परंतु तुरंत नये अभ्यागत ला खड़े करना अदूरदर्शिता की निशानी है। परिवार के निर्वाह संबंधी इस जीवन व्यवहार को व्यावहारिक अध्यात्म के हर पक्ष के साथ जोड़ कर देखा जाना चाहिए व सोचना चाहिए कि हम से भूल कहाँ व कैसे हुई, कैसे उसे सुधारें, व जीवन की आगामी रीति-नीति का निर्धारण करें?

जीवन जीने की कला हमें यही सिखाती है कि हम समय संपदा से लेकर आहार व विचार प्रवाह तक अर्थोपार्जन व पारिवारिक निर्वाह तक के सभी पक्षों पर सतत् विवेक सम्मत चिंतन करते रहें तो निश्चित ही सफलता, सुख शाँति व आत्मिक प्रगति की लक्ष्य सिद्धि होकर रहेगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118