ईर्ष्याग्नि को शाँत करना ही सच्ची बुद्धिमत्ता

October 1994

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ईर्ष्या मन का सीधा भाव नहीं है। वह कई भावों की संयुक्त प्रतिक्रिया है। ईर्ष्या का जन्म एक तरह की निराशा में से होता है। यह निराशा दूसरे की सफलता को देखकर अपने पीछे रह जाने की भावना से अथवा अपनी असफलता का स्मरण कर दूसरों की सफलता के प्रति होती है। ईर्ष्या का प्रारंभ तो लाभ की सामान्य कामना से ही होता है, किंतु उसका विकसित रूप अत्यंत विकृत हो जाता है। किसी के पास कोई वस्तु विशेष या गुण-विशेष देखकर स्वयं के पास भी उसके होने की इच्छा उत्पन्न होती है। यह लाभ सामान्य कामना मात्र है। उसके प्रति विशेष उत्तेजना बढ़ने पर यह तो भूल जाता है कि निश्चित प्रक्रिया पर चलकर हम स्वयं भी उस वस्तु विशेष को पाने का प्रयास करें, यह राज मार्ग है। इसके स्थान पर ऐसी संकीर्ण भाव भूमि बनने लगती है कि यही गुण या यही वस्तु उसके पास न होकर हमारे पास होती तो अच्छा था। एक बार ऐसी भाव भूमि बन गई तो फिर किसी प्रकार उस व्यक्ति के पास से वह वस्तु या गुण छिन जाय या उसका मूल्य कम कर दिया जाय, उसे नकली सिद्ध कर दिया जाय, गुण को अवगुण या पाखंड प्रचारित कर दिया जाय, ऐसी विकृत योजना मस्तिष्क में बनने लगती है यह सर्वाधिक दूषित मनःस्थिति है। दूसरों जैसी उपलब्धियाँ स्वयं अर्जित कर लेने की सही इच्छा से तो लोक में समृद्धि और गुणों की ही वृद्धि होगी, किंतु दूसरे की संपन्नता-श्रेष्ठता के प्रति बढ़ी हुई ईर्ष्या स्वयं की समृद्धि और उत्कृष्टता का उतना विचार नहीं करती है। इस प्रकार के अपकर्ष की घृणित कामना में बदल जाती है तथा इस प्रकार स्वयं अपना आत्मिक अपकर्ष तो तत्काल ही कर डालती है।

इस प्रकार ईर्ष्या बहुत ही जटिल मनोविकृति का रूप धारण कर लेती है। उससे न तो स्वयं का ही कोई लाभ सधता है, न ही औरों का। तो भी वह एक प्रबल प्रेरक शक्ति है। आज की परिस्थितियों पर दृष्टिपात करें तो चारों ओर ईर्ष्या का ही साम्राज्य फैला दिखेगा। भाई-भाई से ईर्ष्या करता है, पड़ोसी-पड़ोसी से। जातियों, संगठनों, दलों, संप्रदायों, राष्ट्रों के बीच ईर्ष्या की आग फैली हुई है। महिलाएँ ममता, सद्भावना, कोमलता, उदारता, आत्मोत्सर्ग की मूर्ति होती हैं। किंतु उनमें भी ईर्ष्या के भयानक विषवृक्ष की जड़ें गहराई तक प्रविष्ट हो गई दिखाई देती हैं। एक नारी दूसरी नारी के प्रति संवेदनशील उतनी अधिक नहीं रह पाती जितनी कि ईर्ष्या से भर उठती देखी जाती है। यह कुसंस्कार लंबी उपेक्षा के परिणाम स्वरूप उनमें भी गहराई तक प्रविष्ट हो चुका है। समाज में फैले संघर्षों का मूल मुख्यतः ईर्ष्या होती है।

ईर्ष्यालु व्यक्ति स्वयं के उत्कर्ष का प्रयास करना तो भूल ही जाता है, दूसरों के मार्ग में रोड़े अटकाने और उन्हें किसी प्रकार हानि पहुँचाने का प्रयास ही करते रहने में अपनी शक्ति का अपव्यय करता है। यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा नहीं है, अपितु मन की कुटिलता का परिणाम मात्र है।

ईर्ष्या की आग औरों का अहित भी करती है, पर इस अहित से ईर्ष्यालु का तो कोई लाभ होता नहीं, समाज का भी अमंगल ही होता है। स्वयं ईर्ष्यालु को तो यह आग हर क्षण उसी प्रकार जलाती रहती है जैसे अँगीठी की आग संपर्क में आने वाली वस्तु या व्यक्ति को तो कभी-कभी ही जला पाती है किंतु स्वयं अँगीठी के कालेज में हर क्षण तपन ही भरे रहती है। इसी ताप से लोहे की अँगीठियाँ भी थोड़े ही समय में जल-जलकर जीर्ण-शीर्ण बेकार होकर झड़ जाती हैं। ईर्ष्यालु भी ईर्ष्या की दाहकता से निरंतर तृप्त रहता है, उसके मन-मस्तिष्क निरंतर क्षीण से क्षीणतर होते जाते हैं और शरीर डाह से झुलसकर निःशक्त हो जाता है।

ईर्ष्यालु, व्यक्ति उन्नत स्थिति में कदाचित् ही पहुँच पाते हैं, जो उस स्थिति में मिलते भी हैं, वे या तो संयोगवश वहाँ पहुँचे होते हैं या फिर दूसरों के कंधों पर बैठकर। स्वयं के पुरुषार्थ से उन्नति के शिखर पर पहुँचे व्यक्ति में भी यदि ईर्ष्या दिखाई दे तो वह उन्नति के उपराँत औरों से संक्रमित इस रोग के विषाणुओं का प्रभाव होगा, उन्नति मार्ग पर बढ़ते समय तो उनमें लक्ष्यनिष्ठा, श्रमशीलता, प्रखरता और पुरुषार्थ-परायणता की ही प्रधानता रही होगी। फिर यह भी निश्चय है कि उच्च स्थिति में पहुँचने के बाद भी यदि किसी में ईर्ष्यालु वृत्ति आ गई होगी, तो वह उनके पतन का कारण ही बनेगी उन्नति में सहायक सिद्ध नहीं हो सकती।

ईर्ष्यालु व्यक्ति के व्यक्तित्व की प्रभाव शक्ति समाप्त हो जाती है वह सदा दूसरों की बुराई करता, उनके छल-छिद्र ढूँढ़ता देखा जा सकता है। दूसरों की उन्नति और सुख शाँति, तो वह कभी सह ही नहीं पाता। झूठी आलोचनाएँ, मिथ्या दोषारोपण और दूसरों के कार्यों का अवमूल्यन करना उसके स्वभाव का अंग बन जाते हैं। इससे उसके व्यक्तित्व और प्रकृति में रुक्षता एवं कटुता घर कर डालती है। परिणाम स्वरूप दूसरों की निगाहों में वह गिर जाता है। लोगों के मन में उसके जीवन में रिक्तता और अकेलापन बढ़ जाता है। क्योंकि ईर्ष्या का आधार ही आत्मीयता का अभाव हुआ करता है जिसे अपना समझा जाय, इससे ईर्ष्या तो हो ही नहीं सकती। अपनों की प्रगति और सफलता से तो मन प्रसन्न ही होता है।

ईर्ष्या बैर से भी बुरी स्थिति है। बैर उससे होता है, जिससे अपनी किसी वास्तविक हानि की आशंका या संभावना होती है। उस स्थिति में तो अपनी लाभ-हानि का विचार भी नहीं रह जाता। एक अंधी जलन होती है जिसका उद्देश्य तो जिससे ईर्ष्या हो, उस व्यक्ति को जलाकर खाक कर देना होता है किंतु परिणाम, जिसके भीतर वह जलन है उसी के जल-भुन कर खाक बन जाने के रूप में सामने आता है।

यों, ईर्ष्या का जन्म सामाजिक जीवन की विषमता और कृत्रिमता से होता है। किसी के पास कितना भी धन हो, पर उस धन के कारण यदि उसे समाज में अधिक प्रतिष्ठा न मिल रही हो या विशेष सुविधायें न मिल रही हों, तो उसके प्रति ईर्ष्या उत्पन्न नहीं होती। जबकि दूसरों को मिल रही प्रशंसाओं-सुविधाओं और सम्मान से अपनी वास्तविक हानि न हो रही हो, तो भी उसके प्रति ईर्ष्या भड़क उठती है। प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य और गुणों से गुप्त रूप से यदि कोई संतोष-सुख मिलता रहे, तो उससे ईर्ष्या का जन्म नहीं होता। ईर्ष्या तो उन गुणों और ऐश्वर्य से समाज में उत्पन्न होने वाली धारणाओं को देखकर उभरती है। इससे स्पष्ट है कि उसकी पृष्ठभूमि समाज में होती है। जबकि इसी कारण व्यक्ति को समाज में असम्मान और तिरस्कार का भागी बनना पड़ता है। इस प्रकार ईर्ष्या जिस प्रयोजन से उत्पन्न होती है, वह कभी पूरा नहीं हो पाता।

ईर्ष्या की एक दूसरी विसंगति यह है कि वह होती तो उन्हीं के प्रति है, जिनसे अपना कोई न कोई संबंध या तो होता है, या होने की संभावना होती है किंतु उसमें अपनत्व भावना नहीं होती। हरिद्वार में रहने वाले किसी सेठ को सहारनपुर, मेरठ, लखनऊ, दिल्ली के ही किसी धनिक से ईर्ष्या हो सकती है, अमेरिका जापान या जर्मनी में किसी धनपति से तब तक नहीं जब तक कि उसका व्यापार क्षेत्र उन लोगों के व्यापार क्षेत्र से टकराया न हो। एक हिंदी लेखक में जर्मनी के किसी लेखक की प्रतिष्ठा से ईर्ष्या नहीं उत्पन्न होती। विचार कर देखा जाय तो अपनों के प्रति उत्पन्न यह ईर्ष्या अपनत्व के अभाव का ही परिणाम सिद्ध होगी।

यह जलन प्राप्त की कामना से ही नहीं उत्पन्न होती। स्वयं के पास यदि कोई वस्तु या गुण है, जिससे कि प्रतिष्ठा और सुख सुविधा प्राप्त होती है, तो साथ के या आसपास के दूसरे लोगों को वह न मिल पाए, यह भावना भी ईर्ष्या को जन्म देती है। वे भी उस दिशा में प्रयत्न कर रहे हों, तो उन प्रयत्नों की विफलता की कामना बलवती होने पर उस हेतु षड्यंत्रकारी हथकंडे अपनाने की भी प्रेरणा देते हैं।

प्रत्येक स्थिति में ईर्ष्या का एक ही परिणाम होता है-समाज में समृद्धियों-विभूतियों की कमी। दूसरों जैसा स्वयं भी ऐश्वर्य-संपन्न और गुण संपन्न बनने का प्रयास किया जाय, तो इससे स्वयं का भी हित हो और समाज में सुखी-समृद्ध गुणी लोगों की संख्या भी बढ़े, किंतु ईर्ष्या की प्रेरणा और प्रतिक्रिया तो इससे सर्वथा विपरीत होती है। अतः व्यक्ति और समाज का सर्व प्रकार से अमंगल करने वाले इस विषवृक्ष को निकाल फेंकना ही उचित आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम तो आत्मीयता का विस्तार आवश्यक है। संपूर्ण मानव समाज एक इकाई है, एक ही माला में बँधे मनके हैं, एक ही वृक्ष के फल हैं, एक ही समुद्र की तरंगें या एक ही विशाल नदी की लहरें हैं। यह सत्य अपने अनुभव क्षेत्र में और चिंतन क्षेत्र में मन-मस्तिष्क अंतःकरण में आत्मसात कर लेने पर ईर्ष्या क्षण भर भी ठहर नहीं सकती।

अपनी असफलता, निराशा और हीन स्थिति के कारण मन में ईर्ष्या को न पनपने दें, अन्यथा यह दुस्थिति बढ़ने ही वाली है, घटेगी नहीं। पहली बात तो यह है कि मनुष्य जीवन में असफलता और सफलता दोनों का ही होना स्वाभाविक है, उसमें ऐसी अधीरता की कोई बात नहीं। दूसरे असफलता, सफलता का मार्ग ही प्रशस्त करती है। असफलता के कारणों पर भलीभाँति विचार कर, पूर्व की त्रुटियों का परिमार्जन कर नये सिरे से प्रयत्न प्रारंभ करें परिश्रम और लगन के साथ अग्रसर हों, तो सफलता मिलनी कठिन नहीं। दूसरों की सफलता से ईर्ष्या करने के स्थान पर यदि उनकी सच्ची प्रशंसा की गई उन्हें बधाई दी गई तो उनमें से अनेक मित्र, प्रियजन एवं सहायक के रूप में सामने आ सकते हैं और सफलता की दिशा में अग्रसर होने में सहायक हो सकते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में अनोखा और अद्वितीय है। दूसरे उसका स्थान नहीं ले सकते। उद्यान के प्रत्येक वृक्ष की अपनी शोभा है और खेत के प्रत्येक पौधों का अपना महत्व है। इसलिए परस्पर सहयोग से एक दूसरे को विकसित होने का अवसर दें, इसी में बुद्धिमत्ता है। अन्य सभी नष्ट हो जायँ हम अकेले ही जीवित रहें यह सोचना ओछेपन का चिह्न है। उद्यान में जो शोभा है वह एकाकी रहने पर किस वृक्ष से मिल सकेगी।

जिस समाज में प्रतिभाशाली लोग पर्याप्त होंगे, वहीं प्रतिभाओं की कद्र होगी। पिछड़े लोगों को तो कोई ओछा ठग भी मूर्ख बना लेगा और आपकी प्रतिभा कौड़ी कीमत की सिद्ध हो जायेगी।

इन सब तथ्यों पर विचार करते हुए, मनन शक्ति के आधार पर ईर्ष्या को समाप्त कर दिया जाय, इसी में व्यक्ति का भी उत्कर्ष है और समाज का भी। वेद का यही आदेश है--

“जनाद् विश्वजनीनात् सिन्धुतस्पश्रर्या भृतम्। दूरात्वाभन्य उद्भृतमीपर्यायाऽनाम भेशजम्॥

अग्ने विवास्थ दहतो दावस्य दहतः पृथक्। एतामेतस्ये यमुग्दाग्निमिब शमय॥” (अथर्व 7/44/12)

“समुद्र के समान गंभीर, करुणा रस से पूर्ण है विचार-शक्ति मनन शक्ति मनुष्य के कल्याण के लिए बड़ी कठिनाई से तुझे ईर्ष्या की प्रसिद्ध औषधि के रूप में ग्रहण कर उत्तम प्रकार से तेरा पालन किया और तुझे धारण किया है। दावानल की तरह मनुष्यों को पृथक्-पृथक् जलाती रहने वाली ईर्ष्याग्नि तू उसी प्रकार शाँत कर जैसे जल अग्नि को शाँत करता है।”

“हे समुद्र-सी गंभीर करुणापूरित विचार-सामर्थ्य तू ईर्ष्या की प्रसिद्ध औषधि है। इसी रूप में तूने जन’-कल्याण के लिए ग्रहण किया है और बड़ी कठिनाई से तेरा उत्तम रीति से पालन करते रहते हैं।”

“हे मनस् शक्ति! तू इस मनुष्य को दावानल की तरह पृथक्-पृथक् जलाती रहने वाली ईर्ष्याग्नि को उसी प्रकार शाँत कर, जिस प्रकार जल अग्नि को शाँत करता है।”


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