ज्ञान व्यावहारिक हो तो ही सार्थक

April 1983

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छात्रों ने काशी में संस्कृत विद्या पढ़ी। उनमें से चार पारंगत हो गये, तो घर वापस लौटे। मार्ग लम्बा था। सो कुछ महत्वपूर्ण नीति-वाक्य उनने याद कर लिए ताकि उलझने, सुलझाने में काम आये। वे वाक्य थे-

1.महाजनो येत गतः स पन्थाः।

2.राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।

3.धर्मस्य त्वरिता गतिः।

4.आगमिष्यति यत्पन्नं तदस्माँस्तारयिष्यति।

5.सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्ध त्यजति पण्डितः।

6.छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति।

इन वाक्यों का यथा समय प्रयोग करते हुए, मार्ग पूरा करने का निश्चय उन लोगों ने किया।

आगे जाते हुए एक चौराहा पड़ा। सही रास्ता कौन सा है, यह जानना था। श्लोक याद आया-महाजनो येन गतः स पन्थाः। महाजन जिस पर चलें, वही मार्ग। एक मार्ग पर मुर्दे के साथ भीड़ जा रही थी। चारों उनके पीछे चल पड़े और श्मशान पहुँच गये।

यहाँ अपना कौन? पराया कौन? स्मरण आया, भाई सगा होता है। यहाँ कोई भाई है क्या? नजर दौड़ाई। श्मशान में एक गधा चर रहा था। याद आया-राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः।’ राजद्वार और श्मशान में जो खड़ा हो वह भाई। इस कसौटी पर गधा ही खरा उतर रहा था। सो, वे उसके गले मिले और रास्ता पूछा। गधे ने दुलत्तियाँ जमा दी।

भटकते-भटकाते वे नदी तट पर पहुँचे। पार कैसे हों? कौन पार करे। नाव दीखी नहीं। केले का बड़ा पत्ता बहता आया। नीति वाक्य याद आ गया-आगमिष्यति यत्पन्नं तदस्माँस्तारयिष्यति। जो पत्ता बहता आयेगा, वही उद्धार भी करेगा। सो, वे पत्ते पर चढ़ कर पार होने की बात सोचने लगे। डूबते-डूबते बचे। एक अधिक गहरे में उतरा दीखा, तो उसका शिर काट लिया। श्लोक में यही तो कहा गया था कि - सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धत्यजति पण्डितः-सर्वनाश की स्थिति उत्पन्न होने पर पण्डित लोग आधा छोड़ देते हैं।

जैसे-तैसे रास्ता पार करते, जो शेष थे, वे एक गाँव में ठहरे। निवासी उन्हें अपने-अपने घर ले गये और अलग-अलग प्रकार के भोजन से सत्कार किया। एक के घर आटे के लम्बे तन्तु जैसी ‘सेवईं’, दूसरे के घर बड़ी पूड़ी, तीसरे के घर छेद वाले ‘बड़े’ परोसे गये तीनों ने खाने से पूर्व यह सोचा-इनमें कोई खोट तो नहीं है?

नारुन्तुदः स्यादार्तोऽपि न परद्रोह कर्म धीः। ययाऽस्योद्विजते वाचा नालोक्याँ तामुदीरयेत्। -मनुः 2।161

स्वयं कष्ट की स्थिति में रहते हुए भी दूसरों को कष्ट न पहुँचाये। दूसरों के प्रति द्रोहन रखे। साथ ही दूसरों को कष्ट (उद्विग्न) पहुँचाने वाली अशुभ वाणी भी न बोलें।

‘सेवईं’ वाले को स्मरण आया-‘दीर्घ सूत्री विनिश्त दीर्घ सूत्री का नाश होता है। उसने खाने से इनकार कर दिया। दूसरे ने बड़ी पूड़ी खाने समय सोचा-अति-विस्तार विस्तीर्ण तद्भवेन्न चिरायुषम्-बहुत फैली हुई का सेवन करने वाला जल्दी मरता है।” तीसरे ने भी छेद वाले ‘बड़े’ खाने से इनकार कर दिया। उसे वाक्य स्मरण था-‘छिद्रेप्वनर्था बहुली भवन्ति-छिद्र में बहुत अनर्थ होते हैं। सो, खाया उसने भी नहीं। तीनों परोसी थालियाँ छोड़कर चल दिये।

दुःखी होकर घर पहुँचे, लोग इन अर्थ का अनर्थ करने वाले पण्डितों की मूर्खता सुनकर लोट-पोट हो गये।

तब उनने समझा-शकार्थ समझना ही पर्याप्त नहीं-आप्त वचनों का भावार्थ समझना भी चाहिए।


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