महानता के माननीय एवं वरणीय सिद्धान्त

April 1983

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मनःस्थिति परिस्थितियों की जन्मदात्री है। मनुष्य के सुख-दुःख, विकास अथवा पतन के लिए मुख्यतः वही जिम्मेदार है। परिस्थितियों की अपनी स्वतन्त्र सत्ता तो है, पर मनुष्य की प्रगति-अवगति में उनकी नगण्य भूमिका ही होती है। मूलतः कारण वह आन्तरिक स्थिति ही होती है। मन की विलक्षण सामर्थ्य और सम्भावनाओं को देखकर ही ऋषियों ने उसे व्यक्तित्व के प्रत्यक्ष घटकों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना था तथा यहाँ तक कहा था कि मनुष्य का मन ही उसके बन्धन अथवा मुक्ति का कारण है।

प्रगति की आकाँक्षा रखने तथा महानता का मार्ग चमन करने वालों को सर्वप्रथम मन को ही समझाना, सँभालना तथा सुधारना पड़ता है। अनगढ़ रहने पर वह अड़ियल घोड़े की तरह परेशान करता तथा विकास का मार्ग अवरुद्ध करता है। सुगढ़ता प्राप्त करते ही वह सधे घोड़े की सवारी ढोने, भार लादने की तरह इच्छाओं-आकाँक्षाओं का सही नियोजन तथा पूर्ण मनोयोग का परिचय देकर अनेकों प्रकार से सहयोग देता है। उसका स्तर निकृष्ट हो तो पतन-पराभव का मार्ग स्वयमेव खुल जाता है। अनियन्त्रित-निरुद्देश्य इच्छाएँ हवा के साथ उड़ने वाले तिनकों की भाँति भटकती रहती हैं। उनसे कोई विशेष प्रयोजन पूरा नहीं हो पाता।

श्रेय मार्ग का चयन करने तथा महानता का वरण करने की जो आकाँक्षा करते हैं, उन्हें साधनात्मक प्रयत्न करना जितना आवश्यक है, उतना ही जरूरी यह भी है कि मन को सही दिशा दें। इच्छाओं-आकाँक्षाओं का सही स्वरूप समझें ताकि उनमें से उचित का ही वरण कर सकें। श्रेय मार्ग के पथिक को लक्ष्य ही नहीं अपने चिन्तन का स्वरूप भी निर्धारित करना पड़ता है। कारण कि उत्कृष्ट जीवन की ओर चलने में सर्वाधिक सहायक अथवा बाधक अपना चिन्तन एवं दृष्टिकोण ही होता है।

फ्रायड से अलग हटकर मनुष्य के विकास की असीम संभावनाओं पर दृढ़ विश्वास रखने वाले मनःशास्त्री मैस्लो का कहना है कि व्यक्तित्व विकास के लिए एक विशिष्ट तरह की चिन्तन पद्धति भी अपनानी पड़ती है। मैस्लो ने परमार्थ परायण महापुरुषों के चिन्तन एवं दृष्टिकोण का मनःशास्त्र के आधार पर विश्लेषण किया है। उन्होंने उस आधार पर जो निष्कर्ष निकाले हैं, वे अति उपयोगी तथा हर व्यक्ति का मार्गदर्शन करने में सक्षम है।

मैस्लो के अनुसार श्रेष्ठ व्यक्तित्व, सहज-स्वभाव के होते हैं। उनमें कृत्रिमता का अभाव पाया जाता है। बाहर एवं भीतर से एक जैसे होते हैं। उनकी भावना, विचारणा एवं क्रिया तीनों ही में एकरूपता पायी जाती है। जैसा विचार करते हैं, हृदय में वैसे ही भाव उठते तथा व्यवहार में उसी स्तर के कृत्य दिखाई पड़ते है। उनका स्वभाव स्वच्छन्द होता है। यह स्वच्छन्दता प्रगतिशीलता की, श्रेष्ठ प्रयोजनों की पक्षधर होती है। पर उसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वे मर्यादा हीन होते हैं। स्वच्छन्दता से अभिप्रायः उस स्वतन्त्रता से है, जिसके सहारे वे परम्परागत कुरीतियों-रूढ़ियों का विरोध करने तथा तोड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। विचारों की सीमित परिधि में रहना उन्हें नहीं रुचता। नित नये एवं प्रगतिशील विचारों का आह्वान करना उनकी विशेषता होती है। समाज एवं देश को वे उपयोगी विचार देते हैं। साथ ही अनुपयोगी के खण्डन में भी पीछे नहीं रहते। मौलिकता उनमें कूट-कूटकर भरी रहती है। अन्धानुकरण को वे पिछड़ापन का चिन्ह मानते तथा उससे सदा बचते हैं। अपनी राह स्वयं बनाते तथा बिना किसी की परवाह किये एकाकी चल पड़ते है। परम्परावादियों के विरोध का उन पर प्रभाव नहीं पड़ता। अपने मार्ग से, वे संघर्षों के कारण विचलित नहीं होते। संकटों, संघर्षों एवं प्रतिकूलताओं को वे स्वयं आमन्त्रित करते हैं तथा उन्हें खेल-खिलवाड़ मानकर उनके माध्यम से अपनी शक्ति बढ़ाते हैं।

ऐसे व्यक्तियों को सबसे बड़ी विशेषता होती है कि वे उन समस्याओं को ही महत्व देते तथा उन पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं, जिनमें समाज, देश एवं मानव जाति का हित जुड़ा हो। उनका अहम्-विराट् में विसर्जित हो जाता है। अपने स्व एवं उससे जुड़े स्वार्थों पर उनका कड़ा अंकुश रहता है। अपनी परिस्थितियों से वे सन्तुष्ट होते हैं। प्रसिद्ध विचारक कैप्टन शोटोवर कहा करते थे-“इस संसार में हम रुचि तभी लेते हैं, जब हमारी रुचि स्वयं से परितृप्त होकर बाहर निकलने लगे।’ अर्थात् स्वयं की इच्छाएँ अतृप्त हों, तो बाह्य समस्याएँ निरर्थक जान पड़ती है। प्रकारान्तर से यह भी कहा जा सकता है कि अपनी इच्छाओं का विगलित किये बिना समाज एवं संसार की सेवा सम्भव नहीं है।’

मैस्लो की अवधारणा है कि सभी परमार्थी, रचनात्मक प्रवृत्ति के होते हैं। उनमें कलात्मक, वैचारिक तथा वैज्ञानिक स्तर की विशेषताएँ होती है। वे वस्तुओं को सदा नये अन्दाज में ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि उनके जीवन में एकरूपता की ऊब नहीं पायी जाती। एक ही वस्तु को सदा नये-नये रूप में देखते रहने से उसमें सदा नयापन का आभास होता है। जबकि सामान्य व्यक्तियों में दृष्टिकोण की यह विशेषता नहीं होती।

कोलिन विल्सन रचित “न्यु पाथवेज इन साइकोलॉजी” में मैस्लो के चिन्तन का निष्कर्ष दिया गया है। “सामान्य लोगों की तुलना में महामानव अधिक प्रसन्नचित्त एवं प्रफुल्लित पाये जाते हैं। यह उनकी सन्तुलित एवं परिष्कृत दृष्टि का ही परिणाम होता है। उनमें यथार्थता को पहिचानने एवं ग्रहण करने को भी अद्भुत क्षमता पायी जाती है।” असली नकली चीजों में विभेद करने की भी इन महामानवों में विलक्षण सामर्थ्य देखी गयी है। ऐसी समर्थ ग्राह्य क्षमता उनमें हर क्षेत्र में विद्यमान पायी गयी है। जिस भी क्षेत्र में उनकी परीक्षा ली गयी, वे अपनी अद्वितीय क्षमता का परिचय देते देखे गये। कला, संगीत, राजनीति तथा अन्यान्य सभी क्षेत्रों में भी वे अग्रणी होते हैं।

इसी पुस्तक में मैस्लो ने लिखा है कि “स्नेह-सौजन्य की भावना अपेक्षाकृत अन्य लोगों के महामानवों में अधिक होती है। स्नेह-प्यार-करुणा-दया से उनका अन्तःकरण लबालब भरा रहता है।” आगे वे लिखते हैं-“उनका किसी से बैर नहीं होता, दुष्प्रवृत्तियों से तो वे घृणा करते हैं, पर किसी व्यक्ति विशेष से नहीं। हर व्यक्ति में सर्वोपरि सत्ता का निवास है, इस विश्वास के कारण वे सबसे प्रेम करते हैं, प्रेम बाँटते तथा प्रेम पाते हैं। एकान्त तथा शान्तिप्रियता उनके स्वभाव का अंग होता है। सामाजिक एवं नैतिक नियमों का वे उल्लंघन नहीं करते। इन अनुबन्धों को तोड़ना वे अपराध मानते हैं। उनमें सहनशक्ति तथा सामंजस्य की प्रवृत्ति असाधारण रूप से पायी जाती है। उनका स्वभाव विनोदी होता है, पर उसमें उथलापन का अंश कभी नहीं होता। दूसरों की निन्दा-उपहास नहीं करते। प्रायः वे हर व्यक्ति को उठाने का प्रयत्न करते हैं, गिराने का नहीं। चिन्ता, भय, परेशानी, संकट के अवसर तो उनके सामने भी आते रहते हैं, पर उन परिस्थितियों में उनका धैर्य एवं सन्तुलन देखते बनता है। ऐसे अवसरों पर भी वे निषेधात्मक चिन्तनधारा में नहीं बहते, विधेयात्मक ढंग से ही सोचते तथा हर समस्या का हल शान्तिपूर्ण ढंग से निकालने का प्रयत्न करते हैं।

मैस्लो फ्रायड की इस मान्यता का भी खण्डन करते हैं कि ‘प्रत्येक मनुष्य की गतिविधियाँ यौन-अभिप्रेरित होती हैं। उनका कहना है कि संसार में अनेकों ऐसे सन्त-महापुरुष हुए हैं, जिनका आचरण यौन से पूर्णतः ऊपर उठा हुआ था। उनका यौन-प्रवृत्ति पर पूर्ण नियन्त्रण था। वे किसी ऊँचे लक्ष्य से प्रेरणा एवं शक्ति प्राप्त करते थे। इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विद्वान विचारक जार्ज बर्नार्डशा ने भी मैस्लो की इस धारणा का समर्थन करते हुए कहा है-सेक्स से इतर भी श्रेष्ठ प्रवृत्तियाँ मनुष्य के भीतर पायी जाती है। समाज, देश एवं संस्कृति के लिए सर्वस्व उत्सर्ग करने वाले त्यागी-बलिदानी, महापुरुषों-सन्तों का जीवन चरित्र इस बात का साक्षी है। स्नेह एवं प्यार का उच्चस्तरीय आदर्शों के प्रति अटूट निष्ठा का विलक्षण सैलाब उनके हृदय में उमड़ता देखा जाता है। देश की बलिवेदी पर मर मिटने वाले बलिदानियों, समाज के उत्थान के लिए जीवन होम देने वाले समाज सेवियों, आविष्कार में एकनिष्ठ होकर जुटे वैज्ञानिकों की प्रेरक शक्ति सेक्स नहीं, वह महानता होती है, जो उनके भीतर से प्रस्फुटित होती तथा कुछ विशेष प्रचलित ढर्रे से अलग हटकर कुछ करने को अभिप्रेरित करती है।”

अर्थशास्त्र एवं समाज शास्त्र की मूर्धन्य प्रतिभा कार्लमार्क्स की कृति ‘डास कैपिटेल’ की गणना सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में की गयी है। मनोविज्ञान के आधार पर समाज के नव-निर्माण की विचारधारा मैस्लो ने अपनी पुस्तक ‘यूपसाइकियन मैनेजमेंट’ में व्यक्त की है। प्रगतिशील विचार के समर्थकों ने मैस्लो की इस पुस्तक को ‘डास कैपिटल’ के तुल्य ही माना है। इस पुस्तक में मैस्लो ने महानता वरण करने के कुछ व्यावहारिक सुझाव भी दिये हैं। उनके अनुसार लक्ष्य निर्धारित कर लेने के उपरान्त मनुष्य को कार्यों के छोटे, बड़े का भेद-भाव नहीं करना चाहिए, वरन् उनका स्तर श्रेष्ठ बनाने का प्रयास करना चाहिए। प्रायः ऊब, नीरसता, अकर्मण्यता का कारण वह चिन्तन ही होता है, जिसमें मनुष्य काम को छोटा मानकर उनमें रस नहीं लेता। सामान्य और असामान्य व्यक्तियों में मौलिक अन्तर यह पाया जाता है कि सामान्य व्यक्ति जिस काम को छोटा मानकर उपेक्षा कर देते अथवा उसे करने में मनोयोग का परिचय नहीं देते, महापुरुष उनमें भी पूरी तल्लीनता-मनोयोग से जुटे दिखायी पड़ते अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर करते देखे जाते हैं। वे काम के प्रतिफल पर नहीं उसके स्तर पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते हैं। यह असाधारण मनोयोग ही अन्ततः श्रेष्ठ परिणामों का भी कारण बनता है।

मूर्धन्य मनःशास्त्री मैस्लो ने उपरोक्त विचारों में महानता के सिद्धान्तों तथा महापुरुषों की जिन विशेषताओं का वर्णन-विश्लेषण किया है, वे शाश्वत है। अध्यात्म तत्ववेत्ता भी इसी जीवन दर्शन का समर्थन विभिन्न माध्यमों से समय-समय पर करते देखे जाते हैं। इन्हें चर्चा श्रवण एवं अध्ययन तक सीमित न रखकर सचमुच ही आचरण में उतारने के लिए कटिबद्ध हुआ जा सके, तो देखते ही देखते मानस से महामानव की स्थिति में जा पहुँचने का सौभाग्य इसी जीवन में हर किसी को मिल सकता है।


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