वास्तविक प्रगति-व्यक्तित्व की उत्कृष्टता

April 1983

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नीतिशास्त्री मैकडूगल का कथन है-“आत्म-विकास का अर्थ है-चरित्र का विकास। भीतर क्या है, इसे अपने के सिवाय कोई दूसरा नहीं जानता। बाहरी क्षेत्र में किसी के सम्बन्ध में धारणा बनाने का अवसर कैसे मिले? इसका एक ही आधार है-उसके चरित्र की परख। उत्कृष्ट सिद्धान्तों को समझ लेने भर से न अपना काम चलता है और न दूसरों पर प्रभाव पड़ता है। प्रतिक्रिया उस आचरण की होती है जो क्रियान्वित होता रहता है। इसी का नाम चरित्र है। प्रमाणभूत इसी को माना गया है। किसी की सच्चरित्रता परखने के लिए उसके आचरणों को ही साथी माना जाता है न कि उसके एकान्त चिन्तन को।”

“एकान्त चिन्तन यदि कल्पनाओं की उड़ान का जाल-जंजाल हो तो बात दूसरी है अन्यथा जिन विचारों का मनः क्षेत्र पर आधिपत्य होगा वे व्यवहार में परिणति हुए बिना रहेंगे ही नहीं, विचार यदि विश्वासयुक्त हों तो वे मनःक्षेत्र तक सीमित न रहकर व्यवहार में उतरते और सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के रूप में दृष्टिगोचर होते हैं। अस्तु अन्तःक्षेत्र के चिन्तन की यथार्थता को जाँचने के लिए चरित्र एवं व्यवहार की ही जाँच परख करनी पड़ती है।”

चरित्र की व्यक्तित्व के स्तर का यथार्थ है। उस पर प्रवंचनाओं का आडम्बर चढ़ाते और मुखौटा लगाकर कुरूप को सुन्दर बनाने के प्रयत्न तो अनेकों चलते हैं, पर उनकी कलाई उखड़ते देर नहीं लगती। पाखण्ड से आत्म प्रवंचना ही हो सकती है। कुछ लोगों को कुछ समय तक धोखे में भी रखा जा सकता है, पर सत्य का कोई विकल्प नहीं। विशेषतया व्यक्तित्व की परख के सम्बन्ध में उत्कृष्टता की वह परख ही निर्णायक होती है जो किसी घटना विशेष से नहीं वरन् अनवरत जीवन प्रवाह की दिशाधारा को देखते हुए सुस्थिर मान्यता के रूप में विकसित होती है।”

आग और गर्मी का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। व्यक्तित्व और चरित्र एक ही तथ्य को प्रामाणित करने वाले दो रूप हैं। चरित्र व्यवहार की शालीनता एवं निजी जीवनचर्या में प्रकट होता है। इसी आधार पर जो आत्मविश्वास जमता और लोक श्रद्धा का स्वरूप बनता है उसी को चरित्र कहते हैं। चरित्र और व्यक्तित्व एक ही तथ्य के दो नाम रूप है।

देखने में तो असफलताओं के कारणों में परिस्थितियों की प्रतिकूलता, साधनों का अभाव, सम्बद्ध लोगों का असहयोग जैसी कुछेक विशेषताएँ ही गिनाई जाती है। कुछ भाग्य दोष या दैव प्रकोप कहकर भी मन समझाते रहते हैं। किन्तु वास्तविकता खोजने पर कुछ दूसरे ही तथ्य उभरकर सामने आते हैं। अपवाद रूप में तो श्रेष्ठ जन भी मात खाते देखे गये हैं या सामान्यतया तथ्य एक ही होता है कि उनकी वैयक्तिक दुर्बलताएँ सफलता के मार्ग में प्रमुख अवरोध बनकर अड़ी रही। चिन्तन तथा प्रयास उस स्तर का नहीं बनने दिया जिसकी गर्मी से अभीष्ट की उपलब्धि पकती, फलती और उत्साहवर्धक उपलब्धि के रूप में हाथ आती।

शारीरिक ढाँचा, मन्द बुद्धि, स्वल्प शिक्षा, सुसंस्कारिता की अनुपलब्धि, दरिद्रता, जन्मजात अपँगता आदि कुछ ऐसी कमियाँ हैं जिन्हें प्रारब्धजन्य या परिस्थिति जन्य कहकर एक सीमा तक मनुष्य को दोष मुक्त किया जा सकता है। एक सीमा तक इसलिए कि इसी के रहते हुए भी असंख्यों ने इतनी प्रगति की और सफलता पाई है कि सर्व समर्थों को भी दाँतों तल उँगली दबानी पड़ती है। साथ ही मानना पड़ता है कि कोई भी साँसारिक अभाव अवरोध ऐसा नहीं जो मनस्वी का प्रगति पथ अवरुद्ध कर सके।

कुछ व्यवधान ऐसे हैं जो मनुष्य के स्व उपार्जित हैं। अभ्यास में उतरते, रहन-सहन करते रहने से स्वभाव के अंग बन जाते हैं और निर्दोष तक प्रतीत होने लगते हैं।

आलस्य, प्रमाद, असंयम, आवेश, अस्थिरमति, अदूरदर्शिता, उद्दण्डता, हठवादिता, आत्महीनता जैसे दुर्गुण स्वनिर्मित होते हैं। इन्हें अनगढ़ अविकसित व्यक्तित्व कहा जा सकता है। जिस प्रकार बालकों का मानसिक स्तर अपरिपक्व सामाजिक नीति नियमों से अनभिज्ञ जीवनयापन की विधि-व्यवस्था से अपरिचित होता है, उसी प्रकार की स्थिति कई मनुष्यों में बड़ी आय हो जाने पर भी बसी रहती है। वे खाने-कमाने भर की मोटी जानकारी भर प्राप्त करके अपना काम चलाते और समय गुजारते रहते हैं, पर ऐसा कुछ उनके पल्ले नहीं बँधा होता जिसके आधार पर उन्हें सुसंस्कारी एवं सभ्य समाज का सदस्य कहा जा सकता है।

शेखीखोर, बन-ठन कर रहने वाले, रौब गाँठने वाले ठग और प्रपंची लोग मन में ऐसा सोचते हैं इन हथकण्डों से उन्हें अधिक चतुर प्रवीण समझा जायेगा और लोग प्रभावित होते प्रशंसा करते दिखाई पड़ेंगे किन्तु वैसा होता कुछ नहीं। शारीरिक बचपन चेहरा देखते ही प्रकट हो जाता है ठीक उसी प्रकार मानसिक बचपन आत्म प्रकटीकरण और आचरण, व्यवहार पर सामान्य सी नजर डालते-डालते अपनी बात अपने मुँह कहने लगता है।

अनेकों हानिकारक दुर्गुणों की नामावली लोगों की विदित है। उनमें कुछ व्यक्तिगत दोष होते हैं और पिछड़ेपन से जकड़े दबोचे रहते हैं कुछ उच्छृंखलता और आक्रामकता के रूप में प्रकट होते हैं इनमें स्तर भर का अन्तर है। दोनों ही अविकसित और विकृत व्यक्तित्व का परिचय देते हैं और प्रकट करते हैं उस शालीनता का विकास अभी नहीं हुआ जिसे सभ्यता कहा और प्रगति के लिए आवश्यक माना जाता है।

‘ए मैनुअल आफ एथिक्स’ ग्रन्थ में एम. मैकेन्जी लिखते हैं-‘दुराचारी मनुष्य के हाथ से कोई भला काम नहीं बन पड़ेगा। उसके हाथ से भले काम सौंपे जाय तो भी वह उनमें अपने चरित्र की छाप छोड़ेगा और कहीं न कहीं ऐसी गड़बड़ी उत्पन्न कर देगा जिसमें भला दीखने वाला काम भी उलझन में फँसे और विग्रह उत्पन्न करे।”

वे कहते हैं-“काम करने की कुशलता कैसी भी क्यों न हो, उसके सहारे इतना भर हो सकता है कि प्रयोजन को कम समय और कम लागत से खूबसूरती के साथ कर निपटा दिया जाय। इस विशेषता और सफलता के होते हुए भी एक कमी बनी ही रहेगी कि इस कार्य में लगे हुए सहयोगी अपने मार्गदर्शक से ऐसी परोक्ष बुराइयाँ भी अपना लें जो उन्हें उपलब्ध पारिश्रमिक की तुलना में अधिक घाटे की सिद्ध हों। इसी प्रकार जो काम हाथ में लिया गया है उसके कितने भी भागों में ऐसी खामियाँ जान-बूझकर या अनजाने रह सकती है जो अन्ततः उपभोक्ता को महंगी पड़े और निर्माता को बदनामी का कारण बनकर उसके व्यवसाय को बेतरह गिरादें।”

यही बात हर क्षेत्र के बारे में हैं। बुरे आदमी भी परिश्रम करने और चतुरता का परिचय देने में खरे भी सिद्ध हो सकते हैं इतने पर भी इस कार्य का स्तर सदा गया गुजरा ही बना रहेगा। लोक सेवा के कार्यों में संलग्न व्यक्ति प्रत्यक्षतः देश भक्त होते और समाज कल्याण के काम करते पाये जाते हैं इतने पर भी यदि वे चरित्र की दृष्टि से बुरे आदमी है तो अपने कार्यों के सम्बन्ध में भी जन-साधारण को आश्वस्त न कर सकेंगे और चरित्र की तरह उद्देश्य के सम्बन्ध में भी सन्देह उत्पन्न करते रहेंगे।

आदमी काम जो भी करे, प्रक्रिया कोई भी अपनाये पर उस पर कर्त्ता के वास्तविक व्यक्तित्व की छाप रहेगी ही। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कर्त्ता किसी भी स्तर का क्यों न बना रहे उसकी कृतियाँ सत्परिणाम ही उत्पन्न करती रहें। काम को खूबसूरती से निपटा देना कुशलता के ऊपर निर्भर है किन्तु उसकी अन्तिम परिणति तो उस चरित्र एवं उद्देश्य के अनुरूप ही होगी तो कर्त्ता के अन्तराल या व्यक्तित्व में सन्निहित है।

कुशलता और सफलता को, सदाशयता से अधिक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। यह मान्यता सही नहीं है कि मनुष्य निजी जीवन में कुछ भी क्यों न बना रहे उसका परिश्रम लोकोपयोगी होना चाहिए। व्यक्ति मशीन नहीं है जो अपने निर्माण में एक सपना बनाये रह सके। वह अपने चिन्तन, चरित्र और व्यक्तित्व की छाप भी किये हुए कार्यों पर छोड़ता है और यह छाप इतनी विलक्षण होती है कि कामों का स्तर बनाने तथा परिणाम उत्पन्न करने में आश्चर्यजनक भूमिका निभाती है।

इस संसार के बाजार में एक से एक आकर्षक वस्तुएँ निकलते हैं उधर की ही चमकीली वस्तुओं को देखकर ललचाने-और पाने के लिए मचलने लगते हैं। उन्हें इस बात का ज्ञान नहीं होता है कि जिनके लिए इतनी आतुरता है वे उनके उपयोग की भी हैं या नहीं।

अनुकरण की प्रवृत्ति होती तो हैं, पर देखना यह भी होता कि किनका अनुगमन किया जाय? चाहे जिसके पीछे चल पड़ते-चाहे जिसकी नकल बनाने-चाहे जिसका कहना मानने और चाहे जिस जैसा बनने का उपक्रम सपना है, जिसे देखकर यही कहा जा सकता है कि मेले के आकर्षण में बौखलाये बच्चे की तरह अनुपयोगी और जेब से अधिक कीमत की वस्तुएँ प्राप्त करने की बाल-बुद्धि अनियन्त्रित हो रही है।

दुनिया में क्या नहीं? यहाँ हर प्रयोजन की हर चीज मौजूद है पर उसका मतलब यह तो नहीं है कि वे सब अपने लिए ही है। ललचाता मन देते समय भगवान ने मनुष्य को ऐसा विवेक भी दिया है जिसके सहारे यह जाना जा सके कि अपने लिए क्या उपयोगी और क्या अनुपयोगी है। क्या अपनी सामर्थ्य के भीतर और क्या बाहर है? परामर्श देने वालों की जो मनः स्थिति योग्यता, साधन, परिकर, वातावरण है वह अपने पास भी हो यह आवश्यक नहीं। उन्हें जो रुचता या पचता है वही अपने लिए भी फिट बैठेगा इसका कोई निश्चय नहीं। ऐसी दशा में हर विचारशील की अपनी स्वतन्त्र बुद्धि का ही उपयोग करना चाहिए कि उन्हें किस मार्ग पर चलना या क्या बनना है?

लक्ष्य निर्धारण करते समय एक बात का ध्यान रखा ही जाना चाहिए कि उत्कृष्टता का परित्याग न किया जाय। सराहनीय समझदारी यह है जो जीवन प्रवाह को आदर्शवादी दिशाधारा में गतिशील होने की प्रेरणा देती है। मार्ग कुछ लम्बा भी है, कठिन भी उस पर चलने वाले उतनी ऊँचाई तक चढ़ सके हैं जिसे सामान्य लोग जीवित रहते स्वर्ग तक जा पहुँचने के समतुल्य माने और आश्चर्यचकित होकर देखें। आवश्यक नहीं है कि विलासिता, संग्रह और वाहवाही समेटने को ही बुद्धिमत्ता माना जाय। ऐसी जीवनचर्या अपनाना-ऐसा रास्ता अपनाना भी घाटे का सौदा नहीं जिसमें वैभव तो सामान्य ही रहता है पर आत्म गौरव और श्रद्धा सहयोग अर्जित करने में कमी नहीं रहती।


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