व्यक्तित्व निर्माण की साधना

April 1983

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यह लोक मान्यता सही नहीं है कि मनुष्य साधना के सहारे आगे बढ़ता और सफल होता है। वास्तविकता यह है कि परिष्कृत व्यक्तित्व ही साधन एकत्रित करता और उनके सदुपयोग का लाभ उठाता है। घटिया व्यक्तित्व अवसर होते हुए भी उसका लाभ नहीं उठा पाता। जबकि प्रतिभावान् प्रतिकूलताओं के बीच भी अनुकूलता खोज निकालते हैं और अवसर न होते हुए भी उसे अपने कौशल से उपार्जित करते हैं।

साधन सम्पन्नों की सम्पदा का किस प्रकार उपयोग हुआ इस पर दृष्टि दौड़ाने से निराशा होती है। उपार्जन कर सकना सरल है। अनीति पर उतारू व्यक्ति उसे और भी जल्दी समेट लेते है। किस के पास कितना है प्रश्न इस बात का नहीं वरन् इस बात का है किसने, किस प्रकार कमाया। ठीक इसी प्रकार का यह भी प्रश्न है कि उपलब्ध था उसे किसने किस प्रकार, किन प्रयोजनों का खर्च किया।

साधनों की विपुलता उतनी महत्वपूर्ण नहीं, जितनी कि उन्हें सही तरीके से कमाने और सही कामों में खर्च करने की। यदि विपुलता को ही महत्व दिया जाय तो भी बात वहीं आकर टिकती है कि व्यक्तित्व कितना प्रखर था। बुरे तरीकों से सफलता पाने में भी अन्ततः व्यक्तित्व को ही श्रेय मिलता है। इस संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि बुरे किस्म की प्रखरता बुरे उपाय अपनाकर सफलता अर्जित करती है। यहाँ भी श्रेय बुराइयों को नहीं मिलता वरन् चमत्कार उस व्यक्तित्व का दीखती है जिसका विकास तो हुआ पर बुरे क्षेत्र में फला-फूला।

साधनों को कमाने, रखाने और खर्चने के लिए एक विशेष प्रकार की सूझ-बूझ चाहिए। उसे प्रखरता कहते हैं। सूझ-बूझ के अतिरिक्त उसमें पराक्रम भी जुड़ा रहता है। न केवल पराक्रम वरन् प्रतिभावान् सिद्ध करने वाले गुणों से भी अपने आपको सुसज्जित करता पड़ता है। इसमें प्रमाणिकता और कुशलता दोनों का ही समान समन्वय रहता है। इन दोनों में से एक की भी कमी पड़े तो कठिनाई अड़ जायगी। प्रामाणिकता रचित व्यवहार कुशल धूर्त कहलाते हैं और बबूले की तरह जहाँ तहाँ उछलते-डूबते रहते हैं। स्थायित्व के लिए प्रामाणिकता की भी आवश्यकता है। हाँ, यह माना जा सकता है कि केवल प्रामाणिक होने से भी काम नहीं चलता। प्रगति के लिए व्यवहार कुशलता भी न्यूनाधिक मात्रा में उतनी ही आवश्यक होती है जितनी कि प्रामाणिकता।

व्यक्तित्व का विनिर्मित करना सफलताओं और सम्पन्नताओं को अर्जित करने के लिए आवश्यक है। इसकी उपेक्षा करके धूर्तता के सहारे प्रगति करने की बात सोचने वाले कमाते कम और खोते ज्यादा है। आत्म सन्तोष, लोक सम्मान गँवाने वाले ईश्वर का कोप भी सहते हैं। ऐसे लोगों के लिए उपार्जन का सदुपयोग करते भी नहीं बन पड़ता। दुरुपयोग से अमृत भी विष बनता है। विलासी अपव्यय और दुर्व्यसन और कुपात्रों को हस्तान्तरण, यही है साधनों का दुरुपयोग जिसे व्यक्तित्व रहित व्यक्ति करते देखे गये हैं। वे अपना, उपार्जित वैभव का ही नहीं उनका भी विनाश करते हैं जिनके साथ उनकी मैत्री, घनिष्ठता या अनुकम्पा बरसती है। डूबने वाला अकेला ही नहीं पहने हुए कपड़ों को भी साथ ले डूबता है।

व्यक्तित्ववान् सही रीति से सही साधन सीमित मात्रा में कमाये, यह हो सकता है, पर जो भी वे कमाते हैं उसे उनकी दूरदर्शिता इस प्रकार प्रयुक्त करती है जिसे असंख्यों के लिए आदर्श और अनुकरणीय कहा जा सके। सराहनीय और चिरस्थायी सफलताएँ सदा महामानवों ने ही अर्जित की हैं। व्यक्तित्ववानों से ही वैभव का सदुपयोग बन पड़ा है। परिश्रम और मनोयोग का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए परिस्थितियों की उतनी आवश्यकता नहीं पड़ती, जितनी परिष्कृत मनःस्थिति की।


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