शास्त्रों में काम को भी धर्म, अर्थ और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों के समान वन्दनीय माना गया है। सामान्यतया काम का अर्थ यौन लिप्सा से लिया जाता है। प्रचलित मान्यता के अनुसार काम को सन्तति उत्पादन का आधार माना गया है। यह काम की एकाँगी व्याख्या है। भौतिकवादी प्रतिपादनों में फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिकों ने तो काम को मानवी चेतना की मूल प्रवृत्ति ही ठहरा दिया है। कितने ही मनोवैज्ञानिकों ने तो कामुकता की पूर्ति पर बहुत जोर दिया है। इसे प्रकृति की प्रेरणा मानते हुए बच्चे के स्तनपान तक में काम-क्रीड़ा का दर्शन किया है। इस प्रकार की भ्रान्तियों का मूल कारण काम के श्रेष्ठ स्वरूप को न समझ पाने के कारण ही है। कामुकता के धरातल पर ला पटकने के कारण ही उसका वह स्वरूप लुप्त हो गया जो मनुष्य को श्रेष्ठ बनाता है।
काम वस्तुतः प्रत्येक वाणी के अन्तराल में कार्य करने वाला एक उल्लास है। जो आगे बढ़ने, ऊँचे उठने के लिए सदा प्रेरित करता है। साहसिक प्रयासों, प्रचण्ड पुरुषार्थों के रूप में वही उभरता दिखायी पड़ता है। सरसता एवं सौंदर्य का यही कारण है। इसे आकर्षण शक्ति भी कहते हैं। जड़ पदार्थों में ऋण और धन विद्युत के रूप में कामशक्ति ही हलचल करती दृष्टिगोचर होती हैं। सृष्टि की समस्त गतिविधियों का उद्गम स्त्रोत यही है।
इसी के कारण प्राणी, उछलते, फुदकते तथा उमंग, उत्साह में भरे रहते हैं। इसी का एक छोटा रूप यौनाचार भी है। यौनाचार के आकर्षण में प्रकृति प्रेरणा का एक मात्र लक्ष्य है-सृष्टि का प्रजनन क्रम चलता रहे। किन्तु उसे यौन तृप्ति का आधार मान लेना एक भारी भूल है। अन्य सृष्टि के प्राणी तो प्रकृति की मर्यादाओं में रहकर सन्तानोत्पादन तक ही में मर्यादित कामशक्ति का उपयोग करते हैं। इसमें मनुष्य ही अधिक स्वेच्छाचारी हुआ है।
वस्तुतः काम-चेतना की प्रगति एवं जड़ प्रकृति के सौंदर्य का मूल आधार है। प्राणियों की प्रगति और पदार्थों की हलचल इसी काम प्रेरणा एवं अवलम्बित है। बच्चों की फुदकन, किशोरों को स्फूर्ति एवं प्रौढ़ों की महत्वाकाँक्षाओं में यह शक्ति ही प्रेरित करती है। जिस अन्तःशक्ति से संसार में रस लेने, तथा प्रगति के क्रम में आगे बढ़ चलने की उमंग प्राप्त होती है उसे ही शास्त्रों में ‘काम’ कहा गया है। संसार में जितने भी महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं उनमें वे अन्तः उमंग से प्रेरित अदम्य अभिलाषा एवं उसकी पूर्ति के लिए साहसिक पुरुषार्थ ही प्रधान कारण रहा है।
भाव सम्वेदनाओं का उत्कृष्ट स्वरूप प्रेम है। उसे ईश्वर के साथ जोड़ देने पर ‘भक्ति’ बन जाता है। स्नेह, सहयोग, करुणा, सेवा, सहृदयता इसकी ही उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ हैं। श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिए किए जाने वाले त्याग, बलिदान में कार्य कर रही भाव-सम्वेदनाएँ काम की ही परिणति हैं। काम की महत्ता एवं प्रगति के लिए इसकी उपयोगिता का प्रतिपादन शास्त्रों में इसी कारण किया गया है।
काम में अद्भुत सृजन की शक्ति छिपी पड़ी है। यह विषय सुख की लालसा नहीं, मौलिक सृजन का आधार है। विभिन्न रूपों में प्रकट होने वाली शक्ति भिन्न दिखायी पड़ने हुए भी एक ही है। कलाकार की सुन्दर अभिव्यक्ति, कवि की काव्यान्जना, साहित्यकार की कल्पना में इसी उमंग का योगदान रहता है।
साधना में भाव सम्वेदना के रूप में प्रकट होकर साधर-साध्य के मध्य दिव्य आदान-प्रदान करने में काम की प्रमुख भूमिका होती है। गंगा हिमालय से चलती है। उसका प्रचण्ड वेग विविध नदी नहरों से होकर अपने पावन जल से जीव-जन्तु एवं वनस्पतियों को तृप्त करता विशाल समुद्र में मिल जाता है। इस प्रकार की उमंगों को प्रकृतिगत काम-क्रीड़ा कहा जा सकता है। सृजनात्मक दिशा में मोड़ने एवं श्रेष्ठ उद्देश्यों में नियोजित करने से वह उदात्त बनती और अन्ततः समष्टिगत प्राण शक्ति से मिलकर एकाकार हो जाती है।
निकृष्टतम अभिव्यक्ति संसति एवं उच्चतम सृजेता के रूप में होती है। मीरा के भावभरे गीतों, तुलसी के भावनापूर्ण मानस के प्रसंगों, कालीदास के शाकुन्तुलम, सूर के गीतों को पढ़ने पर पाठक एक अनिवर्चनीय आनन्द के रस में डूब जाता है? पाश्चात्य कवियों में ‘ड्यौडे’ की ‘आइकिजनिया’, शैली की एपित्स्किडियन रचनाएँ शाश्वत सौंदर्य की अदृश्य कृतियाँ हैं। जो मनुष्य को अदृश्य सत्ता के दिव्य स्वरूप का परोक्ष दर्शन कराती है।
सामान्यतः इस महाशक्ति का दुरुपयोग मनुष्य विषय भोगों की लिप्सा में करता है। फलस्वरूप इसके दिव्य अनुदानों का लाभ जो श्रेष्ठ विचारों, उदात्त भाव सम्वेदनाओं के रूप में मिलता है, उसे नहीं उठा पाता। सृजनात्मक यह आधार क्षणिक इन्द्रिय सुखों के आवेश में नष्ट होकर मनुष्य की प्रगति को रोक देता। यही कारण है कि शास्त्रों में ब्रह्मचर्य पर अधिक जोर दिया गया तथा समस्त सफलताओं का मूल आधार माना गया है। इसका आरम्भ तो इन्द्रिय संयम से ही होता है। किन्तु अन्त ब्रह्म में एकाकार होकर होता है। इस दृष्टि से इन्द्रिय के स्थूल संयम का भी कम महत्व नहीं हैं। यह दमन का नहीं परिष्कार एवं उर्ध्वीकरण का मार्ग हैं। ब्रह्मचर्य का सुन्दरतम स्वरूप आदर्शों एवं सिद्धान्तों के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा के रूप में दिखायी पड़ता है। इस तथ्य से अवगत हो जान पर यौन आकर्षणों से विरक्ति हो जाती है।
ब्रह्मचर्य का बल कुछ क्षणों के लिए प्रकृति के नियमों में भी हेर-फेर कर सकने में समर्थ होता है। सीता और सावित्री भारतीय नारियों के आदर्श हैं। उनकी उनके नाम लेने मात्र मन में पवित्र भावों का संचार होने लगता है।
ब्रह्मचर्य द्वारा मृत्यु पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है। इस प्रतिपादन में तथ्य यह है कि उसे बहुत समय के लिए टाला जा सकता है। निस्सन्देह ब्रह्मचर्य सृजन शक्ति का उत्पादक है। यह प्रवाह का अवरोध नहीं वरन् उमंगों का उन्नयन है। जर्मन के महाकवि ‘नेवातिस’ को अपनी प्रेमिका सोफी से असीम प्रेम था। वह पन्द्रह वर्ष की आयु में दिवंगत हो गई। ‘नेवातिस’ ने अपने हृदय में आदर्शों की प्रतिमूर्ति एक ऐसी आध्यात्मिक चैतन्य प्रियतमा की स्थापना की जिसने उसके जीवन की दिशा-धारा ही मोड़ दी। आदर्शों के प्रतिमूर्ति यह प्रियतमा उसे आजीवन प्रेरणा देती रही। हृदय में आदर्शों के-रूप में विद्यमान सोफी ने कवि को आत्मपरायण बनाकर ईश्वर के निकट पहुँचा दिया। काम के उन्नय का यह उदाहरण उल्लेखनीय है। अपने विषय में वह लिखता है-“एक बार में अपनी प्रेमिका के शोक में आँसू बहा रहा था। उसकी कब्र पर खड़ा असीम वेदना की अनुभूति कर रहा था। अपने को निर्बल और असहाय अनुभव कर रहा था। अचानक दूर क्षितिज से दिव्य प्रेरणाओं के रूप में एक ज्योति हमारे अन्तःकरण में प्रविष्ट हुई। अन्धकार की तमिस्रा दूर हुई। जन्म का बन्धन, स्थूल आकर्षण टूटकर बिखर गया। निराशा दिव्य प्रेरणा के रूप में बदल गयी। मेरी प्रियतमा ईश्वरीय स्फुरणा के रूप में अवतरित हुई। उसके नेत्रों में अनन्तता के भाव थे। वह अनन्तता मेरी अन्तरात्मा में स्थापित हो गई। आदर्शों के रूप में विद्यमान मेरी आध्यात्मिक प्रियतमा मेरे प्रेरणा की केन्द्र बिन्दु है।”
काम के स्थूल आकर्षण का आध्यात्मिक प्रेम का परिवर्तित होना ही उर्ध्वगमन है। ब्रह्मचर्य का पालन विशेष प्रतिभा, चिन्तन में प्रखरता, वाणी की ओजस्विता, हृदय की विशालता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। काम की सुंदरतम अभिव्यक्ति यही है। उसकी चरम परिणति ईश्वरीय प्रेम के रूप में होती है। ईश्वरीय सान्निध्य के दिव्य रसास्वादन का यही आधार बनता है।
काम के इस वन्दनीय स्वरूप के दिग्दर्शन के लिए उसे यौन लिप्सा के निम्नतर एवं एकाँगी धरातल से उठाकर दिव्य-भाव सम्वेदनाओं के स्तर पर पहुँचाना होगा। सृष्टि के सभी जड़-चेतन में समाहित काम के दिव्य स्वरूप का दर्शन कर सकना तथा उसके अनुदानों से लाभ उठा सकना तभी सम्भव है।