अपने पर विश्वास कर अकेले चलते रहें

April 1983

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हम समूह में रहते और पलते हैं। साथ-साथ हँसते, खेलते और सहयोगपूर्वक निर्वाह करते हैं-यह तथ्य जितना सत्य है, उतना ही यह भी सही है कि आदमी अकेला है। वह अकेला ही आया है और अकेला ही जायेगा खाना, नहाना, मल-मूत्र त्यागना, सोना जैसे नित्य कर्म उसे अकेले ही करने पड़ते हैं। मशीनें कुछ सहायता तो अवश्य करती हैं, पर इन्हें चलाने के लिए भी तो अपने ही हाथ काम करते हैं। मनुष्य जीवन में जितना चलता है, उसमें से अधिकाँश यात्रा अपने पैरों के सहारे ही सम्पन्न करनी पड़ती है। इसी प्रकार हाथों की उपेक्षा करने पर किसी का गुजारा नहीं होता। ढेरों नौकरों और साधन रहने पर भी अपने हाथों की आवश्यकता और कोई पूरी नहीं कर सकता, इस दृष्टि से मनुष्य समूह पर निर्भर होते हुए मूलतः एकाकी है। माँ के पेट में वह अकेला रहता है और कब्र में या स्वर्ग-नरक में उसे अकेले रहकर ही लम्बी अवधि गुजारनी पड़ती है।

साथ-साथ काम करने और मिल-बाँटकर खाने की नीति अपना कर मनुष्य आगे बढ़ा है, उसमें उदारता का समावेश करने पर वह महान भी बनता है। इतने पर भी उस साथ रहने की अवधि में भी हर व्यक्ति रहता अकेला ही है। कोई किसी के साथ गुँथ नहीं जाता। दो मित्र कितने ही घनिष्ठ क्यों न हो, पर कोई किसी के शरीर में तो प्रवेश नहीं करता है। हर किसी को अपनी इकाई अलग ही अनुभव होती है। उसका व्यक्तित्व अपना रहता है और साथ ही हर किसी का उत्तरदायित्व भी उसके अपने कन्धे पर लदा रहता है। कोई किसी की सहायता तो कर सकता है, पर यह नहीं हो सकता है कि उसके स्थान पर अपने को बिठा दे। कोई किसी के स्थान पर परीक्षा नहीं दे सकता और न प्रतिस्पर्धा में ऐसी बाजी जीत कर दिखा सकता है जिसमें अपने किये का लाभ-हानि दूसरे को उठाना पड़े। न्यायालयों की भी ऐसी परम्परा रही है कि किसी के बदले का दण्ड किसी दूसरे को दे सके। इसी प्रकार बीमारी का कष्ट भी स्वयं ही भुगतना पड़ सकता है। किसी के कितने ही मित्र सहयोगी क्यों न हों, वे चिकित्सा परिचर्या में पूरा उत्साह दिखा सकते हैं, इस दृष्टि से मनुष्य को अपने को एकाकी समझना पड़ता है और उस क्षेत्र को स्वयं ही समर्थ बनाना पड़ता है। साथियों के परामर्श का लाभ एक सीमा तक मिल सकता है।

हर आदमी का अपना व्यक्तित्व है और अपना भाग्य। कठिनाइयों का सामना भी उसे ही करना पड़ता है और सुविधाओं का लाभ उसे ही मिलता है। साझेदारी बात दूसरी है। मिल-जुलकर सुख बाँटे या दुःख बँटाये। इसमें हर्ज नहीं, पर जो अपने हिस्से का भला-बुरा है, उतना तो अपने को ही वहन या सहन करना पड़ेगा। कोई किसी के प्रति सहानुभूति-सम्वेदना कितनी ही क्यों न रखे फिर भी अपना वजन आप ही उठाना पड़ेगा। समय-कुसमय की बात दूसरी है, पर हर किसी को अपना बोझ अपने पैरों पर ही लादना पड़ता है। दूसरों के कन्धों पर कौन कब तक चढ़ा रह सकता है।

कहते हैं सृष्टि के आदि में आदमी अकेला था। उसे यह बहुत खला। ईश्वर ने उसके जिस्म के ही दो हिस्से बाँटे और एक को मर्द और दूसरे को औरत बना दिया। तब से वे एक दूसरे के निकट भी हैं और सहायता भी भरपूर करते हैं। और सुख-दुःख में हिस्सा भी बंटाते हैं, फिर भी दोनों का अकेलापन दूर न हुआ। दोनों में से कोई किसी के भाग्य का साथी न हो सका। अकेलेपन का दुर्भाग्य फिर भी दोनों के ऊपर वैसा ही लदा हुआ है। आवेश में ही दोनों एक दूसरे को अभिन्न करते हैं पर नशा उतरते ही वे अनुभव करते हैं कि दोनों अपनी जगह पर अलग-अलग हैं भले ही कदम मिलाकर साथ चल रहें हों।

ईसा ने अपने विश्वासियों से कहा था-“तुम मेरी ओर देखो, करुणा करो, क्योंकि मैं अकेला हूँ और पीड़ित भी।” यह करुणा को सहचरी बना लेने का निर्देश है, ताकि सच्चे अर्थों में भाव-सम्वेदना प्रदान कर सकने वाली सहचरी का साथ मिल सके। ईश्वर अकेला है। इस व्यथा से पीड़ित भी, सो वह चाहता है कि उसे दूसरों के साथ रहने का अवसर मिले और यह अकेलापन दूर हो। पर दूरी मिटे कैसे? इसका उपाय करुणा ही है। जिससे स्नेह दुलार किया जाता है, जिस पर प्रेम भरा आत्मभाव उड़ेला जाता है, वही अपना बन जाता है। इसी आधार पर एकाकीपन दूर हो सकता है। अपनी तो मात्र करुणा ही है। इसकी लपेट में जो आते हैं, वे ही अपने बन जाते हैं।

बाइबिल के प्रकरण मैथ्यू के अध्याय 14 मन्त्र 23 में आता है-“उनने भीड़ को दूर भगा दिया। वे सबसे अलग होकर प्रार्थना करने के लिए पहाड़ पर एकाकी चले गये। रात हो गयी तो भी वे वहाँ अकेले थे।”

प्रकरण मार्क में आना है-‘वे वहाँ चालीस दिन अकेले रहे। शैतान ने उन्हें फुसलाया, जंगली जानवरों ने उन्हें डराया। सहायता तो उनकी सिर्फ देवदूतों ने की।”

यह एकान्त ही अद्वैत है। इसी को कैवल्य कहा है। जहाँ दूसरा न हो। मात्र एक सत्ता ही शेष रहे। उसे एकाकीपन कहते हैं। गुफाओं में प्रवेश इसी निमित्त किया जाता है। समाधि का यही स्वरूप है कि अपने सिवाय कहीं और कोई शेष न रहे। प्रलयकाल में एक बाल भगवान ही शेष थे। कमल पत्र पर पड़े हिलोरों के साथ बह रहे थे। विनोद सूझा तो अपने ही पैर का अँगूठा आप चूसने लगे।

शरीर पर वस्त्र पहनने का उद्देश्य अपने अकेलेपन को दाब-ढांक कर रखना है। आँखों की लज्जा, कामाँगों को छिपाकर रखना इसी उद्देश्य से है कि अपने एकाकीपन में हर किसी को प्रवेश न मिले।

प्रेम निभता तभी है-एक, एकाकी एक पक्षीय हो। जहाँ आदान-प्रदान की भावना उठी नहीं कि बात बिगड़ी नहीं। किसी से यह अपेक्षा रखना कि वह हमारी मर्जी के अनुरूप ही सोचे और चले। अपने व्यक्तित्व और रचित स्वभाव संस्कार में प्रेम के नाम पर निछावर कर दें, यह विशुद्ध अत्याचार है। जो इस प्रकार का बदला चाहते हैं उन्हें या तो निराश रहना पड़ता है या विग्रह के शिकार होते हैं या फिर ठगे जाते रहते हैं। प्रेमी इनमें से एक भी स्थिति नहीं चाहता। इसलिए उसे एकाकी रहना पड़ता है। ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती’-वाली उक्ति दुहराने की अपेक्षा यह कहना चाहिए, दर्पण में अपना ही भूत दीखता है।

एकाकी बनकर ही हम आत्म-निरीक्षण कर सकते हैं। आत्म-सुधार और आत्म-विकास की बात ऐसी ही मनःस्थिति में बन पड़ती है। लोगों के साथ अपने को गुंथा लेने पर न्याय बन पड़ता है न विवेक दिखता है। पक्षपात या विद्वेष का दबाव पड़ते ही चिन्तन का प्रवाह अस्त-व्यस्त होने लगता है। अपनों का बचाव, दूसरों से दुराव की मनोभूमि बनती हैं। मनुष्य भ्रष्टता के मार्ग पर चल पड़ता है। ऐसी दशा में न सदाशयता टिकती है न धार्मिकता निभती है।

आत्मा को देखो, आत्मा को जानो, आत्मा की सुनी के उपनिषद् वाक्य में गीता की वह उक्ति भी आ मिलती है। ‘कहा गया है कि अपना उद्धार आप करो। अपने को अपने आप मत गिराओ। अपनी आत्मा ही अपना शत्रु और वही अपना मित्र है। ऐसे आत्म तत्व को देखने समझने के लिए हमें न केवल एकान्त सेवन की आवश्यकता पड़ती है वरन् अपने आप को सबसे अलग भी देखना पड़ता है। यह पृथकता ही सामूहिकता की आधारशिला है। जो नागरिक कर्त्तव्य पालन में एकनिष्ठ है उसी से समान निष्ठा बन पड़ती है। अन्यथा भीड़ से भटकाव में मनुष्य अपना आपा तक खो बैठता है। जो स्वयं डूबता है, वह दूसरों को कहाँ उबार पाता है।

आत्म सुधार के साथ संसार सुधार की सम्भावना जुड़ी है। दूसरों के साथ चलने में हर्ज नहीं, पर अपने आप को मेले की भीड़-भाड़ में धक्का देना और लक्ष्य से विरत होकर जहाँ-तहाँ ठोकरें खाते फिरने में कस्तूरी मृग जैसी ही दुर्गति का साथी बनना पड़ता है। इस आत्म सुधार के लिए अपने को अपने ही निर्धारण के अनुरूप चलना और लक्ष्य की ओर स्वयं घसीट ले चलने का एकाकी साहस जुटाना पड़ता है।


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