संसार की महत्वपूर्ण शक्तियों में एक है-शब्द। जिसके बारे में सर्वजनीन जानकारी बहुत ही कम है। सामान्यतया इतना ही समझा जाता है कि परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करने में वार्तालाप के माध्यम से शब्द का उपयोग होता है। या फिर प्रकृति की-प्राणियों की-यन्त्र वाहनों की हलचलों से शोर कोलाहल होता रहता है। यह सब सामान्य प्रतीत होता है, पर है निश्चित रूप से असाधारण।
सृष्टि का आरम्भ कैसे हुआ इस संबंध में तत्वज्ञान का प्रतिपादन है कि सर्वप्रथम प्रकृति और पुरुष के मिलन में घड़ियाल पर हथौड़ी की चोट पड़ने पर उत्पन्न होने वाली झनझनाहट सहित ऊँकार जैसा ध्वनि प्रवाह उत्पन्न हुआ। उससे प्रकृति में हलचल उत्पन्न हुईं गतिशीलता ने छोटे-बड़े पिण्ड गोलक बनाये और फिर उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन का चक्र चल पड़ा। इस प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति शब्द से ठहरी।
वैज्ञानिक पदार्थ की गहरी खोजबीन करते हुए अब बहुत आगे बढ़ गये हैं। कभी पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु थी। फिर परिवार परिकर का मध्यवर्ती ‘नाभिक’ को वह श्रेय मिला। बाद में शक्ति तरंगें प्रमुख मानी गई और कहा गया कि उन तरंगों का समुच्चय ही परमाणु है। अस्तु तरंगें प्रमुख हैं। तरंगों में शब्द, प्रकाश और ताप को तीन विभागों में विभाजित किया। अन्ततः अब उन तीनों में प्रमुख शब्द होने की मान्यता अग्रणी है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा रहा है कि यह प्रकृति विस्तार फलतः शब्द तत्व की परिणति है।
योगाभ्यास में नाद ब्रह्म, शब्द ब्रह्म, सुरति योग, स्वरयोग, मन्त्रयोग लय होगा, आदि के माध्यम से शब्द साधना को प्रमुखता दी गई है। मन्त्र विज्ञान का समूचा आधार ही ध्वनि शक्ति के विभिन्न उपयोगों, उपचारों, निर्धारणों पर ही ठहरा हुआ है। मंत्रों की संरचना में भाषा विज्ञान और व्याकरण अनुबन्धों का उतना ध्यान नहीं रखा गया है जितना कि अक्षरों के पारस्परिक गुँथन क्रम के आधार पर उत्पन्न होने वाले ध्वनि प्रकार के स्तर एवं प्रभाव का। गायत्री मन्त्र की प्रमुखता न उसके अर्थ पर निर्भर है और न व्याकरण शास्त्र की दृष्टि से उसकी परख की गई है। उसके उच्चारण क्रम में ही वह विशेषता है जिसके आधार पर अन्तराल के प्रसुप्त चक्रों उपत्यिकाओं में जगाने का उद्देश्य पूरा होता हैं। अदृश्य जगत की हलचलों पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। ऐसे-ऐसे रहस्यमय कारण ही मन्त्र विज्ञान की आधारशिला है।
शब्द शक्ति का उपयोग अब विज्ञान के क्षेत्र में भी बढ़ चढ़ कर होने लगा है। यन्त्र मानव (रोबोट) शब्द को समझता है उसका उत्तर देता है तथा आदेशानुसार हलचल करने लगता है। अन्तरिक्ष को सबसे अधिक प्रभावित करने वाली रेडियो तरंगों, तथा लेसर किरणों के मूलतत्व को अब शल्य परक माना गया है। उनकी प्रत्यक्ष क्षमता है, शब्द मूलक मानी गई है। भले ही वे अपना प्रभाव ऊर्जा के रूप में प्रकट करती हों।
प्राचीन काल में मन्त्र शक्ति का-शब्द शक्ति का-प्रयोग विभिन्न प्रकार की ऊर्जाएँ उत्पन्न करने तथा प्रकृति प्रयोजनों के लिए उपयुक्त माध्यम माना गया था। यह उत्पादन में सरल सस्ती होने के कारण प्रभाव क्षेत्र में भी अद्भुत अद्वितीय है। अन्य प्रकार की ऊर्जाएँ उत्पन्न करने के लिए महंगे उपकरण चाहिए साथ ही बहुमूल्य ईंधन भी प्रचुर परिणाम में हो। ईंधन चुक सकता है। उपकरण घिसते-बिगड़ते रहते है। जबकि शब्द मानव शरीर की प्रयोगशाला में ही अभीष्ट स्तर एवं क्षमता के उत्पन्न किये जा सकते हैं। समझा जाना चाहिए कि मनुष्य शरीर ऐसा अद्भुत यन्त्र उपकरण है जिसमें प्रकृति जगत और चेतना जगत को प्रभावित करने-संपर्क साधने और आदान-प्रदान के लिए आवश्यक क्षमता अभीष्ट परिणाम में विद्यमान है। यही कारण है कि योग और तप द्वारा शरीर यन्त्र और मनःतन्त्र का इस प्रकार परिशोधन परिष्कार किया जाता है कि उससे उपयुक्त ध्वनि प्रवाह उत्पन्न किये जा सके और मन्त्र विद्या से प्रतिपादित लाभ उठाये जा सकें।
शब्द विद्या का सामान्य उपयोग भी कम नहीं है उसमें पदार्थों और प्राणियों को प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। गद्य का उपयोग प्रवचन परामर्श, वार्त्तालाप आदि में होता ही रहता है। पद्य की क्षमता उससे भी बढ़कर है। संगीत में ताल और लय का उपयोग होता है। इन दोनों के समुच्चय को ही स्वर विज्ञान कहते हैं थपकी ताल कहलाती है और अलाप को स्वर कहते हैं। यों दोनों के मिलन से समान संगीत बनता है, पर उनका पृथक-पृथक् उपयोग भी है। यह बात सामान्य गायक वादन के संबंध में प्रत्यक्ष है। संगीत के द्वारा रोग निवारण, भावनात्मक अभ्युदय, उत्साह संवर्धन, प्राणी विकास, वनस्पति उन्नयन, जैसे काम लिये जाने लगे हैं। अब संगीत मात्र मनोविनोद की सीमा तक ही सीमित नहीं है। उसके माध्यम से मनःक्षेत्र में आनन्द उल्लेख उत्पन्न किया और सम्वेदनाओं को भाव-तरंगों के साथ जोड़ते हुए मनुष्य को आनन्द विभोर किया जा सकता है। अन्य प्राणियों पर तथा प्रवृत्ति प्रवाह पर भी यह उपचार अपना असाधारण प्रभाव छोड़ता है।
संगीत शास्त्र में ध्वनि प्रवाह के अनेकानेक प्रभावों का उल्लेख है। बुझे हुए दीपकों को जला देने वाला दीपक राग-बादलों को बरसने के लिए विवश करने वाला मेघ मल्हार-हिरन स्तब्ध कर देने वाली गजगति, साँपों को लहरा देने वाला मोहन राग-मदोन्मद हाथियों को वश में करने वाला राग शंकर-सूखे पेड़ों को हरा करने वाला श्रीराम-किस प्रकार अपना प्रभाव उत्पन्न करता है इसका वर्णन मिलता है। लोक व्यवहार में मधुर वचनों की अनुकूल और कटुवचनों की प्रतिकूल प्रतिक्रिया का प्रत्यक्ष प्रमाण, हर किसी को अपने इर्द-गिर्द ही मिल सकता है। अब विज्ञान ने इस ओर ध्यान देना आरम्भ किया है तो यह सम्भावना अधिकाधिक स्पष्ट होती जा रही है कि संगीत का शब्द शक्ति का महत्व प्रकृति की अन्यान्य सामर्थ्यों से किसी भी प्रकार कम नहीं है।
ध्वनि विज्ञानियों का कहना है कि यदि किसी नर्तकी की पायल ध्वनि लय ताल से बँधकर एक प्रवाह में बहने लगे तो इतने भर से वह नृत्य का बड़ा हाल नीचे ढह सकता है।
नैपोलियन के समय में एक ऐसी ही दुर्घटना हुई। उसकी सेना एक पुल पर होकर कदम से कदम मिलाये चल रही थी कि पदचाप के क्रमबद्ध हो जाने से पुल हिला और नीचे ढह गया। पूरी टुकड़ी नदी में बह गई। कारण तलाश करने पर यह क्रमबद्ध पद्चाप का प्रभाव निकला। तब से पुल पर चलना हो तो सेना को तितर-बितर चलने का नियम बना। जिसका अभी भी पालन किया जाता है।
भूकम्पों में जो विनाश शक्ति देखी जाती है उसका कारण मात्र विस्फोट नहीं वरन् पृथ्वी के भीतर से उठने वाले क्रमबद्ध कम्पन हैं। यदि उतना विस्फोट मानवी प्रयासों से किया जाय तो बहुत कम विनाश होगा। किन्तु ऐसे अवसरों पर धरती के भीतर जो क्रमबद्ध ध्वनि प्रवाह उठते हैं उन कमलों से प्रभावित क्षेत्रों को भारी हानि उठानी पड़ती है।
वाशिंगटन क्षेत्र के टेकोमा नदी पर प्रायः एक किलोमीटर लम्बा और 12 मीटर चौड़ा पुल बँधा था। वह 44 सेन्टीमीटर मोटे लोहे के रस्सों पर टँगा था। नियमानुसार उस पर 180 किलोमीटर प्रति घन्टे की चाल से चलने वाले तूफान का भी कोई असर नहीं होना चाहिए किन्तु 7 नवम्बर 1940 को हवा कुछ तेज तो जरूरी था पर ऐसा कुछ नहीं था, जिसे तूफान कहा जा सके। अचानक पुल ने काँपना आरम्भ किया। वह तेज हिलोरें लेने लगा। ऊपर उचका और धड़ाम से नदी में जा गिरा।
ठीक ऐसी ही घटनाएँ अन्यत्र भी हो चुकी हैं। फ्रांस का लाहोक बर्नार्ड पुल सन् 1852 में ठीक इसी प्रकार गिरा था। उसे फिर से बनाया गया तो दुबारा भी ठीक वही घटना घटी और 1871 में फिर वैसा ही धराशायी हुआ।
अमेरिका की ओहियो नदी का पुल भी इसी प्रकार सन् 1854 में बैठा था। नियाना जल प्रपात का झूला मजबूत पुल भी इसी प्रकार दो बार धराशायी हुआ। एक बार सन् 1864 में दूसरी बार 1889 में। कारण तलाश करने पर न निर्माण सामग्री में कोई खराबी पाई गई और न बनाने वालों की विधि व्यवस्था में। फिर इन दुर्घटनाओं का क्या कारण हो सकता है इसकी गहरी खोज-बीन करने पर यह निष्कर्ष निकला कि धरती के भीतर उत्पन्न हुए भूकम्प की नगण्य सी हलचल ने तालबद्ध ध्वनि तरंगें उत्पन्न की और उसके प्रभाव से यह अनर्थ होते रहे।
बारूद विस्फोट का इन दिनों बहुत उपयोग होता है। पहाड़ों को गिराने या पोला करने में आमतौर से यह प्रक्रिया काम में लाई जाती है। विस्फोटों की आवाजें भी बहुत होती हैं। पर उससे समीपवर्ती क्षेत्र में मकान गिरने जैसी कोई दुर्घटना नहीं होती। देखा गया है कि 50 टन बारूद का विस्फोट मात्र 200 मीटर की दूरी पर बने हुए मकानों को काई क्षति नहीं पहुँचाता। 130 किलो बारूद यदि फट पड़े तो उससे 350 मीटर दूर के मकानों की किवाड़ें भर खड़खड़ा सकती है। साधारण भूकम्पों में उन्हीं मकानों को क्षति पहुँचती है जो सामग्री या बनावट के नियमों की दृष्टि से दोषपूर्ण होते हैं।
उपरोक्त दुर्घटनाओं के लिए धरती के भीतर ध्वनि कंपन उत्तरदायी ठहराये गये है। यह प्रचण्ड शक्ति तब उत्पन्न होती है। जब उनमें एक निश्चित गति से उत्पादन हो और वह एकीभूत होकर एक दिशा में प्रवाहित हो। यह प्रवाह सामान्य घटनाओं से, यहाँ तक कि घड़ी के पेण्डुलम की खट-खट को तालबद्ध कर देने तक से उत्पन्न हो सकते हैं और कोई भयानक दुर्घटना उत्पन्न कर सकते हैं।
स्नायविक रोगों तथा मानसिक विक्षेपों में संगति के विशेष ध्वनि प्रवाहों के माध्यम से चिकित्सा का एक नया प्रचलन इन्हीं दिनों चला है और बहुत सफल हुआ है। शोक, क्रोध, उद्वेग, तनाव, रक्तचाप आदि को शान्त करने में भी उससे बड़ी सहायता मिलती देखी गई है। सम्भावना व्यक्त की जा रही है कि अन्यान्य चिकित्सा पद्धतियों की तरह अगले दिनों संगीत उपचार भी उभर कर आवेगा और जन स्वास्थ्य के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करेगा।
इसके अतिरिक्त उसका प्रभाव पशु पक्षियों को उल्लसित एवं वृक्ष वनस्पतियों को अधिक विकसित करने की दृष्टि से भी बहुत लाभदायक पाया गया है। दुधारू पशु अधिक दूध देने लगे। बैल घोड़े बिना थके अधिक परिश्रम करने में समर्थ रहे। मुर्गियों और मछलियों ने अधिक अण्डे बच्चे दिये। डरते रहने और असहयोग करने वाले अन्य प्राणी इस आधार पर नरम पड़े और मनुष्य के अधिक निकट आये। इस आधार पर हिंस्र पशुओं को भी किसी हद तक सौम्य बनाने में सफलता मिली है। सरकस वाले अब पशुओं को कलाकार बनाने के लिए साधने में मात्र हण्टर या लालच का ही उपयोग नहीं करते वरन् संगीत का सम्मोहन चलाकर भी वशवर्ती बनाने का एक नया उपाय अपनाने लगे हैं। यह प्रयोग वृक्ष वनस्पतियों पर भी बहुत प्रभावकारी सिद्ध हुआ है।
वेस्ट विल अमेरिका की कृषि प्रयोगशाला में ऐसे परीक्षण हुए हैं जिनमें संगीत के प्रभाव से खेती की फसलों को अधिक फैलने तथा फूलने फलने वाली बनाने में सफलता प्राप्त की गई है। इस संबंध में विस्कोन्सिन के आर्थर लाके के प्रयोगों की उस देश के वनस्पति विशेषज्ञों में बहुत चर्चा है उसने फूलों के जल्दी तथा भारी बनाने में इसी आधार पर सफलता पाई। जिन खेतों को संगीत सुनाये गये वे अधिक समुन्नत हुए और जिन्हें इससे वंचित रखा गया वे खाद पानी की दृष्टि से समान लाभ प्राप्त करने पर भी पिछड़े रह गये।
संगीत मनुष्यों की तरह पेड़-पौधों को भी पसन्द है। सुनियोजित संगीत तरंगों से वे प्रसन्न पुलकित होते है और उत्साह भरे वातावरण में अधिक जल्दी अच्छा विकास करने लगते हैं। ब्रिटिश विज्ञानी जार्ज मिलसटोन इस संदर्भ में अधिक रुचि लेते रहे हैं। उन्होंने सिद्ध किया है कि संगीत के पौधों को भी उल्लसित करने की क्षमता है। न्यूयार्क के डॉक्टर डोरोवो रेटालक ने रुग्ण वृक्षों में चिकित्सा से संगीत की ध्वनि लहरों का उपयोग किया है और कहा है कि जिनका भविष्य संदिग्ध हो रहा था जिन्हें रुग्ण समझा जा रहा था ऐसे पौधों को भी संगीत चिकित्सा के माध्यम से रोगमुक्त किया और नया जीवन दिया गया।
कनाडा, ब्रिटेन, इसराइल तथा पश्चिमी जर्मनी में भी यह प्रयोग हुए हैं। प्रयोग कर्त्ताओं ने कुछ खेतों और उद्यानों में खाद-पानी के अतिरिक्त संगीत सुनाने का भी प्रबन्ध किया। इस पर जो अतिरिक्त खर्च पड़ा उसकी तुलना में अच्छी फसल का लाभ कहीं अधिक था। इसके विपरीत यह भी देखा गया कि कर्कश स्वर और कोलाहल कुहराम का बुरा असर भी पड़ता है। धड़धड़ाते रहने वाले कारखानों के इर्द-गिर्द के बगीचे सदा मुरझाये कुम्हलाये पाये गये।
वनस्पतियों के संगीत पर प्रभाव के संबंध में महाकौश महाविद्यालय के रसायन शास्त्री प्रो. गोरे ने लम्बे समय तक परीक्षण करने के बाद अपना मत यही बनाया है कि जिस प्रकार मनुष्य को संगीत प्रिय है उसी प्रकार उसके द्वारा वनस्पति को भी उल्लसित ही नहीं विकसित भी किया जा सकता है।
लन्दन विश्वविद्यालय के एक वनस्पति इंजीनियर जेम्स स्मिथ ने पौधों के साथ किये गये दुर्व्यवहार और सद्व्यवहार की प्रतिक्रियाओं को जानने के लिए लम्बी अवधि तक अनेक क्षेत्र उद्यानों में विभिन्न प्रकार के पर्यवेक्षण किये हैं। उनने पाया है कि वनस्पतियाँ प्रताड़ना तथा प्रतिकूलता उत्पन्न करने से खिन्न होती है उनके यह मनोभाव कुम्हलाने मुरझाने के रूप में देखा गया। इसी प्रकार खाद पानी ऋतु प्रभाव की तरह वे सज्जनोचित व्यवहार से भी पोषण प्राप्त करती, बढ़ती और सुखी रहती पाई गई हैं। हँसी-खुशी का वातावरण जिस प्रकार मनुष्यों को पसन्द है वैसा ही अनुभव पेड़-पौधे भी करते हैं। शोक सन्ताप जहाँ छाया रहता है वहाँ पौधे भी दुःखी निराश एवं कुरूप कठोर स्थिति में रहते हैं। श्मशानों, कसाई घरों के नये और तेजी से बढ़ने वाले पौधों की विकास गति अपेक्षाकृत अधिक मन्द और असन्तोषजनक पाई गई है।
वनस्पति विज्ञानियों का यह मत बनता जाता है कि संगीत की प्रतिक्रिया पौधों पर स्नेह सद्भाव जैसी होती है। वे गायन वादन से प्रसन्न होते उत्साहित रहते और जल्दी बढ़ते तथा फूलते फलते हैं।
शब्द तत्व असाधारण क्षमताओं एवं सम्भावनाओं से भरा-पूरा है, उसका रहस्य समझा जा सके और उपयोग सीखा जा सके तो मनुष्य के हाथ सामर्थ्य का विशिष्ट स्त्रोत हाथ लग सकता है। प्राचीनकाल की तरह इस सामर्थ्य की शोध में संलग्न होकर उज्ज्वल भविष्य की एक नई सम्भावना को हस्तगत किया जा सकता है।