अपनों से अपनी बात - जागृत आत्माएँ युग धर्म का निर्वाह करें

April 1983

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पूज्य गुरुदेव का प्रज्ञा परिजनों के नाम एक विशिष्ट उद्बोधन

आपत्तिकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए समर्थ भावनाशीलों को आगे आना पड़ता है। अग्निकाण्ड, भूकम्प, बाढ़, महामारी, दुर्भिक्ष जैसे संकट आ खड़े होने पर उदारचेता अपने काम धन्धे में हर्ज करके भी दौड़ते और संत्रस्त जन समुदाय की सहायता करने में कुछ उठा नहीं रखते। दुर्घटना घटित होने पर यथा सम्भव सहायता किये बिना कोई सहृदय रुक नहीं सकता।

स्थानीय डॉक्टरों की जिम्मेदारी और भी अधिक है। उस अवसर पर उनकी योग्यता विशेष रूप से आवश्यक होती है। यदि वे मरहम पट्टी करने के लिए जाने से इनकार या आनाकानी करें तो यह तत्काल के झंझट से परे रहना अन्ततः हानिकारक ही सिद्ध होगा। उस निष्ठुरता के लिए उन्हें आत्म प्रताड़ना और लोक भर्त्सना दोनों ही सहनी पड़ेगी। हो सकता है कि इस निष्ठुरता से रुष्ट होकर मरीज भी उनके पास आना बन्द कर दें और धन्धे में घाटा पड़े।

प्रज्ञा परिजनों की स्थिति सुयोग्य चिकित्सक जैसी है और समय की विपन्नता भयानक दुर्घटना जैसी। इन दिनों आस्था संकट के सर्वनाशी घटाटोप पूरी प्रौढ़ता पर हैं। साधन सम्पन्न परिस्थितियों में भी मनुष्य को दिन-दिन अधिकाधिक कष्टदायक परिस्थितियों में फँसना पड़ रहा है। दुर्बलता, रुग्णता, उद्विग्नता, आर्थिक तंगी, स्वजनों की कृतघ्नता, मित्रों की शत्रुता, प्रचलित दुष्ट परम्परा से जन-जन को कितना संत्रस्त रहना पड़ता है, उसे यदि कोई पर्दा उघाड़कर देखें तो प्रतीत होगा कि दृश्यमान चमक-दमक के पीछे कितनी अधिक पीड़ा, खीज, निराशा संव्याप्त है। आदमी इस कदर खोखला बन गया है कि इस ढकोसले के पीछे झाँकने पर लगता है कि जीवितों में पाई जाने वाली प्रसन्नता-प्रखरता का एक प्रकार से पलायन ही हो गया है।

व्यक्ति की तरह ही समाज की चूलें भी चरमरा रही हैं। शान्ति और व्यवस्था के परखच्चे उड़ रहे हैं। अणु-आयुधों के जखीरे, तृतीय युद्ध के नगाड़े, विकिरण और प्रदूषण के विष प्रवाह, बढ़ती हई जनसंख्या का हाहाकार, अपराधी दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विस्तार देखते हुए लगता है मानवी गरिमा और सभ्यता का अन्त होगा। लोग ऐसे माहौल में जी रहे हैं जिसमें आतंक, अनाचार और प्रपंच-पाखण्ड के अतिरिक्त और कुछ बच ही नहीं रहा। कल के संबंध में सभी आशंकाग्रस्त हैं। कब न जाने कितने किधर से बादल फटे, बिजली टूटे और सृष्टा के इस सुन्दर ग्रह की परिणति अन्तरिक्ष में छाये हुए एक विषाक्त वातावरण जैसी बन पड़े।

जिस चौराहे पर हम खड़े हैं, उसमें विनाश विभीषिकाओं के अतिरिक्त एक छोटी पगडण्डी उज्ज्वल भविष्य की ओर भा जाती है। उस पर चला जा सके तो यह आशा भी विद्यमान है कि वातावरण बदले और ध्वंस के स्थान पर सृजन का उपक्रम चल पड़े।

इन उभयपक्षीय सम्भावनाओं के बीच अधर में लटकते हुए पाँच अरब मनुष्यों के भाग्य को सही दिशा देने के लिए इन दिनों ऐसी प्रखर प्रतिभाओं की आवश्यकता है जो अपनी नाव खेने का कौशल जानते हों जिनकी भुजाओं में डाँड चलाने और असंख्यों को पार कर सकने की पराक्रम विद्यमान हो। कहना न होगा कि समय को जिस स्तर की उद्धार क्षमता चाहिए उसकी उपयुक्त मात्रा प्रज्ञा परिजनों के अतिरिक्त अन्यत्र कदाचित् ही कहीं दीख पड़े।

युग विभीषिकाओं से निपटने के लिए बलवानों, योद्धाओं, श्रीमन्तों, कूटनीतिज्ञों, प्रशासकों, सुशिक्षितों, शिल्पियों वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों की नहीं; ऐसे मनीषियों की आवश्यकता है जो अपने को नवयुग के प्रतीक प्रतिनिधि के रूप में प्रस्तुत कर सकें। पतन का गुरुत्वाकर्षण जहाँ पूरे जोर-शोर पर हो वहाँ उत्कृष्टता की दिशा

में उछाल उत्पन्न करने के लिए प्रचण्ड शक्ति की आवश्यकता है। उसे उत्पन्न किये बिना कोई गति नहीं। स्पष्ट है कि यह शक्ति, पवित्रता और प्रखरता की उभयपक्षीय क्षमता से सम्पन्न व्यक्तियों में ही हो सकती है और किसी में नहीं। इन्हीं को तलाशना, संजोना, सिखाना, पढ़ाना और मोर्चे पर अड़ाना-लगाना अपने समय का सबसे बड़ा काम।

विश्वामित्र दशरथ के प्राणप्रिय पुत्र को इसी निमित्त अनिच्छापूर्वक उन्हें यज्ञ रक्षा के बहाने माँग ले गये थे। बला-अतिबला विद्या सिखाकर उन्हें इस योग्य बनाया था कि लंका उजाड़ने और धर्मराज्य की स्थापना कर सकने में समर्थ हो सकें। इतना महान काम कर सकने के लिए अभीष्ट आत्मबल-आत्मविश्वास निरखने के लिए उन्हें मैनाक पिनाक तोड़ने और स्वयंवर जीतने की दो आरम्भिक सफलतायें भी सम्भव बनाकर दिखाई थी। युग परिवर्तन में भी प्रत्यक्ष पराक्रम तो राम, लक्ष्मण, अंगद, हनुमान जैसों का ही था, पर जानने वाले जानते हैं कि परोक्ष भूमिका निभाने एवं सूत्र संचालन करने में विश्वामित्र की कितनी बड़ी भूमिका थी।

प्रज्ञा अभियान का वर्तमान रोल विश्वामित्र के युग यज्ञ जैसा है। इसके साथ ही जनक का धनुष यज्ञ भी गुँथा हुआ है। इस श्रेय सौभाग्य का भागीदार बनने के लिये ‘प्रज्ञावान्’ प्रज्ञा परिजनों को बुलाया गया है। वे चाहें तो लिप्सा के वशीभूत रहकर अनेकानेक बहाने भी गढ़ और कह सकते हैं। वे चाहें तो तथाकथित स्वजनों के दबाव अवरोधों को भी तिल का ताड़ बनाकर देख सकते हैं। यह उनकी इच्छा है।

अब न कहीं सुमित्रा है-न उर्मिला, जो लक्ष्मण के मस्तक पर तिलक लगाकर राम के साथ स्वेच्छापूर्वक चौदह वर्ष वनवास के लिये विदा हो सके। पाँच पुत्रों को महाभारत की महान योजना को सम्पन्न करने के लिए प्रेरित कर सकें ऐसी माँ कुन्ती भी नहीं है। अपने पुत्रों को-पाँच प्यारे शिष्यों को जो बलिदानी उपहार दे सके ऐसे गुरु गोविन्दसिंह भी अब कहीं नहीं मिलेंगे-न कहीं हरिश्चन्द्रों की परम्परा है, न भामाशाहों की।

पेट-प्रजनन की खाई में डूब मरने के अतिरिक्त और किसी को आज कुछ सूझता ही नहीं। ऐसे माहौल में व्यामोहग्रस्त मनःस्थिति को कभी भी जीवित रहते ऐसा समय नहीं मिलेगा जिसमें व्यस्तता से छुटकारा मिलने और समस्या सुलझने जैसी अनुकूलता अनुभव कर सके। बात तो साहसियों की है जो भगवान भरोसे नाव खोलते और भुजाओं के बल पर डाँड़ चलाते, मझधार में नाव खेते और किनारे तक पहुँच कर रहते हैं।

समय की माँग इतनी बड़ी और समर्थ प्रतिभाओं की भारी कमी को देखते हुए सूझ नहीं पड़ता है कि डूबते को बचाने और रेंगते को उछालने के लिए जिस सामर्थ्य की आवश्यकता है उसे कहाँ जाकर खोजा और किस प्रकार संजोया जाय। जिसकी थाली खोती है वह उसे घड़े में हाथ डालकर भी तलाशता है। आवश्यकता और आतुरता कई बार ऐसे विचित्र वानक बना लेती है। प्रज्ञा परिवार की खाना तलाशी इस दृष्टि से ली जा रही है कि इस फटी गुदड़ी में भी कहीं लाल छिपे हो सकते हैं। ये हाथ लगें तो काम चले।

धर्मतन्त्र की सामर्थ्य राजतन्त्र से किसी भी प्रकार कम नहीं। शासन व्यवस्था, सम्पदा और सुरक्षा के लिये उत्तरदाई है तो धर्मक्षेत्र का पुरोहित भी ‘वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः’ के संकल्प से वचनबद्ध होता है कि उसके रहते राष्ट्र को जीवित और जागृत रखने की जिम्मेदारी पूरी तरह उसकी रहेगी, उसमें कही कोई व्यतिरेक व्यवधान उत्पन्न न होने दिया जायगा। लोक-मानस के परिष्कार में ऐसा ज्वलन्त पुरोहित ही अपेक्षित है जो ध्वंस को निर्माण में उलटने का बुद्ध और गाँधी जैसा पराक्रम प्रस्तुत कर सके। समय की विषमता को देखते हुए अभीष्ट परिवर्तन में समर्थ युगशक्ति उपलब्ध करने के लिए ऐसे ही भागीरथों, शुनः शेपों और दधीचियों की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। महाकाल की नव सृजन की समर्थ योजना प्रस्तुत है, पर उसे वहन करने के लिये सूर्य रथ में जुतने वाले सात घोड़े भी तो चाहिए। सारथी अरुण न हो तो सविता का रथ विश्व भ्रमण के लिये कैसे निकले। चन्द्रमा तक की कुलाचें भरने वाले हिरन घर ही बैठकर धरती की परिक्रमा करते हैं। यहाँ तक कि बुद्धि के देवता लम्बोदर तक को गतिशील होने के लिये चूहे पर आश्रित रहना पड़ता है। महाकाल की युग अवतरण योजना का प्रतिनिधि प्रज्ञा अभियान भी उस वाहन की प्रतीक्षा में लाइन में खड़ा है जो उसे लादकर अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँचा सके।

प्रज्ञा परिजनों से समयदान, की युग पुकार को पूरा करने के लिये कहा जा रहा है और तथ्यों का स्मरण दिखाते हुए कहा जा रहा है कि वे समय की आवश्यकता और ऐसे अवसरों पर जागृत आत्माओं के कन्धों पर आने वाले उत्तरदायित्वों को समझें। आनाकानी न करें और नव सृजन के महायज्ञ में अपनी भावभरी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करें। व्यामोह के बन्धन ढीले करें-तृष्णाओं को सिकोड़े, लिप्साओं पर अंकुश लगाये; इतने भर से नक्शा बदल जायगा और रास्ता एक ओर से न सही दूसरी ओर से मिल जायगा। त्याग में अनख असमंजस तो होता है। अनभ्यस्त मार्ग पर चलने में डर तो लगता है, पर उसके लिए साहस न करने पर कोलम्बस की तरह नई दुनिया तलाश करना भी तो नहीं बन पड़ता। महानता के लक्ष्य पर चलकर ही उच्चस्तरीय लक्ष्यों के प्राप्त होने का स्वप्न साकार किया जा सकता है। यह इतना सस्ता नहीं है कि माला घुमाने या बाबा के सत्संग में जा बैठने भर से चुटकी बजाते हथियाया जा सके। आन्तरिक जागरुकता का एक ही दण्ड पुरस्कार है कि उन्हें बीज की तरह गलने तथा बरगद की तरह फैलने का मार्ग अन्तःप्रेरणा या दबाव भरी परिस्थिति से विवश होकर इच्छा या अनिच्छा से अपनाना पड़ता है। इसके बिना एक ओर आत्म प्रताड़ना कचोटती है दूसरी ओर समय की चीत्कार पत्थरों तक पर हथौड़े चलाती है।

प्रज्ञा अभियान मत्स्यावतार की तरह द्रुतगति से सुविस्तृत होता जा रहा है। उसकी गतिविधियों में योगदान देने के लिये देव मानवों का आह्वान अन्तरिक्ष से चल पड़ा है। कितने ही काम ऐसे हैं जिन्हें इन्हीं दिनों में पूरा किया जाता है। उनमें से एक है घर-घर अलख जगाने, जन-जन के मन-मन को युग चेतना से अवगत अनुप्राणित करने का। इसके लिए बादलों की तरह हर खेम पर बरसने के लिए परिभ्रमण करना पड़ेगा। प्रज्ञा आयोजनों की इन दिनों सुविस्तृत शृंखला चल पड़ी है। हर दिन छोटी बड़ी सैकड़ों-हजारों ज्ञान गोष्ठियों के आयोजन चल रहे हैं। इनमें युग गायकों, वक्ताओं तथा चित्र प्रदर्शनी दिखा सकने वालों की मंडलियां जीपों तथा मोटर साइकिलों में जत्थे बनाकर भेजी जा रही है। अभीष्ट उपकरणों के साथ-साथ अपना लाउडस्पीकर भी रहता है। 2400 डाक बँगले-प्रज्ञा संस्थान पहले से ही बन चुके हैं। उन्हें केन्द्र मानकर समीपवर्ती गाँव, नगरों में जन-जागरण के ज्ञान यज्ञों की व्यवस्था होती है और लोक-मानस के परिष्कार का उद्देश्य भावभरे वातावरण में सुसम्पन्न होता है।

दूसरा है शान्ति-कुँज में चलने वाली साधना और शिक्षा की सत्र व्यवस्था। युग शिल्पियों को प्रशिक्षित करने एवं तपाने के लिए एक मास के, नौ दिन के, चार दिन के सत्र निरन्तर चलते रहते हैं। इनमें सम्मिलित होने वालों से वाँछित अनेकों प्रकार की अध्यापक, व्यवस्थापक एवं श्रमिक स्तर की व्यवस्था करनी पड़ती है। इनमें से प्रत्येक हलका भारी काम ऐसा है जिसे खरीदा हुआ श्रम किसी भी प्रकार पूरा नहीं कर सकता। उसके लिए आदर्शवादी प्रतिभाओं का समयदान ही काम देता है।

इसके अतिरिक्त भी अनेकानेक प्रकार की नव सृजन योजनायें हैं जिन्हें पूरा करने के लिये घर से बाहर निकलना और शान्ति-कुँज को निवास केन्द्र बनाकर कार्यक्षेत्र में उतरना होता है। इसमें से जिसकी क्षमता जिस स्तर की है उसे वहाँ फिट कर दिया जाता है। जो अपने को उपरोक्त प्रयोजनों में से किसी के लिए उपयुक्त समझते हों वे अब शान्ति-कुँज आने की बात सोचें। अब तक के समयदानियों में से अधिकाँश ऐसे हैं जिनने अपनी संचित सम्पदा से निर्वाह का तालमेल बिठाया है। अब समय की आवश्यकता को देखते हुए उन्हें भी आमन्त्रित किया गया है जिनके पास अपने कुछ साधन तो नहीं है, पर ब्राह्मणोचित निर्वाह लेकर काम चला सकते हैं। ऐसे लोगों के सपरिवार रहने जैसी व्यवस्था भी शान्ति-कुँज में मौजूद है। जिन्हें उत्साह हो, शान्ति-कुँज के साथ संपर्क साधें और विचार विनिमय करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयत्न करें।

जो घर छोड़ने की स्थिति में नहीं हैं वे भी अपने समीपवर्ती क्षेत्र में कुछ नियमित समय देकर कुछ न कुछ करते ही रह सकते हैं। प्रज्ञा-अभियान की योजनायें ऐसी हैं जिनमें हर स्तर का व्यक्ति किसी न किसी प्रकार सहभागी बन सकता है। कौन कहाँ, किस प्रकार क्या करे इस संबंध में भी आवश्यक विचार विनियम से हर किसी को उपयोगी एवं सन्तोषजनक मार्ग मिल सकता है।


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