जीवन में स्वार्थ सोपान का समावेश

April 1983

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जीवन एक संघर्ष है। उसमें अनेक मोर्चों पर लड़े जाने वाले युद्ध में जीतने वाला कौशल अपनाना पड़ता है। जीवन का आरम्भ नहीं, अन्त ही आनन्द से भरा है। जो आरम्भ से ही आनन्द की बात सोचते हैं वे प्रगति के लिए आवश्यक संघर्ष से जी चुराते और मुँह छिपाते देखे गये हैं। जो चलेगा नहीं वह पहुँचेगा कहाँ? जो लड़ेगा नहीं सो जीतेगा कैसे?

जीवन एक खेत है जिसमें बोया जाता है वही उगता और फलता है। निकृष्टता अपनाये रहने वाले उसे सुयोग सौभाग्य से वंचित ही बने रहते हैं जो सज्जनों को मिलता और उदारजनों पर अन्तरिक्ष से बरसता है। चतुरता और कुटिलता दूसरों को ठगने डराने के काम आ सकती है किन्तु जीवन की प्रसन्नता एवं महानता से भर देने में उससे तनिक भी सहायता नहीं मिलती।

कोई रास्ता ऐसा नहीं जो काँच की तरह चिकना या सरपट दौड़ाने के लिए बनाया गया हो। यहाँ हर जगह रोड़े और खड्डे हैं जो उनसे बचते या रौंदते हुए चल सकते हैं उन्हीं का मंजिल तक पहुँचना सम्भव है। जो जूझकर बलिष्ठ बनना चाहते हैं उनके लिए यह संसार व्यायामशाला की तरह प्रिय भी है, सुहावना भी और अनुकूल भी। किन्तु जिन्हें बिना उचित मूल्य चुकाये बहुत कुछ बटोरने की ललक है, उन्हें भिक्षा वृत्ति अपनानी पड़ती है या उठाईगीरी पर उतरना पड़ता है। इस आधार पर किसी ने कुछ कमाया भी तो उसमें श्रेय सम्मान जैसी कोई बात नहीं और न गर्व गौरव की अनुभूति इस रास्ते हो सकती है।

जीवन भव-बन्धनों से जकड़ा हुआ है इसका अर्थ किसी विवशता का लदा हुआ होना नहीं वरन् यह है कि उसे संकीर्णता की परिधि में आबद्ध किया गया है। क्षुद्रता के घरौंदे से बाहर शिर निकाल कर देखा जाय तो प्रतीत होगा कि संसार कितना विशाल और महान है। घोंसले से बाहर निकल कर उन्मुक्त आकाश में अपने बलिष्ठ पंखों के सहारे उड़ने वाले पक्षी विश्व वैभव के साथ जुड़ते हैं। पेट और परिवार की तीलियों से घिरे आवरण में आबद्ध लोगों के लिए ही भव-बंधनों की जकड़न है। यह किसी की थोपी हुई नहीं वरन् स्वेच्छापूर्वक बाँधी और अपनाई गई है।

अपनी मर्जी का जीवनक्रम अपनाने में भय, संकट, पतन और विनाश की पूरी-पूरी आशंका है। अच्छा हो हम ईश्वर की मर्जी पर जियें और परमार्थ का रास्ता अपनायें। राजमार्ग को छोड़कर जो अपनी पगडंडी बनाते है उन्हें श्रम भी बहुत पड़ता है और लक्ष्य तक पहुँचने का निश्चय भी नहीं होता। बुद्धिमत्ता इसी में है कि महामानवों की राह पर चले और उन्हें अपना मार्गदर्शक चुने जो स्वयं उठे और अपने कन्धों पर बिठाकर अनेकों को ऊँचाई की झाँकी करा सकें।

त्याग का प्रतिफल स्वर्ग कहा जाता है। यहाँ त्याग का अर्थ निर्वाह साधनों, पारिवारिक उत्तरदायित्वों, नैतिक कर्त्तव्यों एवं सामाजिक अनुबंधों का परित्याग करना नहीं वरन् यह है कि क्षुद्रता को छोड़ें। संकीर्णता का दायरा तोड़ें और उन आदतों से उबरें जो पतन पराभव के गर्त में गिरती और भ्रष्ट चिन्तन दुष्ट आचरण की प्रलोभन देती हैं। त्याग से जिस स्वर्ग को प्राप्त होने की बात कही जाती है वह किसी अन्य लोक में अवस्थित ग्राम नगर नहीं वरन् श्रेष्ठता का रसास्वादन कराने वाला दृष्टिकोण भर है जब अपनी आकाँक्षा, विचारणा एवं चेष्टा सत्प्रयोजनों में निरत होती है तो आत्म-सन्तोष, लोक सम्मान तथा दैवी अनुग्रह के रूप में ऐसी अनुभूति होती है जिसे स्वर्ग की उपमा दी जा सके। इसे कोई प्रदान नहीं करता। वरन् शालीनता की चाबी से स्वयं ही इस द्वार को खोला और प्रवेश किया जाता है।

पवित्रता, प्रसन्नता, प्रखरता और दूरदर्शिता यही जीवन वृक्ष के चार प्रतिफल हैं। जिन्हें जितनी मात्रा में यह मिल सके समझना चाहिए कि उसी अनुपात से जीवन सार्थक हो गया।


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