योग एक उच्चस्तरीय विज्ञान है

April 1983

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रायल मेडिकल सोसायटी के सम्मुख सन् 1896 में चिकित्सा विज्ञान के निष्णात् डा. ग्लोस्टन ने कहा था ‘शारीरिक रोगों के उपजने बढ़ने से लेकर अच्छे होने या कष्ट साध्य बनने में मानसिक स्थिति की बहुत बड़ी भूमिका होती है। शारीरिक कारणों या परिस्थितियों का जितना सम्बन्ध रोगों के उतार-चढ़ाव का है उससे कहीं अधिक मनोदशा प्रभावित करती है। यदि व्यक्ति मानसिक दृष्टि से सुदृढ़ हो तो फिर रोगों की सम्भावना बहुत ही कम रह जायगी। आक्रमण करने पर भी वे बहुत समय ठहर न सकेंगे। इसलिए चिकित्सा के औषधि उपचार पर जितना अधिक ध्यान दिया जाता है उससे अधिक मनःस्थिति को सही बनाने का प्रयत्न होना चाहिए।

‘मन और स्वास्थ्य’ पुस्तक के लेखक हेक ट्यूक ने शरीर पर पड़ने वाले मानसिक प्रभाव का सुविस्तृत पर्यवेक्षण प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं-यों शरीर पर आहार-विहार का भी प्रभाव पड़ता है और अभाव तथा व्यतिरेक भी अपनी प्रतिक्रिया छोड़ते हैं। तो भी उस पर सर्वाधिक प्रभाव व्यक्ति के अपनी मनःस्थिति का पड़ता है। यह प्रभाव प्रतिक्रिया नाड़ी मण्डल पर 36 प्रतिशत, अंतःस्रावी हारमोन ग्रन्थियों पर 56 प्रतिशत, माँसपेशियों पर 8 प्रतिशत पाया गया है। कई रोगियों के पर्यवेक्षण पर पाया गया कि उनके शरीर में कोई ऐसी गड़बड़ी नहीं है। जिससे उन्हें गम्भीर रोगों का शिकार बनना पड़े। तो भी वे हृदयरोग, कैन्सर, कोलाइटिस, हिस्टीरिया, रक्तचाप, अनिद्रा, अपच आदि के मरीज पाये गये। कठिनाई यह भी बनी रही कि किसी औषधि उपचार से उन्हें कोई राहत न मिली। जबकि उनका चिन्तन प्रवाह मोड़ देने पर बिना उपचार के ही बहुत कुछ ठीक हो गया।

श्री हेक ने अपने प्रतिवेदन का अन्तिम निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है - फेथ (विश्वास), होप (आशा), कान्फीडेन्स (श्रद्धा), बिल (इच्छा) और सजेशन (स्वसंकेत) जैसे प्रयोगों, को अब स्वास्थ्य संवर्धन में प्रयोग किया जाना चाहिए। रोग निवारण का यह सबसे सस्ता, सुनिश्चित और हानि रहित निर्धारण है।

योगशास्त्र के निर्धारणकर्ता पातंजली गीता के प्रस्तोता व्यास और योग वशिष्ठ के उपदेष्टा वशिष्ठ का इस तथ्य पर पूर्णतया मतैक्य है कि मानसिक संयम से मनुष्य सुखी रहता और प्रगति पथ पर अग्रसर होता है। योग दर्शन में चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा है। अनियन्त्रित, अस्त-व्यस्त और भ्रान्तियों में भटकने वाली मनःस्थिति को मानवी क्षमताओं के अपव्यय एवं भक्षण के लिए उत्तरदायी बताया हैं और उनको दिशा विशेष में नियोजित रखने का परामर्श दिया है। गीताकार मन को ही मनुष्य का मित्र एवं शत्रु ठहराते हैं और उसे भटकाव से उबारकर अपना भविष्य बनाने का परामर्श देते हैं। वशिष्ठ का कहना है कि जिसने मन जीत लिया उसे त्रैलोक्य विजेता कहना चाहिए। इन प्रतिपादनों में एक ही संकेत है कि मनोदशा की गरिमा शारीरिक स्वस्थता से भी बढ़कर मानी जाय और समझा जाय कि अनेकानेक समस्याओं के उद्भव एवं समाधान का आधार इसी क्षेत्र की सुव्यवस्था पर निर्भर है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक मन की अनगढ़ कुसंस्कारिता का नियमन करना चाहिए।

आत्मानुशासन (साइकोफिजिकल डिसीप्लिन), आत्म सन्तुलन (इक्वानिमिटी ऑफ स्प्रिट) का अभ्यास ही योग साधना है। इससे नाड़ी मण्डल और स्नायु संस्थान पर इच्छित नियमन की क्षमता उपलब्ध होती है फलतः मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य अपना स्वामी आप बन जाता है। जबकि अव्यवस्थित कल्पनाओं और अनुपयुक्त इच्छाओं में उलझा हुआ व्यक्ति अपने साथ ठठोली करने और अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने जैसी विडम्बनाएँ रचता रहता है। निरोग और दीर्घायु वे ही रह सकते हैं जो अपने के स्वामी आप हैं। इच्छाओं और आदतों के गुलाम को आत्म निरीक्षण करने तक की फुरसत नहीं मिलती और न इतना साहस रहता है कि पतनोन्मुख प्रवाह को रोकें और उसे श्रेय पथ की दिशा में मोड़ें। ग्रह असमर्थता ही मनुष्य की वास्तविक दरिद्रता और दुर्बलता है। इसे हटाये बिना दुर्गति से बचने का और कोई उपाय नहीं। यही कारण है कि सुव्यवस्थित प्रगतिशील और प्रसन्नता भरा जीवन जीने के लिए आत्म नियमन सीखना होता है। शरीर निर्वाह के लिए सुविधा साधनों के सहारे काम चल जाता है किन्तु यदि इतना ही पर्याप्त न लगे और मानवोचित वरिष्ठता प्राप्त करने की आवश्यकता प्रतीत हो तो फिर उसके लिए मनोनिग्रह की व्यवस्था भी जुटानी पड़ेगी। उद्दण्डता और बलिष्ठता के सहारे अपहरण और संग्रह भर हो सकता है। आतंक में डराने और विवश करने भर की क्षमता है। स्नेह और सहयोग अर्जित करने के लिए जिन सद्गुणों की आवश्यकता है उन्हें अपने में उगाने और बढ़ाने के लिए मानसिक सुसंस्कारिता की अनिवार्य आवश्यकता हैं। उसके लिए संचित कुसंस्कारिता से जूझना पड़ता है। इसी संघर्ष को दिव्य सत्ता ने इसी के लिए दबाव देकर बाधित किया था।

धारणा (कन्सन्ट्रेशन), ध्यान (मेडीटेशन) और समाधि (कन्टम्पलेशन) के अभ्यासों में साधक को एक ही लक्ष्य प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील बनाया जाता है कि वह मन की अस्त-व्यस्तता पर नियमन करना सीखे। इसके उपरान्त ही सधे हुए मन की उत्कृष्टता की दिशा में चल सकने योग्य प्रशिक्षित पाया जा सकता है। शारीरिक और मानसिक अनुशासन (साइकोफिजिकल डिसीप्लन) बन पड़ने पर व्यक्तित्व की प्रौढ़ता परिपक्वता मानी जाती है और उसी को महत्वपूर्ण कार्य कर सकने की क्षमता एवं सम्भावना आँकी जाती है। बालकों जैसी चंचलता और लक्ष्यहीनता की स्थिति में पड़े हुए लोग बन्दरों की तरह निरर्थक उचक-मचक तो बहुत भी करते रह सकते, पर वे ऐसा कुछ कर नहीं पाते जिसे दिशाबद्ध-क्रमबद्ध या महत्वपूर्ण कहा जा सके।

योग न तो रहस्यवाद है न पलायनवाद। उसमें काय कष्ट का वैसा विधान नहीं है जैसा कि कई अतिवादी अपना दुस्साहस दिखाकर भावुकजनों पर विशिष्टता का आतंक जमाते और उस आधार पर शोषण करते देखे गये हैं। योग कल्पना लोक व अवास्तविक विचरण भी नहीं है और न उसे जादू चमत्कारों की श्रेणी में गिना जा सकता है। देवताओं की दशवर्ती बनाकर या भूत-प्रेतों की सहायता लेकर मनोकामना पूरी करने कराने जैसी ललक लिप्सा पूरी करने जैसा भी इस विद्या में कोई आधार नहीं है। योग एक विशुद्ध विज्ञान है। जिसका वास्तविक आधार है आत्मानुशासन का अभ्यास और क्षमताओं का उच्चस्तरीय प्रयोजन के लिए सफल नियोजन। जो इतना कर सकते हैं उन्हें सच्चे अर्थों में सिद्ध पुरुष कहा जा सकता है। सिद्धि का अर्थ है - सफलता। किसी सफलता? किस स्तर की सफलता? इसका उत्तर एक ही है अपने सामर्थ्य भण्डार को अस्त-व्यस्त स्थिति में बचा सकने की सफलता और आत्मा को अभीष्ट है जो जीवन का लक्ष्य है उसे उपलब्ध कर सकने के लिए आवश्यक क्षमता सम्पादन की सफलता।

गुजारे भर से सन्तुष्ट रहने वालों की बात दूसरी है। जो ज्यों-त्यों करके दिन काटने भर से काम चलाते रह सकते हैं उनके लिए भी अन्यान्य प्राणियों में पाये जाने वाले प्रकृति अनुशासन को अपनाना आवश्यक है। पशु-पक्षी निरोग सुखी जीवन जीते हुए पूर्णायुष्य पाते और मोद मनाते देखे गये हैं। इसका प्रधान कारण एक ही है प्रकृति संकेतों का पूर्णतया अनुगमन। यह भी एक स्वसंचालित योगाभ्यास है। वे भी यदि इसमें व्यतिक्रम करें और मनुष्य जैसी उच्छृंखलता अपनायें तो भयंकर विपत्ति में फंसेंगे और अस्तित्व तक गँवा बैठेंगे। मनुष्य पर छाई रहने वाली दुर्बलता, रुग्णता, खिन्नता, विपन्नता का कारण ढूँढ़ने पर जो तथ्य सामने आता है वह प्रकृति अनुशासन की अवहेलना ही कहा जा सकता है।

मानवी विशेषता में उसके चेतन स्तर को ही दैवी विभूति माना गया है। वह उसे प्रचुर परिणाम में उपलब्ध है, उसका सुनियोजन और सदुपयोग तो चाहिए भी। यह न बन पड़े तो समझना चाहिए कि दुरुपयोग से अमृत के भी विष हो जाने की कहावत इस क्षेत्र में भी लागू होगी और मानसिक क्षमता की विशेषता उलटी विपत्तियाँ खड़ी करेगी। जैसा कि सामान्य जनों को निर्वाह सुविधा उपलब्ध रहने पर नाना प्रकार के शोक सन्तापों से ग्रसित देखा भी जाता है। अन्य प्राणियों की पदार्थ विनिर्मित शरीर मिला है वे पदार्थ परम्परा के अधिष्ठानों-प्रकृति के निर्धारित अनुशासनों को समझते पालते और सुखी रहते है। मनुष्य को न केवल शरीर वरन् उच्चस्तरीय मनःसंस्थान भी मिला है। इसलिए समझदारी बताती है कि उसे दुहरी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। शारीरिक स्वस्थता के लिए प्रकृति अनुशासन और मानसिक विशिष्टता के लिए उसे आत्मिक अनुशासन अपनाना चाहिए। इस क्षेत्र में जो असन्तुलन बन पड़ा है उसे सुधारने के लिए योगाभ्यास आवश्यक है। इस सुधार प्रयोजन के बिना यह सम्भव नहीं कि मानवी क्षमताओं का उपयुक्त प्रयोजनों के लिए उपयुक्त रीति-नीति अपनाते हुए-उपयुक्त नियोजन सम्भव हो सके।

शारीरिक व्याधियों और मानसिक आधियों से छुटकारा पाना ही नहीं, अवाँछनीय आदतों के कारण उत्पन्न होती रहने वाली विषम परिस्थिति से निपटने के लिए परिष्कृत मनोभूमि चाहिए। महत्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए कुछ कर सकना तो इसके बिना बनता ही नहीं इसलिए मानसिक दक्षता की उपयोगिता समझने वाले हर व्यक्ति को योगाभ्यास की बात सोचनी और व्यवस्था बनानी चाहिए।

महामानवों में से प्रत्येक को अन्तः चेतना की उत्कृष्टता (हाई लेवल कान्सेन्स) को किसी न किसी प्रकार अर्जित करना ही पड़ा है। जो उस दिशा में बढ़ना चाहते हों उनके लिए सरल और सुनियोजित विधि-व्यवस्था योगाभ्यास की सामने है। बलिष्ठता के लिए व्यायाम, विद्वता के लिए अध्ययन, उपार्जन के लिए पराक्रम की जिस प्रकार आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार मनस्वी बनने के लिए योग साधना का स्वरूप समझें तथा प्रयोग करने की दिशा में भी कदम बढ़ाने चाहिए।

सन् 1963 में औषधि विज्ञान की खोज पर नोबेल पुरस्कार विजेता जान एकल्स ने कहा था-‘वे सिद्ध कर सकते हैं कि हर मनुष्य के पास एक जीव रसायन तथा रहस्यमयी ऊर्जा से बना एक ऐसा पदार्थ प्राप्त है जिसे आत्मा कहा जा सकता है।”

जीव विज्ञान की सूक्ष्म तांत्रिकी शाखा के वैज्ञानिक अब आत्मा के सम्बन्ध में जिस निष्कर्ष पर पहुँचे है वह इस संबंध में धार्मिक क्षेत्र में जो कहा जाता रहा है उससे बहुत भिन्न नहीं है। कृत्रिम कणों के समूह की एक सघन सत्ता का अस्तित्व अनुभव में आ रहा है, इसमें ताप, विद्युत आदि की मूलभूत संरचना का अनोखा समन्वय देखा गया है। रहस्यमय होते हुए भी यह सत्ता ऐसी है जिसका अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।

कैलेच विश्वविद्यालय के प्राध्यापक रोजर स्पेरी को सन् 1981 में रासायनिक अध्ययन पर नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका आत्मा के संबंध में कहना है कि यह एक सुनिश्चित तथ्य है। रासायनिक पदार्थों के मस्तिष्कीय गुणों के संबंध होने पर एक ऐसी सत्ता बन जाती है जो न केवल मनःक्षेत्र के 10 अरब न्यूरोनों पर वरन् समूचे शरीर पर अपना शासन चलाती है। इसका कार्य क्षेत्र सीमित नहीं वरन् असीम एवं व्यापक है।

भौतिक शास्त्र में 1963 के नोबेल पुरस्कार विजेता यूजीन डिगमर ने आत्मा को ऐसी अचेतन सामर्थ्य कहा है जो चेतन का नियन्त्रण और सूत्र संचालन करती है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के भौतिकी विशेषज्ञ ब्रियान जोसेफन ने लिखा है - मानवी सत्ता एक ऐसा गठन है जो रसायनों और ऊर्जाओं के साथ गुथा रहने पर भी उनके अधीन नहीं है वरन् अपनी सत्ता को चेतना सम्पन्न होने के कारण अपने क्षेत्र पर पूरी तरह शासन करता है।

स्प्रिचुअल सोसायटी के अध्यक्ष जान एकिल्स ने कहा है - हम आत्मा की प्रत्यक्षता का क्रमशः अधिकाधिक अनुभव करते जा रहे हैं। वह दिन दूर नहीं जब वह अदृश्य या अविज्ञात न रहकर सामने प्रस्तुत होगी। उसे हम उसी तरह अनुभव कर सकेंगे जैसे संबंध अन्य शक्तियों का स्पष्ट अनुभव करता है।

आत्मा रसायन है, ऊर्जा या ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाचेतना की एक अविच्छिन्न इकाई है। यदि एक विवाद में न पड़ा जाय तो भी यह मानना होगा कि वह जो भी है वह असाधारण सामर्थ्य की पुँज है। उसकी रहस्यमय परतें ऐसी है जिन्हें जगाने, उभारने, सुधारने और सही रीति से प्रयुक्त कर सकने की क्षमता अर्जित कर सकने वाला कोई भी व्यक्ति अपनी विशिष्टता का परिचय दे सकता है। इस समर्थता को अर्जित करने के लिए योग साधना ही एक असंदिग्ध मार्ग है।

अमेरिकी हिल्टन होटल शृंखला के मालिक कोनराल्ड हिल्टन अपने समय के गिने चुने धन कुबेरों में से एक थे। अनवरत रूप से मिलती गई सफलताओं का कारण वे ‘भीतर की आवाज’ को बताते थे। उनके साथ गणित और तथ्यों के आधार पर योजनाएँ बनाते थे और हिल्टन के आधार को अवैज्ञानिक बताते थे तो भी यह बात आश्चर्यजनक ही बनी रही कि ‘भीतरी आवाज’ ने कभी धोखा नहीं खाया जबकि तथ्यानुयायी अनेक बार असफल रहे और घाटे की चपेट में आये। यह रास्ता उन्होंने अलास्का हिमाच्छादित प्रदेश में तेल की खुदाई का ठेका लेने वाले लिडलेन हेस से सीखा था। उन्होंने वह दुस्साहस भरा काम हाथ में लिया था और असाधारण धन तथा यक्ष कमाया था। हेस अपने पुरुषार्थ को दाँव कहते थे और उस बाजी को जीतने में अंतःप्रेरणा के मार्गदर्शन को श्रेय देते थे।

विभिन्न क्षेत्रों में असाधारण सफलता पाने वाले लोगों की विशेषता का क्या कारण हो सकता है यह जानने के लिए दो रहस्यवादी अनुसंधानकर्ताओं ने कदम बढ़ाया और उस स्तर के लोगों के साथ संपर्क साधा। ऐसे सफल लोगों में उद्योगपतियों को प्रथम महत्व का समझा जाता है। इसलिए उन्होंने उस वर्ग को प्रधानता देते हुए अन्य क्षेत्र के लोगों को भी द्वितीय-तृतीय श्रेणी का गिना और अनुसंधान का कार्यक्रम बनाया। इस अन्वेषण के निमित्त की गई पूछताछ से पता चला कि उनमें से अधिकाँश को भीतर की आवाज पर विश्वास था और असमंजस की घड़ियों में उन्होंने उन्हीं का सहारा लेकर कदम बढ़ाया है।

यह क्षमता किन्हीं में जन्मजात रूप से उत्पन्न हुई या अनुमान से मिली भी हो सकती है कोई उसे योगसाधना द्वारा भी उत्पन्न कर सकते हैं। किन्हीं-किन्हीं में अनायास ही प्रकट होते देखा जाता है। यह प्रकटीकरण यह बताता है कि यह क्षमताएँ तो हर किसी में विद्यमान है, पर उनका दृश्य स्वरूप यदि संयोगवश देखा जा सकता है तो यह आशा करने का भी औचित्य है कि प्रयत्नपूर्वक उन्हें जागृत किया जा सके तो उन्हें भी वैसी ही मानसिक विशेषताओं की तरह प्रयुक्त किया जा सके जैसी कि कला-कौशल आदि के रूप में जगाया और काम में लाया जाता है। अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न मनुष्यों के कितने ही उदाहरण समय-समय पर सामने आते रहते हैं।

चेतना क्षेत्र की इन्हीं विशेषताओं में अतीन्द्रिय क्षमताओं का क्षेत्र आता है। सामान्यतया मानवी क्रिया प्रक्रिया की एक छोटी सीमा है। आँखें एक सीमित दूरी तक ही देख सकती है। बुद्धि उन्हीं का अनुमान लगा सकती है जो किन्हीं प्रमाणों या साधनों से जाना जा सके। इसके अभाव में उसे बहुत दूर की, कालान्तर की, देशान्तर की जानकारियाँ प्राप्त कर सकने की क्षमता नहीं है किन्तु ऐसा भी देखा गया है कि इन जानकारियों को प्राप्त किया जा सका तो मस्तिष्क तथा इन्द्रिय तन्त्र की पकड़ से सर्वथा बाहर हैं। इसे अतीन्द्रिय क्षमता कहते हैं। मानवी मस्तिष्क का एक अविज्ञात निष्क्रिय पक्ष जिसे शरीर शास्त्री ‘डार्क एरिया’ के नाम से पुकारते हैं। सामान्य ज्ञान व्यवहार में मानवी मस्तिष्क का बहुत थोड़ा प्रायः सात प्रतिशत अंश ही काम में आता है। 93 प्रतिशत क्षेत्र यही प्रसुप्त क्षेत्र है। जिसके बारे में शरीर शास्त्री मनःशास्त्री यह जानने में समर्थ नहीं हो सके कि यहाँ क्या छिपा है, और उसे किस प्रकार किन प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।

तत्व ज्ञानी इस प्रसुप्त क्षेत्र को अतीन्द्रिय क्षमता सम्पन्न कहते हैं। इसका कुछ भाग यदाकदा अपनी रहस्यमय परतों की थोड़ी झाँकी कराता है तो प्रतीत होता है कि हर किसी में वे विशेषताएँ विद्यमान हैं जो यदा-कदा सिद्ध पुरुषों द्वारा प्रकट होती देखी जाती है।


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