सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में संव्याप्त प्राणतत्व ही हमारी स्थिति, गति एवं क्रिया का आधार है। उसी समष्टि व्यापी प्रखर तत्व को ब्रह्माग्नि कहा जाता है। व्यष्टि में समाहित उसी प्राण सत्ता को आत्माग्नि कहा जाता है। व्यष्टि से समष्टि तक, पिण्ड से ब्रह्माण्ड तक यही एक तत्व लघु और विभु-असंख्य रूपों में गतिशीलता को जन्म दे रहा है। उसी की स्फुरणाएँ स्तर-भेद एवं उपभेद से भिन्न भिन्न नाम धारण करती तथा भिन्न भिन्न प्रक्रियाओं और परिणामों को जन्म देती हैं। उसके बिना अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अस्तित्व या स्थिति और गति दोनों का आधार यही प्राणतत्व है।
सृष्टि का अस्तित्व गति में है। स्फुरणा प्रत्येक वस्तु में है। छोटे से छोटे परमाणु से लेकर ग्रह, नक्षत्र, सूर्य सभी पिण्ड पदार्थ गतिशील हैं। प्रकृति में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। स्थिर दिखायी पड़ने वाली वस्तुओं के अन्तराल में भी प्रचण्ड गति हो रही है। एक अणु भी यदि गतिहीन हो जाय तो सारी व्यवस्था लड़खड़ा उठेगी। घटनाएँ अलग-अलग दीखते हुए भी परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध होने के कारण एक सामान्य अणु की स्थिति का कुछ न कुछ प्रभाव सारे ब्रह्माण्ड के ऊपर पड़ता है। अनवरत स्फुरण से ही विश्व का व्यापार हो रहा है। पदार्थ शक्ति द्वारा संचालित है। जिसके कारण अगणित रूप एवं भेद उत्पन्न हो रहे हैं। किन्तु ये रूप एवं भेद भी स्थायी नहीं है। परिवर्तन की शृंखला में आकर वे भी नया रूप ग्रहण कर लेते हैं। कोई भी वस्तु नित्य एवं स्थायी नहीं हैं। किन्तु स्थिति, क्रिया एवं गतिशीलता का मूल तत्व स्थायी है। वही प्राणतत्व है। परिवर्तन भी उसी की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ मात्र हैं।
शरीर को ही लें तो पता चलता हैं कि इसमें भी परमाणु अनवरत स्फुरण कर रहे हैं। थोड़े ही दिनों में पूरा शरीर परिवर्तित हो जाता है। इन सभी प्रकार के स्फुरणों में एक ही प्राणतत्व की क्रमबद्ध ताल है। जो सर्वव्यापक एवं सभी छोटे पिण्डों से लेकर ब्रह्माण्ड में कार्य कर रहा है। ग्रहों के सूर्य के चारों और घूमने, समुद्र के उभरने, ज्वार के उठने, भाटा के बैठने, हृदय की धड़कन, पदार्थों के परमाणुओं की फड़कन सबमें इसी के क्रमबद्ध ताल का नियम कार्य कर रहा है। सूर्य किरणों का निस्सारण, जलवृष्टि सभी उसके अंतर्गत आते हैं। मानव शरीर भी प्राणतत्व के ताल-नियम के वशवर्ती उसी प्रकार है, जिस तरह ग्रहों का सूर्य के चारों ओर घूमना।
इस प्राणतत्व कि मात्रा और चेतना जिन पिण्डों में अपेक्षाकृत अधिक और उन्नत स्तर की होती है, उसे प्राणी कहा जाता है। मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ एवं समर्थ इसीलिए है कि उसमें प्राणतत्व का औरों की अपेक्षा बाहुल्य रहता है।
सजीवता, प्रफुल्लता, स्फूर्ति, सक्रियता जैसी शारीरिक विशेषताएँ प्राणतत्व की प्रखर किरणें ही तो हैं। मनस्विता, तेजस्विता, चातुर्य, दक्षता, प्रतिभा जैसी मानसिक विभूतियाँ इसी प्राण समुद्र की प्रचण्ड तरंगों की संज्ञाएँ हैं। कारण शरीर में अभिव्यक्त यही तत्व सहृदयता, करुणा, कर्तव्यनिष्ठा, संयमशीलता, तितीक्षा, श्रद्धा, सद्भावना, समस्वरता जैसी प्राण-सम्वेदनाओं समझने वाला मनुष्य प्रकृति-नटी का प्रिय साथी बन जाता है। वह सृष्टि की सौंदर्य प्रक्रिया और आनन्द-प्रक्रिया को समझकर उसमें अपना भी योग देता है। किन्तु इन नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति उसमें व्यवधान उत्पन्न करता है। सुन्दर सुमधुर संगीत की स्वर लहरी के बीच कोई बेसुरा स्वर जिनने सुना है और कुशल नृत्य मण्डली की झंकृत लय-ताल के बीच कभी किसी आकस्मिक कारण से विक्षेप होते जिनने देखा है, वे ही जान-समझ सकते हैं कि ऐसी बेसुरी आवाज और ऐसा अनुचित विक्षेप कितना अप्रिय लगता है, कितने उद्वेग का कारण बनता है। प्रकृति में संव्याप्त प्राणतत्व के लय-ताल के नियमों से अनभिज्ञ व्यक्ति भी प्रकृति नटी की ऐसे ही के रूप में प्रकट होता है प्राण वह विद्युत है, जो जिस क्षेत्र में, जिस स्तर पर भी प्रयुक्त होती है, उसी में चमत्कार उत्पन्न कर देती है।
इस प्राण-शक्ति की सक्रियता के निश्चय नियम हैं। इसकी प्रत्येक स्फुरणा में लय है, ताल है। वस्तुतः सर्वत्र यह प्राणतत्व नटराज निरन्तर नृत्य-निरत रहता है। इसके नृत्य की हर भंगिता में लास्य है। सौंदर्य है, रस है, भाव है, आनन्द है। प्राणों का नृत्य ही जीवन है। जीवन-शक्ति प्राण-शक्ति का ही दूसरा नाम है।
अध्यात्म शास्त्र में प्राण तत्व की गरिमा का भाव भरा उल्लेख है। प्राण की उपासना का आग्रह किया गया है। इसका तात्पर्य इसी प्राणतत्व की लय-तालबद्धता के नियमों को जानना और उससे लाभ उठाना है। यही प्रखर, पुष्ट प्राण संकल्प बनकर प्रकट होता और सिद्धि का आधार बनता है। प्राण को आकर्षित करने में सफलता उन्हें ही मिल सकती हैं, जो इस लय-ताल की विधि को समझते और अपनाते हैं। योगी इसी विधि को जानकर प्राणाकर्षण द्वारा प्राण संवर्धन में समर्थ होते हैं।
लय-ताल की एकतानता का चमत्कारी प्रभाव देखा जाता है। सेना के पुल पार करते समय उनके कदम के क्रमबद्ध ताल को तोड़ दिया जाता है। ऐसा न किया जाय तो उत्पन्न होने वाली प्रतिध्वनि से पुल के टूटने का खतरा हो सकता है। वेला वाद्य यन्त्र पर एक स्वर को तालयुक्त बारम्बार बजाया जाय तो पुल टूट जायेगा। यह तालबद्धता की शक्ति है।
तालयुक्त श्वास प्रक्रिया द्वारा ही अन्तरिक्ष में संव्याप्त प्राण-तत्व को अधिक मात्रा में खींचा एवं अपने अन्दर भरा जाता है। इस प्रक्रिया में जितनी दक्षता प्राप्त होती जाती है, उतनी ही सामर्थ्य भी बढ़ती जाती है। प्राणाकर्षण का विकसित रूप वह है, जिसमें श्रद्धा निष्ठा का समावेश होता है और जो प्राणतत्व की चेतना को भी आकर्षित करने तथा धारणा करने में समर्थ होता है। उस स्थिति में वह तत्व ब्रह्म प्रेरणा बनकर भीतर आता है। यह प्राणविद्या की परिपक्व उच्चस्तरीय अवस्था है। प्राणविद्या का प्रारम्भिक अंश वह है, जो गहरे, लय-तालबद्ध श्वास-प्रश्वास के अभ्यास से आरम्भ होता है। इसमें श्रद्धा की मात्रा उतनी बढ़ी-चढ़ी नहीं रह पाती। मात्र स्वास्थ्यप्रद, स्फूर्तिदायक प्राणशक्ति को भीतर गहराई तक खींचने और धारणा करने का ही भाव रहता है। आरम्भिक अभ्यासियों के लिए इतना ही पर्याप्त है।
हल्के और विश्रृंखलित श्वास-प्रश्वास से फेफड़ों तक के सारे हिस्से लाभान्वित नहीं हो पाते। इसीलिए जो लोग गहरे श्वास-प्रश्वास का पर्याप्त अभ्यास नहीं करते और न ही, सुदीर्घ श्वसन को प्रेरित करने वाला श्रम करते, वे शरीर के पोषण के लिए वाँछित पर्याप्त प्राण-शक्ति तक वायुमण्डल से नहीं खींच पाते और बीमार पड़ जाते हैं। इसलिए सुदीर्घ श्वास लेने योग्य परिश्रम करना, अथवा उसका नियमित अभ्यास करना स्वास्थ्य-लाभ एवं स्वास्थ्य-संरक्षण के लिए अनिवार्य है। यह शरीर-शक्ति की बात हुई।
मनःशक्ति के अभिवर्धन के लिए प्राण-प्रक्रिया को लय-तालयुक्त रखना आवश्यक है। प्रसन्नता, उत्फुल्लता, सरसता और स्फूर्ति की प्राप्ति का यही उपाय है। इसीलिए मनःशक्ति के विकास के आकाँक्षी व्यक्ति को लय-तालयुक्त श्वास-प्रक्रिया का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। प्राणायाम की विशिष्टता भी उसके लय-तालबद्ध होने में ही है। सोऽहम् साधना प्राण-प्रक्रिया की इसी लय-तालबद्धता का विकसित रूप है। अनायास फूट पड़ने वाली गुनगुनाहट प्राणतत्व की इसी लय-ताल की हठात् अभिव्यक्ति है। साधकों और उत्कर्षशीलों को इस लय-तालबद्ध श्वास-प्रश्वास का सचेत अभ्यास करना चाहिए। श्वास-प्रश्वास की स्वयं की सामान्य गति निश्चित कर ली जाय और प्रयास किया जाय कि अधिकाधिक समय इस गति में एकतानता, समस्वरता बनी रहे। आरम्भ यहीं से किया जाता है। आगे इस अभ्यास को सूक्ष्म, उच्चस्तरीय, श्रद्धासिक्त बनाया जाता है। जिसका सर्वोत्कृष्ट रूप है सोऽहम् की सहज-साधना। उस लक्ष्य की प्राप्ति तो बाद की बात है। किन्तु प्राणतत्व का अधिकाधिक लाभ लेना चाहने वालों को लय-तालयुक्त श्वास-प्रक्रिया का अभ्यास तो आरम्भ कर ही देना चाहिए।