ग्रहण और उनकी प्रतिक्रियाएँ

April 1983

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सूर्य और चन्द्र पर लगने वाले ग्रहण क्या है? इस संदर्भ में अब तो प्राथमिकशाला के विद्यार्थी भी बता सकते हैं कि चन्द्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने और सूर्य प्रकाश को उस तक पहुँचने में बाधा पड़ने का दृश्य ही चन्द्र ग्रहण है। इसी प्रकार सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने देने में जब चन्द्रमा व्यवधान उत्पन्न करता है तो उसे सूर्य ग्रहण कहते हैं। पर ऐसी मान्यता सदा से नहीं थी। खगोल विज्ञान का उपयुक्त ज्ञान जब तक सर्व साधारण को नहीं था तब तक मात्र अटकलों और किंवदंतियों के सहारे ही तद् विषयक समाधान किये जाते थे।

ग्रहण के समय याचक लोग शोर मचाते, ढोल बजाते और निकलने वाले दैत्यों की भर्त्सना में जोर-जोर से अपशब्द कहते सुने जाते हैं। धार्मिक लोग उस समय विशेष रूप से जप-तप और दान पुण्य करते है। विश्वास किया जाता है कि राहु केतु नामक दैत्य सूर्य चन्द्र पर आक्रमण करके उन्हें निगलने का प्रयत्न करते हैं। जितना अंग उनके मुँह में घुस जाता है उतने से ग्रहण दृष्टि गोचर होता है। इस प्रताड़ना से इन देवताओं को बचाने के लिए दान पुण्य जप तक काम आता है इसलिए कृतज्ञता निर्वाह के लिए वैसा करने की आवश्यकता समझी और पूरी की जाती है।

चीन देश में मान्यता थी कि आकाश के दोनों सिरों पर ड्रैनग परिवार समेत बसते हैं। जब परिभ्रमण करते हुए चन्द्र सूर्य उनकी समीप से गुजरते हैं तब वे दैत्य उन पर टूट पड़ते हैं। मनुष्य लोक का शोर सुनकर ही वे डरकर भागते और इन देवताओं को मुख में उगलते हैं। यूनान में भी ग्रहण को दैत्यों का आक्रमण माना जाता रहा है। अमेरिकी रैड इण्डियन और अफ्रीकी हब्सी उस समय सूर्य चन्द्र के बीमार पड़ने की किम्वदंती पर विश्वास करते हैं। अन्यान्य देशों में उसे भेड़ियों-कुत्तों, बाघों, साँपों का आक्रमण होने की मान्यता है। प्रशान्त के तराहती द्वीप वासियों की कल्पना इन सबसे अनोखी है। वे सूर्य को प्रेमी और चन्द्र को प्रेमिका मानते हैं और कभी सुयोग मिलने पर उनके मधुर मिलन की बेला को ग्रहण मानते हैं। उस दृश्य को देखने में वे लज्जा अनुभव करते हैं और मुँह छिपाते फिरते हैं। फलित ज्योतिषी ग्रहणों को धरती के लिए, प्राणियों तथा वनस्पतियों के लिए अनिष्ट कर मानते हैं और इस आधार पर भावी विपत्तियों का आकलन करते हैं। तन्त्र मन्त्र पर विश्वास करने वाले सोचते हैं कि यह अवसर देव या प्रेत सिद्धि के लिए उपयुक्त मुहूर्त है। उस समय वे वैसे ही विधि-विधानों में प्रवृत्त रहते हैं।

अमेरिका के आदिवासियों का विद्रोह शान्त करने के लिए भी कोलम्बस ने ऐसी ही चतुरता से काम लिया। उसने बागियों के नेताओं को बुलाकर कहा-तुम्हारे कृत्यों से देवता बहुत नाराज है। वे पूर्व सूचना के रूप में अमुक दिन चन्द्रमा को अपनी झोली में डालकर ले चलेंगे और तुम्हारे ऊपर विपत्ति बरसने का शाप देंगे। नियत समय पर आदिवासी एकत्रित हुए और उनके उस पूर्व कथन को सर्वथा सच पाया। फलतः वे बुरी तरह डर गये और विरोध छोड़कर कोलम्बस का सहयोग करने लगे।

अन्ध विश्वास किसी भी विचित्र घटना के साथ जुड़ सकते हैं। इन्द्रधनुष, बिजली की कड़क को देवताओं की करतूत माना जाता है। और डरे हुए लोगों द्वारा उनका कोप शमन करने तथा अनुग्रह पाने के लिए पूजा प्रार्थना का विधि-विधान अपनाया जाता रहा है। ग्रहण भी ऐसे ही देव विग्रह का एक स्वरूप समझा जाता रहा है और कई बार तो उस मान्यता से चतुर लोगों द्वारा लाभ भी उठाया जाता रहा है।

चीन के ज्योतिषी अब से चार हजार वर्ष ग्रहणों की भविष्यवाणी करने लगे थे। यूनानियों ने भी इस गणित को जाना और वे भविष्यवक्ता के रूप में अपनी सिद्धावस्था प्रामाणित करने लगे। एक बार तो उन्होंने इस आधार पर एक बड़े संकट को टाल देने जैसा लाभ भी उठाया। यूनान के मेडीज और लाइडियन्स के बीच जोरदार युद्ध छिड़ा हुआ था। ज्योतिषी बेलीज ने इन दिनों बड़ी चतुरता से काम लिया और घोषित किया कि इस युद्ध से सूर्य देवता अत्यधिक कुपित हैं और अपने रोष का प्रदर्शन करने के लिए वे 28 मई सन् 585 को काले पड़ जायेंगे। इस संकेत में उनका अभिप्रायः यह होगा कि युद्ध करने वाले यदि रुके नहीं तो उनके ऊपर दैवी प्रकोप बरसेगा और तहस-नहस करके रख देगा।

भविष्यवाणी सच निकली। सभी ने सूर्य को दिन-दहाड़े कुपित होते और काला पड़ते देखा। फलतः सन्नाटा खिंच गया। सैनिकों ने हथियार डाल दिये। युद्ध रुका और तत्काल सन्धि हो गई।

भारत के ज्योतिषियों ने ग्रह गणित से यह जान लिया था कि 223 चन्द्र मासों अर्थात् 6545 दिनों बाद ग्रहणों की गतिचक्र की पुनरावृत्ति होने लगती है। इस सिद्धान्त के हस्तगत होने से हजारों वर्ष आगे के सूर्य चन्द्र ग्रहणों की भविष्य वाणियाँ करना सम्भव हो गया। इसी आधार पर आस्ट्रिया के देवज्ञ थियोडोर आपोल्जेर ने एक विवरण पत्र में प्रकाशित किया जिसमें भावी 8000 सूर्य ग्रहणों और 5200 चन्द्र ग्रहणों की तारीखें तथा घण्टा मिनटें दी गई है। इसमें 7207 से 2162 तक के निर्धारण छपे है। वस्तुतः इन सबकी पृष्ठभूमि भारतीय ज्योतिष शास्त्र ही रही है।

सूर्य ग्रहण की बेला पर वैज्ञानिक शोधों के निमित्त बड़ा अनुकूल माना जाता है। आमतौर से दिन में तारे नहीं दीखते पर यदि किसी गहरे कुंए में झाँककर देखा जाय तो पानी की परछाई में दिन के समय भी तारे देखे जा सकते हैं। इसका कारण कुंए के भीतर उस सूर्य प्रकाश का न पहुँचना है जो धरातल पर चारों ओर छाया रहता है और तारक दर्शन से आँखों को वंचित रखे रहता है। यही स्थिति सूर्य ग्रहण के समय भी होती है। यदि उस समय खग्रास हो अथवा अधिक ढका हो तो प्रकृति की उन विलक्षणताओं को खोजा जा सकता है जो सूर्य की सामान्य गर्मी रोशनी के कारण देखने, समझने, पकड़ने में नहीं आती।

भूतकाल में कितने ही महत्वपूर्ण अनुसंधान सूर्यग्रहण की अवधि में ही सम्भव हुए हैं। विज्ञानी लाकेयर और जान्सन की संयुक्त खोजों से 1868 में सूर्य के वातावरण में एक नया तत्व ‘हीलियम’ खोजा था।

प्राणी तथा पदार्थ एक अभ्यस्त एवं सामान्य वातावरण में रहने के अभ्यासी होते हैं। पर ग्रहण बेला में न केवल प्रकाश ही घटता है वरन् वातावरण में और भी बहुत कुछ परिवर्तन हो जाता है। इसकी जानकारी पक्षियों को विशेष रूप से मिलती है। फलतः वे डरकर अपने घोंसलों में जा घुसते हैं जबकि उससे भी अँधेरा करने वाली बदली आसमान पर छा जाने के समय उनकी सामान्य गतिविधियों में कोई अन्तर नहीं पड़ता। वातावरण का यह विचित्र परिवर्तन, सामान्य जीवन तथा पदार्थों पर भी विशेष रूप से पड़ता है। फलतः उसकी स्थिति में सावधानी रखने तथा सुरक्षा बरतने की आवश्यकता होती है। गर्भिणियों तथा भ्रूणों पर पड़ने वाले प्रभाव का इन दिनों विशेष रूप से आकलन उन्हीं तथ्यों को ध्यान में रखते हुए किया जा रहा है।

इस वर्ष 1983 में भी चन्द्र ग्रहणों और सूर्य ग्रहणों की एक बड़ी शृंखला है। एक वर्ष के भीतर ही छह पड़ेंगे। जिनमें से कुछ पड़ चुके कुछ पड़ने वाले हैं। इतनी धमाचौकड़ी पिछले हजारों वर्षों से नहीं मची। इनके साथ जुड़ी हुई अस्त-व्यस्तता को देखते हुए हमें भावी कठिनाइयों का ध्यान रखते हुए अधिक आत्म-बल बढ़ाना और साहस सँजोना चाहिए।


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