इसमें कोई सन्देह नहीं है कि मनुष्य के जीव में ईश्वर का अविनाशी अंश होने के कारण अपने पिता की सभी विशेषताएँ विद्यमान है। छोटे-से शुक्राणु में समूचे मनुष्य का परिपूर्ण ढाँचा विद्यमान रहता है। परमाणु के घटकों में पूरे सौर-मण्डल स्तर की गतिविधियाँ काम कर रही होती है। बीज में समूचे वृक्ष का ढांचा विद्यमान रहता है। इस अखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त भौतिक शक्तियों एवं आत्मिक विभूतियों का जो भाण्डागार भरा पड़ा है, वह बीज रूप में मानवी सत्ता के भीतर विद्यमान है। ब्रह्माण्ड का छोटा स्वरूप पिण्ड मनुष्य कलेवर है। इसके गर्भ में ब्रह्म चेतना की सभी विशेषताएँ एवं क्षमताएँ प्रसुप्त स्थिति में मौजूद है। आत्म-साधना के द्वारा इस प्रसुप्ति को जागृति में बदला जा सकता है। सामान्य से असामान्य बन सकने की इस प्रक्रिया को आत्म-साधना का एक अंग कहा जा सकता है। अतीन्द्रिय क्षमता का विकास-अलौकिक ऋद्धि-सिद्धियों का दिव्य वरदान इसी प्रक्रिया के अंतर्गत आता है।
उपयोगिता की दृष्टि से जितना महत्व भौतिक प्रगति एवं व्यवस्था का है उससे अधिक महत्व आत्म चेतना के परिष्कार का है। पदार्थ का उपयोग तो चेतना ही करती है। यदि इस मूल सत्ता का स्वरूप ही अनगढ़ एवं विकृत बना रहा तो फिर पदार्थों का बाहुल्य होते हुए भी उनका सदुपयोग न हो सकेगा और दुरुपयोग से तो अमृत भी विष बनते देखा गया है। चेतना का स्तर ऊँचा हो तो आन्तरिक उत्कृष्टता के कारण अभावग्रस्त परिस्थितियों एवं प्रतिकूलताओं के बीच रहते हुए भी हँसता-हँसाता, हलका-फुलका जीवन जिया जा सकता है। इसके विपरीत अन्तःक्षेत्र में विकृतियाँ भरी रही-अनगढ़पन बना रहा तो फिर रावण जैसा वैभव होने पर भी नारकीय दुर्गति का वातावरण बनेगा। अस्तु विचारशीलों के भौतिक प्रगति के लिए किए गए साधना प्रयासों की तुलना में आत्मिक प्रगति के लिए किए जाने वाले पुरुषार्थ का असंख्य गुना महत्वपूर्ण बताया है।
इस दिशा में कोई भी प्रभावशाली कदम तभी उठाया जा सकता है, जबकि आत्मचेतना के स्वरूप, उद्देश्य और दिशाधारा के निर्धारण में अध्यात्म-विज्ञान का सहारा लिया जाय। उसी आधार पर यह सम्भव हो सकता है कि मनुष्य तन धारी जीव अपनी प्रतिभा एवं प्रखरता को समुन्नत बनाते हुए महामानव कहलाने का अधिकारी बन सके। आत्मा और समूची मानव जाति को आगे बढ़ाने-ऊँचा उठाने का श्रेय प्राप्त किया जा सके।
अपनी-युग की सबसे बड़ी माँग यह है कि भौतिक प्रगति पर आध्यात्मिकता का अंकुश स्थापित हो। अन्यथा बढ़ा हुआ वैभव उद्दण्ड तक्षक की तरह अपने दूध पिलाने वाले को ही दंश लेगा। सम्पदा और कुशलता का लाभ तभी है जब उन्हें सदुद्देश्य के लिए नियोजित किया जा सके अन्यथा उनकी विकृति विनाश के लिए सरंजाम ही रचेगी। विज्ञान की प्रगति ने सुख-साधनों की निश्चित रूप से वृद्धि की है। यह अभिवृद्धि जहाँ सुखद है, वहाँ निरंकुश बनते जाने के कारण एक भयावह समस्या भी है। सद्ज्ञान सम्वर्धन से ही इसका सन्तुलन बैठेगा। विज्ञान और तत्वज्ञान के सन्तुलित पहिए ही प्रगति रथ को सुनियोजित रूप से आगे बढ़ा सकने में समर्थ होंगे। यह प्रयोजन अध्यात्म विज्ञान के प्रति उसी स्तर की अभिरुचि उत्पन्न करने से सम्भव होगा जैसी कि इन दिनों भौतिक उपलब्धियों के लिए आकुलतापूर्वक संलग्न हो रही है।
आत्मिक प्रगति के दो आधार है-एक ज्ञान दूसरा विज्ञान। ज्ञान पक्ष में ब्रह्मविद्या के आधार पर उस लक्ष्य, कर्त्तव्य, तत्व-दर्शन के रूप में समझा जाता है और जीवन की सार्थकता के लिए उच्चस्तरीय मार्गदर्शन मिलता है। अन्तःकरण की आस्थाओं, आकाँक्षाओं, अभिरुचियों, स्फुरणाओं, सम्वेदनाओं को परिष्कृत करने के लिए जिस प्रकार की श्रद्धा एवं मान्यता को हृदयंगम करना आवश्यक होता है वह ब्रह्मविद्या में सन्निहित सद्ज्ञान द्वारा ही सम्भव होता है। इसके लिए स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन जैसे माध्यम अपनाए जाते हैं। कथा-प्रवचनों का सिलसिला इसी संदर्भ में चलता है। धर्मशास्त्रों का-तत्वदर्शन का विशालकाय कलेवर इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है।
आत्मिक प्रगति का दूसरा आधार है-साधना। साधना वह प्रक्रिया है-जिसमें अमुक विधि-विधानों, कर्म-काण्डों के साथ अमुक स्तर की भावनाओं का समावेश करके आन्तरिक अवसादों को दूर किया जाता है। चेतना पर छाई प्रसुप्ति को जागृति में परिवर्तित करना आत्म-साधना का उद्देश्य है। जीव लाखों पिछड़ी योनियों में परिभ्रमण करते हुए मनुष्य जन्म पाने का अधिकारी बना है। इस लम्बी यात्रा में जो पशु-प्रवृत्तियाँ अभ्यास में आती है, उनकी छाप अभी भी छाई रहती है। मनुष्य की जो उच्च स्थिति है, उसे देखते हुए वे पशु-प्रवृत्तियाँ अनावश्यक एवं अवाँछनीय बन जाती है। छोटे बच्चे नंग-धड़ंग फिर सकते है और कहीं भी मल-मूत्र का त्याग बिना संकोच के कर सकते हैं, पर प्रौढ़ावस्था में तो वैसा करना अनुपयुक्त ही माना जायगा। प्रौढ़ता के साथ जो मर्यादाएँ जुड़ी होती है, उन्हें पालन करना भी आवश्यक होता हैं। मनुष्य जन्म के अनुरूप आस्थाएँ विकसित करने के लिए पिछड़ी पशु-प्रवृत्तियों को उखाड़ना आवश्यक होता है। यह कार्य कठिन भी है और जटिल भी। समझने-समझाने भर से इतना बड़ा आन्तरिक परिवर्तन नहीं हो पाता जिसे पशुता के स्थान पर देवत्व की प्रतिष्ठापना का काया-कल्प माना जाता है।
मानवी अवगति का एकमात्र कारण उसकी आन्तरिक दुर्बलता एवं विपन्नता ही होती है। इसको दूर कर सकना साधना प्रक्रिया को अपनाकर ही सम्भव हो सकता है। आन्तरिक दुर्बलता एवं विपन्नता के भार को यदि किसी प्रकार हटाया जा सके तो मनुष्य की गरिमा महामानवों जैसी, नर देवताओं जैसी बनी रह सकती है। परिष्कृत मनःस्थिति में रहने वाले सहज ही समुन्नत मनःस्थिति प्राप्त कर लेते हैं, यह तथ्य सर्वविदित है।
मानवी सत्ता इतनी स्वल्प नहीं हैं जिससे कि शरीर यात्रा भर का प्रयोजन पूरा होता रह सके। निर्वाह के लिए जितने पुरुषार्थ एवं मनोयोग की आवश्यकता है उतना ही अनुदान क्षुद्र प्राणियों को मिलता है, पर मनुष्य की स्थिति उससे भिन्न है व उसके अन्तराल में समुद्र गर्भ की तरह विभूतियों की बहुमूल्य रत्नराशि भरी पड़ी है।
आत्मबल की यह सम्पदा ही जीवन के हर पक्ष में आलोक उत्पन्न करती दिखाई पड़ती है। उसकी ज्योति शरीर को ओजस्वी, मस्तिष्क को मनस्वी और अन्तःकरण को तेजस्वी बनाती है। इस आत्मबल का उपार्जन साधना उपचार से सम्भव होता है। संकल्पशक्ति का बिखराव रोकने-उसे प्रचण्ड बनाने और अभीष्ट प्रयोजन में नियोजित किए रहने की अन्तःक्षमता विकसित करने के लिए ‘साधना’ को अतीव उपयोगी माना गया है। यों यह प्रयोजन मनोयोगपूर्वक सत्प्रयोजनों में संलग्न रहने से अनेकों मनस्वी लोगों की तरह पूरा किया जा सकता है, पर जितनी सरलता आत्म-साधनाओं के माध्यम से हो सकती है उतनी अन्य उपायों से सम्भव नहीं। फिर प्रश्न मात्र संकल्पशक्ति बढ़ाने का ही तो नहीं है उसके उत्कृष्ट बनाने की बात भी तो है। यह उत्कृष्टता तो उच्चस्तरीय आस्थाओं का समन्वय करने से ही सम्भव होती है। अध्यात्म साधना का तथ्यपूर्ण ढाँचा अनुभवों के आधार पर प्रयोजन के लिए खड़ा किया है।
आत्मिक प्रगति के लिए ज्ञान और विज्ञान के दोनों चरण उसी प्रकार उठाने पड़ते हैं, जिस प्रकार कि भौतिक प्रगति के लिए इन्हीं दो आधारों को अपनाया जाना आवश्यक होता है। आर्थिक तथा दूसरे सुविधा साधन भी तो भौतिक ज्ञान-विज्ञान का सहारा लेकर ही प्राप्त किए जाते हैं। आत्मिक प्रगति के लिए भी ब्रह्म विद्या पर आधारित तत्वज्ञान हृदयंगम करना आवश्यक होता है। योग साधना एवं तपश्चर्या की समन्वित साधना पद्धति का आश्रय लेकर अध्यात्म विज्ञान का उपयोग किया जाता है और उससे चित् शक्ति के संवर्धन का लाभ मिलता है।