यह सृष्टि किस कुशल कारीगर द्वारा बनाई गई है

August 1982

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अकस्मात् तो दुर्घटनाएँ हुआ करती हैं, सृजन नहीं। सुव्यवस्था एवं सन्तुलन का होना इस बात का परिचायक है कि जिसे बनाना और नियन्त्रण करने वाली कोई बुद्धिमान एवं समर्थ सत्ता हैं। यह विराट् अद्भुत और सुव्यवस्थित सृष्टि अपने आप बनकर तैयार हो गई। स्वसंचालित है, यह प्रतिपादन बुद्धि के पल्ले नहीं पड़ता। संयोगवश अपने आप न तो मकान बनकर तैयार हो जाता हैं और न ही मोटर आदि। जिन मशीनों, कम्प्यूटर आदि यन्त्रों को आटोमेटिक कहा जाता है उन पर भी नियन्त्रण रखना होता है। संयोगवश अपने आप धूल के कणों को एकत्रित होकर ईंटों में परिवर्तित होते, एक के ऊपर एक सजकर मकान में बदलते किसने देखा है? मोटर में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न यन्त्र एकत्रित होकर स्वयमेव मोटर में परिवर्तित हो गये हों, और गतिशील बन गये हों ऐसा उल्लेख संसार भर में कहीं नहीं मिलता। कोई इंजिन, कल, कारखाना किसी आटोमेटिक प्रक्रिया द्वारा स्वतः चलता एवं बन्द होता रहे, ऐसा सम्भव नहीं है। इनके सुसंचालन के लिए सदा नियन्त्रण बनाये रखना होता है।

वह समय अब पीछे छूटता जा रहा है जब विज्ञान अपनी बाल बुद्धि के सहारे यह कहता था कि सृष्टि अपने आप बनकर तैयार हो गई और आटोमेटिक प्रक्रिया द्वारा गतिशील हैं। संसार के मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने अपनी सूक्ष्म खोजों के उपरान्त यह घोषणा की है कि “सृष्टि रचना एक संयोग नहीं बुद्धि का चरम आविष्कार है” उसका सुसंचालन कोई अदृश्य किन्तु सर्व समर्थ मस्तिष्क कर रहा है। खोजने पर उस समर्थ सत्ता के अनेकों प्रमाण हमारे चारों ओर बिखरे मिल जायेंगे।

डा.ए. क्रेसी मोरिसन इन्हीं मूर्धन्य वैज्ञानिकों में से एक हैं जिन्होंने किसी सृष्टि संचालक सत्ता पर विश्वास करने के अनेकों कारण बताये हैं। ‘क्रेसी’ न्यूयार्क विज्ञान अकादमी के अध्यक्ष भी रह चुके हैं।

डा. क्रैसी का कहना है कि “गणित शास्त्र के नियमों से यह प्रामाणित होता है कि “इस संसार का नक्शा किसी कुशल तथा बुद्धिमान इञ्जीनियर द्वारा खींचा गया है। विश्व की रचना निष्प्रयोजन नहीं प्रयोजन युक्त है। इसका प्रमाण है जीव जगत के लिए पृथ्वी पर अनुकूल वातावरण का होना। उनका कथन है कि “पृथ्वी अपनी धुरी पर एक हजार मील प्रति घण्टे की रफ्तार से घूमती है यदि उसकी गति सौ मील प्रति घण्टा हो जाय तो दिन ओर रात अब की तुलना में दस गुने लम्बे हो जायेंगे । दिन के समय सूर्य की गर्मी इतनी अधिक होगी कि पृथ्वी की समस्त वनस्पतियाँ जल कारण अधिकाँश जीव मर जायेंगे ।

“चन्द्रमा की दूरी पृथ्वी से दो लाख बत्तीस हजार मील है। यदि उसकी दूरी मात्र पचास हजार मील होती तो सागरों में भयंकर ज्वार उठते। फलस्वरूप समस्त महाद्वीप जल मग्न हो जाते। सूर्य जीवन का स्त्रोत है। उसका सतही मापक्रम बाहर डिग्री फारेनहाइट है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी एवं प्राप्त होने वाला ताप का सामंजस्य जीवन के अनुकूल है। यदि सूर्य का ताप घटकर आधा अवशेष रह जाय तो पृथ्वी के सभी प्राणी जम जायेंगे। तापक्रम आधा ओर बढ़ जाय तो सब जलभुन कर समाप्त हो जायेंगे। पृथ्वी 23 डिग्री के कोण पर झुकी है। इस कारण अनुकूल ऋतुएँ मिलती है। यह झुकाव न होता तो समुद्री भाप उत्तर से दक्षिण तक फैल जाती और सर्वत्र बर्फ के महाद्वीप बन जाते। वायु में आक्सीजन एवं कार्बन डाई आक्साइड गैस के सन्तुलन में सागरों की गहराई का हाथ है। यदि सागर अधिक गहरे होते तो इन गैसों के अभाव में वनस्पतियों का अस्तित्व नहीं बचता। अन्तरिक्ष वायु सुरक्षा कवच पतला अथवा हल्का होता तो अगणित उल्काएँ नित्य ही जलती हुई पृथ्वी से आ टकराती और समस्त भू-सम्पदा को भस्मीभूत कर देतीं। हर दृष्टि से पृथ्वी पर अनुकूल सुरक्षित एवं सुव्यवस्थित वातावरण का होना इस बात का प्रमाण है कि कुशल हाथों से किसी समर्थ सत्ता ने इस सृष्टि की रचना की है। संचालन एवं नियन्त्रण की बागडोर भी उसी के हाथों में हैं।

डा.क्रेसी का कहना है कि सर्वत्र वह सत्ता शक्ति के रूप में क्रियाशील है। जीवन उसका ही स्वरूप है। भार, लम्बाई, चौड़ाई अथवा ऊँचाई से रहित होते हुए भी जीवन शक्ति से ओत-प्रोत है। वृक्ष की बढ़ती हुई जड़ में वह चट्टान को भी तोड़ देता है। जीवन एक मूर्ति का है जो सभी जीवित तत्वों को आकृतियाँ प्रदान करता है। मनुष्य और मनुष्येत्तर प्राणी नन्हें जीव जन्तु उसी क विभिन्न कला कृतियाँ हैं। जीवन एक चित्रकार है जो वृक्ष वनस्पतियों को एक सुनिश्चित रूप देता, पुष्पों में रंग भरता, अपने सुरभि से उन्हें सुरभित करता। वह एक संगीतकार है जिसका संगीत चिड़ियों के माध्यम से गुँजित होता है। वह एक रसायन तत्त्वज्ञ है जो फलों में, अन्नों एवं सब्जियों में विविध प्रकार का स्वाद भरता है।

क्षुद्र प्रोटोप्लाज्म अपने अन्दर जीवन की असीम संभावनाएँ छिपाये हुए है। वृक्ष वनस्पतियों से लेकर क्षुद्र जीव जन्तु मनुष्य तक पशु पक्षी और मनुष्य तक इसी नगण्य द्रव से अपना स्वरूप प्राप्त करते हैं। क्षुद्र और महान सभी प्राणी इससे ही जीवन ग्रहण करते हैं। एक जैसा, दीखते हुए भी यह जीव द्रव्य के लिए जीव जगत में विविध रूपों को भरता, वृक्ष, वनस्पतियों जीव-जन्तुओं को एक निश्चित आकृति प्रदान करता है।

परमात्मा पर विश्वास करने और श्रद्धा रखने को तीसरा प्रमुख कारण है। जीव जगत की अद्भुत संरचना। प्रत्येक प्राणी को सृष्टा ने उसकी आवश्यकता के अनुरूप ऐसी विशेषताएँ दे रखी हैं जिससे वह जीवनयापन कर सके और वाली कठिनाइयों से अपनी सुरक्षा कर सके। वैज्ञानिकों भाषा में इस विशेषता को ‘सहज ज्ञान’ कहते हैं। वैज्ञानिकों ने इस सम्बन्ध में अनेकों प्रयोग किए हैं। ‘सालमन’ नामक एक विशेष प्रकार की मछली को उसके जन्म स्थान ने दूर समुद्र में ले जाकर छोड़ दिया जाय तो कुछ समय बाद वह पुनः नदी समुद्र से जुड़ी नदियों के सहारे अपने मूल स्थान पर वापस लौट आती है। निश्चित स्थान पर पहुँचने में उससे कभी भूल नहीं होती।

‘ईल’ नामक मछली के भीतर यह विशेषता ओर भी अधिक मात्रा में पायी जाती है। यही जीवन पर्यन्त प्रवासी जिन्दगी व्यतीत करती है। किन्तु निर्धारित समय पर अपने दायित्वों को पूरे कर अण्डे देती है जहाँ कि टिड्डी का सुरक्षित माँस रखा होता है। अण्डे से निकलने वाले बच्चों को ताजा माँस खाने के लिए अपने निकट ही मिल जाता है। यदि ‘वास्प’ टिड्डे को अचेत न करके पूर्णतया मार दे तो कुछ ही समय बाद टिड्डे का माँस विषाक्त हो जायेगा ओर इस योग्य नहीं बचेगा कि उसे अण्डे से निकलने वाले खा सकें यह सहज ज्ञान की प्रकृति प्रदत्त विशेषता इस बात का परिचय देती है कि कोई समर्थ सत्ता न समझ-बूझकर उनकी रचना की है और जीवनयापन के लिए आवश्यक विशेषताएँ प्रदान की हैं।

इसी प्रकार असंख्यों मनुष्येत्तर जीव अपने सहज ज्ञाने के कारण ढर्रे का जीवन व्यतीत करते। खाने-पीने-और प्रजनन तक उनकी चेष्टाएँ सीमित रहती हैं। जबकि मनुष्य को विचारणा की बौद्धिक शक्ति अतिरिक्त रूप से मिली है। इसी का अवलम्बन लेकर मनुष्य विकास की वर्तमान स्थिति तक पहुँच सका है।

प्रत्येक जीव के लिए समुचित आहार की पूर्व व्यवस्था का होना भी इस बात का प्रमाण है कि किसी अदृश्य सत्ता ने प्रत्येक जीव की आवश्यकता के अनुरूप ऐसी सुविधाएँ दे रखी हैं जिससे वह भली-भाँति अपना भरण-पोषण कर सके। माँ के गर्भ में पलने वाले असहाय अबोध शिशु तक को पोषण अपने आप प्राप्त होता रहता है। शाकाहारी और माँसाहारी जीव प्रकृति सम्पदा से अपने-अपने अनुरूप आहार प्राप्त करते रहते हैं। नभचर, जलचर ओर पृथ्वी पर रहने वाले समस्त जीव-जन्तुओं को उनके अनुरूप भोजन प्राप्त हो जाता है।

प्रकृति के कार्य भी यह प्रमाण देते हैं कि सृष्टि की रचना किसी दूरदर्शी सत्ता ने की है। वह मात्र रचना ही नहीं करती वरन् समय-समय पर नियमन ओर सन्तुलन का दायित्व भी सम्हालती है। उपयोगी के अभिवर्धन और अनुपयोगी के काट-छाँट की प्रक्रिया की सृष्टा द्वारा प्रकृति में चलती दिखायी पड़ती हैं। बहुत समय पूर्व आस्ट्रेलिया के विभिन्न स्थानों पर बाड़ लगाने के लिए नागफनी के पौधे लगाये गये। ये पौधे व्यापक क्षेत्र में फैल गये। स्थिति यहाँ तक जा पहुँची कि वहाँ के निवासियों के लिए कृषि करना भी कठिन हो गया। फसलों को ये पौधे नष्ट कर देते और अपना आधिपत्य जमा लेते। आस्ट्रेलिया के नागरिकों के समक्ष जीवन-संकट उपस्थित हो गया। जीव वैज्ञानिकों ने अपने गहन अध्ययन के उपरान्त एक ऐसे कीड़े की खोज की जो मात्र नागफनी के पौधों को खाता था। एक कीड़े को लाकर उस क्षेत्र में छोड़ दिया गया। ये कीड़े भी द्रुतगति से बढ़ने लगे। कुछ ही समय में कीड़ों ने नागफनी पर विजय प्राप्त कर ली किन्तु साथ ही इनका विस्तार भी अपने आप रुक गया।

रोकथाम एवं सन्तुलन की यह व्यवस्था सर्वत्र कार्य करती दिखाई पड़ती है। जिन कीड़ों की सन्तानोत्पादन की क्षमता जितनी अधिक है वे उतनी ही शीघ्र समाप्त भी हो जाते हैं। उनके विस्तार एवं अभिवृद्घि पर प्रकृति भी हो जाते हैं। उनके विस्तार एवं अभिवृद्घि पर प्रकृति का नियन्त्रण न हो तो कुछ ही समय में समस्त भू-मण्डल पर वे छा जायेंगे किन्तु ऐसा कभी नहीं होता। प्रकृति की कठोर नियमन व्यवस्था उनके विस्तार को रोकती है।

नियामक सत्ता के ऐसे अनेकों प्रमाण हमारे चारों ओर बिखेर पड़े हैं, जिनके द्वारा उसके अस्तित्व का सहज की अनुमान लगाया जा सकता है। प्रत्यक्ष दिखाई तो स्थूल वस्तुएँ पड़ती है-शक्तियाँ नहीं। परमात्मा एक शक्ति है कोई व्यक्ति अथवा वस्तु नहीं। बिजली ऊष्मा, गुरुत्वाकर्षण, चुम्बकत्व जैसी शक्तियाँ प्रत्यक्ष कहाँ दिखाई पढ़ता हैं? उनकी प्रतिक्रियाओं द्वारा उनका प्रमाण मिलता है। दिखाई न पड़ने मात्र से कोई इनके अस्तित्व से इंकार नहीं करता। परमात्मा भी शक्ति के रूप में सर्वत्र क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा है। सृष्टि की सुव्यवस्था ओर सुसंचालन-उसी सत्ता का अकाट्य प्रमाण है।


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