मा भवाज्ञो भव ज्ञन्त्वं जहि संसार भावनाम्। अनात्यमन्यात्मभावेन किमज्ञ इव रोदिषि॥
कस्तवाँय जड़ो मूको देहो माँसमयोऽशुचिः। मदर्थ सुखदुःखाध्यामवशः परिभूयसे॥
अहो नु चित्रं यत् सत्यं ब्रह्म त्तद्विस्मृतं नृणाम्। तिष्ठतस्तव कार्येषु माऽस्तु रागानुर जनम्-महोपनिषद् 4, 128, 129, 130
अर्थात्-अज्ञानी न बनो, नाशवान् पदार्थों के लिए इतने उद्विग्न मत होओ, उनके लिए मत बिलखो यह जड़ देह तुम्हारा कोई स्थिर सम्बन्धी नहीं है। यह तो माँस का पिण्ड भर है। घोर अपवित्र है तुम इसके लिए इतने बेचैन क्यों हो? परम सत्य की भूल के इस देह जाल में जकड़े हुए क्यों तड़पते हो?