अध्यात्म विज्ञान के साथ एक आश्चर्य चकित करने वाली सम्भावना जुड़ी हुई है। वह है-अचेतन मनःक्षेत्र की प्रसुप्त पड़ी हुई दिव्य क्षमताओं को जगाना एवं सक्रिय बनाना। इस संदर्भ में भौतिक विज्ञानी भी कुछ कुरेदबीन करते रहे हैं और जो उनके हाथ लगा है उसे देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि-व्यक्ति में विज्ञान पराक्रमजन्य क्षमताओं की तुलना में कहीं अधिक उच्चस्तरीय प्रभावी एवं समर्थताओं से भरी पूरी सत्ता विद्यमान है। दूरदर्शन, दूरश्रवण, भविष्य कथन, विचार संचालन जैसे अगणित प्रयोग परीक्षण-परा मनोविज्ञान-मेटाफिजिक्स विज्ञान के आधार पर हुए है और उस आधार पर इस तथ्य की परिपूर्ण पुष्टि हो चुकी है कि मानवी अन्तराल में दिव्य क्षमताओं का अजस्र भण्डार छिपा पड़ा हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता एलेक्सिस कैरेल ने अपनी ‘मैन दि अननोन’ पुस्तक में अगणित तथ्य प्रमाण प्रस्तुत करते हुये यह सिद्ध किया है कि सामान्य जीवन में चेतना की सामर्थ्य का मात्र सात प्रतिशत ही प्रयुक्त होता है। जो उपयोग में आता है वह हल्का उथला एवं इतना है जिससे अन्य प्राणियों की तरह निर्वाह क्रम चलता रहे। जो विभूतियाँ अन्तराल में प्रसुप्त स्थिति में पड़ी हैं उन्हें जाना और जगाया जा सके तो निस्सन्देह मानवी अस्तित्व को उतना सूक्ष्म पाया जा सकता है कि वह अपनी कायिक एवं मानसिक प्रयोगशाला के सहारे भौतिक जगत की उन सभी समर्थताओं एवं सम्पदाओं को उपलब्ध कर सके जिन्हें विज्ञानी बहुमूल्य उपकरणों के सहारे हस्तगत करते हैं।
यहाँ जानने योग्य एक बात और भी हे कि जिस तरह परमाणु में सन्निहित असीम शक्ति विश्वव्यापी पदार्थ प्रकृति का एक अंश मात्र है उसी प्रकार व्यक्ति चेतना भी विश्व चेतना की एक अंश है। परमाणु की सामर्थ्य उसका निजी वैभव नहीं है, वरन् विराट् विश्व की शक्ति समुद्र की एक लहर बूँद भर है। उसी प्रकार चेतना की अपनी स्वतन्त्र हस्ती कुछ भी नहीं है। वह विश्व चेतना में ही अपनी पात्रता एवं आवश्यकता के अनुरूप सामर्थ्य अर्जित करती रहती है। इस चेतना लोक का अपना अस्तित्व है। अदृश्य सूक्ष्म जगत में प्रकृति की ऐसी अविज्ञात शक्तियों का आभास मिल चुका है जो विदित एवं उपलब्ध वैभव की तुलना में असंख्यों गुना अधिक है। ठीक इसी प्रकार चेतना के दिव्य लोक का अपना अस्तित्व है और उसमें इस स्तर का वैभव भरा पड़ा है जिसकी परब्रह्म की विश्व चेतना के रूप में तत्व दर्शन द्वारा चर्चा की जाती रही है।
इस दिव्य लोक का निरूपण पुरानी भाषा में परमेश्वर, देव-परिकर ऋद्धि-सिद्धि-स्वर्ग मुक्ति आदि के रूप में किया जाता रहा है। उसके लिए योग, तप, जप, ध्यान, पूजा, पुरश्चरण आदि की प्रक्रिया अपनाई जाती रही है और ऐतिहासिक साक्षियों के आधार पर यह सुखद परिणित भी उपलब्ध होती रही है जिन्हें देखते हुए इन प्रयोग परीक्षणों की परिपूर्ण सार्थकता सिद्ध की जा सके।
इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए-मध्यकाल में सर्वत्र अन्धकार युग फैला और विकृतियों एवं अवांछनीयता का बोलबाला रहा। राजनीति से लेकर अर्थ तक उठाये हुए है तब धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में ही यह आशा कैसे की जाय कि वह छद्म, सनक एवं निहित स्वार्थों की पकड़ से बचा रहेगा। पिछले दिनों यही स्थिति रही है और आज भी वैसी ही है। ऐसी दशा में अध्यात्म कास तत्व दर्शन ही नहीं, प्रयोग, उपचार भी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो गया है। जो बना है उसे एक प्रकार से छिलका छूँछ, खिलौना, नमूना भर कह सकते हैं। प्रत्यक्ष है जो कुछ इन दिनों अध्यात्म के नाम पर माना अपनाया जाता है वह न केवल अधूरा है, वरन् भ्रान्तियों एवं विकृतियों की भी उसमें बुरी तरह घुस पैठ है। फार्मूले गलत होने पर श्रम भी निरर्थक ही जाता है। ऐसा ही इन दिनों भी हो रहा है। उपासनात्मक उपचार करने वाले जब प्रतिफलों के सम्बन्ध में निराश होते हैं तो एक प्रकार से नास्तिक ही बनते जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि एक अत्यन्त उच्चस्तरीय एवं महान सम्भावनाओं से भरे-पूरे विज्ञान को उपहासास्पद बनना-तिरस्कृत होना पड़ता हैं। इस स्थिति से भारी हानि यह हो रह है कि उन असाधारण उपलब्धियों से व्यक्ति ओर समाज को वंचित रहना पड़ रहा है जो समस्त मानवी समुदाय को आन्तरिक उत्कृष्टता एवं बहिरंग सुसम्पन्नता से भरापूरा रख सकती थी।
सृष्टि के इतिहास में कई बार खण्ड प्रलय होती रही है। हिमयुग आये हैं और उनमें भयानक विनाश के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान के अनेक उपार्जनो को भी एक प्रकार से विस्मृत किया है। इतने पर भी स्रष्टा का वह अनुदान मनुष्य को मिलता ही रहा है कि आनुवांशिकी के आधार पर पूर्वजों के संचित ज्ञान की हल्की-फुल्की ज्योति जलाये रह सके और समयानुसार उसे पुनर्जीवित कर सकने में सफल हो सके। खण्ड प्रलयों के इतिहास से अवगत मनीषी बताते हैं कि विभीषिकाओं के युग कितने ही विनाशकारी एवं लम्बे क्यों न रहे हों, वे जब समाप्त हुए हैं तो मनुष्य ने देर सबेर में उसे किसी न किसी प्रकार एक या दूसरे रूप में पुनः उपलब्ध कर लिया है। अध्यात्म विज्ञान के यथार्थवादी पुरातन स्वरूप के मध्यकाल के अन्धकार युग में विलुप्त या विकृत हो जाने की स्थिति को भी हिम प्रलय जैसी दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना की तरह ही समझा जा सकता है। इतने पर भी निराश होने का कोई कारण नहीं। आनुवांशिकी का आश्वासन है कि जो खोया है उसे नये सिरे से प्रबल पुरुषार्थ में जुट पड़ने पर पुनः प्राप्त किया जा सकता है।
भौतिक शक्तियों के चमत्कारों से हम सभी परिचित हैं। लेसर किरणों की-ऐन्टी मैटर-ऐन्टी यूनीवर्स आदि की चर्चा दाँतों तले उँगली दबाकर की जाती रहती है। अब इसी स्तर की एक और उपलब्धि करतलगत हो सकने की बात बन रही है जिसके आधार पर अतीन्द्रिय क्षमताओं को उभार कर मनुष्य को न केवल चरित्र, व्यवहार, वैभव की दृष्टि से वरन् अन्तःशक्ति के साथ जुड़ी हुई विलक्षण ऋद्धि-सिद्धियों की दृष्टि से भी सुसम्पन्न बनाया जा सके। इस सम्भावना को देवयुग का पुनर्जीवन अथवा धरती पर स्वर्ग के अवतरण वाला सतयुग कहा जा सकेगा।
आज जो उपेक्षा, असहयोग विज्ञान और अध्यात्म के मध्य दिखाई पड़ता है, उसे मिटाकर, विग्रह की वृत्ति को हटाकर सहयोग भरा रीति-नीति की प्रतिष्ठापना कर समुद्र मन्थन जैसे सत्परिणाम पा सकना पुनः इसी धरती पर सम्भव है। दैनन्दिन जीवन में सहकार के परस्पर विरोधी परिणामों के प्रतिफल आये दिन सामने आते रहते हैं पर जब विज्ञान व अध्यात्म परस्पर मिलेंगे तो उनका सहयोग अनूठा ही होगा। सभी जानते हैं कि ठण्डे व गरम तार मिलकर बिजली का प्रवाह बनाते हैं। जब दो विध्वंसकारी रचनात्मक शक्तियाँ एक ही उद्देश्य हेतु नियोजित होंगी तो उनके सम्मिलित प्रयासों की फलश्रुति अपनी इस धरती को सुन्दर और अधिक सुव्यवस्थित व सुसंस्कृत बनाने के रूप में ही निकलेगी, इसमें कोई संदेह नहीं। यह एक स्वप्न नहीं वास्तविकता है। आग-पानी के मिलने से भाप बनने तथा उसके रचनात्मक कार्यों में लगने पर कमाल दिखाने जैसी परिणति विज्ञान-अध्यात्म सहयोग की होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं। अनेकानेक प्रमाण-तथ्य बताते हैं कि इस परिकल्पना को साकार रूप देने पर कितने सुन्दर परिणाम निकल सकते हैं।
मरणोत्तर जीवन का जब अस्तित्व सिद्ध होने ही जा रहा है तो फिर उस कड़ी को भी जोड़ना ही पड़ेगा जिसके अनुसार पितरों की दुनिया का जीव जगत के साथ आदान-प्रदान चल पड़े। ऐसा सम्भव हो गया तो समझना चाहिये कि एक ओर अपनी जैसी ही नई दुनिया के साथ रिश्ता जुड़ गया। इसमें दोनों ही लोकों के निवासियों का सुखी समुन्नत होना और एक दूसरे की महत्वपूर्ण सहायता का सकना सम्भव हो सकता है।
व्यक्ति के हिस्से में थोड़ी-सी समर्थता आई है किन्तु वह जिस विराट् शक्ति भण्डार से-परब्रह्म से जुड़ा है-उसकी सामर्थ्य का कोई अन्त नहीं । कम ताकत का बल्ब धीमी रोशनी देता है, पर यदि उसी स्थान पर बड़ी ताकत का बड़ा बल्ब लगा दिया जाय तो उसी बिजली फिटिंग से अनेक गुना प्रकाश उत्पन्न हो सकता है। बिजली की लाइन में उतनी सामर्थ्य रहती है कि छोटे उपकरणों के स्थान पर बड़े लगा देने पर अधिक ऊर्जा पाई और अधिक सुविधा उठाई जाय। परब्रह्म सत्ता के साथ आमतौर से आत्मा का सीमित एवं सामान्य सम्बन्ध ही रहता है, पर यदि व्यक्ति को अधिक परिष्कृत बनाया जा सके तो वह अदृश्य जगत की महान दैवी शक्तियों से भरपूर लाभ उठा सकता है और उस आधार पर अपनी सफलताओं में चार चाँद लगा सकता है।
अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय से व्यक्ति के अन्तराल को परिष्कृत करके आज की तुलना में उसे अनेक गुना समर्थ एवं श्रेष्ठ बनाया जा सकता है। उसी प्रकार विश्व चेतना की असीम सम्भावनाओं में उसे इतना कुछ आकर्षित किया जा सकता है जिससे मनुष्य के स्तर, स्वरूप एवं वर्चस् में काया-कल्प जैसा सुखद सत्परिणाम उत्पन्न हो सके। ऐसी ही उपलब्धियों को प्राचीन काल में दैवी वरदानों के नाम से पुकारा जाता था। आज भी इस प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न होते रहने की सम्भावना पूर्ववत् ही बनी हुई है।
अन्तरिक्ष में पदार्थ सम्पदा उससे कहीं अधिक भरी पड़ी है जितनी कि जल और थल में, तरल एवं ठोस रूप में पाई जाती है। जिस प्रकार जल और थल का वैभव मनुष्य के काम आता है उसी प्रकार अन्तरिक्ष में भरीपूरी वही सम्पदा फिर से ठोस एवं द्रव के रूप में परिणत करके धरती की सम्पदा में असंख्य गुनी वृद्धि हो सकती है।
यज्ञ प्रक्रिया प्राचीन काल में शारीरिक, मानसिक दुर्बलता और रुग्णता के निवारण में अत्यधिक सहायक सिद्ध होती रही है। इसके अतिरिक्त उस माध्यम से वातावरण का परिशोधन एवं प्राणपर्जन्यों का अभिवर्षण भी सम्भव होता रहा है। इसमें व्यक्ति और समाज की स्वस्थता, समृद्धि एवं प्रगति की कितनी ही संभावनाएँ बढ़ती हैं। इस उपेक्षित एवं अस्त-व्यस्त यज्ञ प्रक्रिया को यदि फिर से नये परीक्षणों के साथ एक सुव्यवस्थित प्रक्रिया का रूप दिया जा सके तो उसकी परिणति समस्त संसार पर दैवी वरदान बरस पड़ने के समान ही सौभाग्य भरी सिद्ध होगी।
प्रकृति को भौतिक समझकर उसकी पदार्थ सत्ता पर ही अब तक की माथा पच्ची होती रही है। अब उस ब्रह्माण्ड में चेतना का समुद्र भरा पूरा अनुभव किया जा सके और उसी क्षेत्र के मणि मुक्तक ढूँढ़ने में लग पड़ा जाय तो विश्व वैभव में निश्चय ही आश्चर्यजनक प्रगति हो सकती हे।
अपनी पृथ्वी इस विशाल ब्रह्माण्ड परिवार का एक छोटा-सा घटक है। उसे जो भी प्रत्यक्ष परोक्ष वैभव मिला हुआ है वह ब्रह्माण्डीय सम्पदा का एक अंग है। पृथ्वी उत्तरी ध्रुव के माध्यम से उसमें से उपयोगी अंश खींचती और जो अनुपयोगी है उसे दक्षिणी ध्रुव से बाहर फेंक देती है। यह प्रकृतिगत आकर्षण, विकर्षण मानवी चेतना के एकाकी एवं संयुक्त चुम्बकत्वों द्वारा सामयिक आवश्यकता के अनुरूप खींचा एवं रोका जा सकता है। अर्न्तगही कारणों से पृथ्वी पर अनेकों विपत्तियाँ आती हैं। इन्हें रोकने एवं अनुकूलताओं को बढ़ाने के लिए चेतनात्मक प्रयोग उपचार हो सकते हैं। इस क्षमता को भी पूर्व काल की तरह इन दिनों अध्यात्म एवं विज्ञान के सिद्धान्तों का समन्वय करके सहज ही उपलब्ध किया जा सकता है।