मनुष्य की सर्वोपरि विशिष्टता दूरदर्शी विवेकशीलता

August 1982

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दैनिक जीवनचर्या में पहले निश्चय, पीछे काम की नीति अपनाई जाती है। किस खेत में क्या बोना है पहले यह निर्धारण किया जाता है बाद में उसकी क्रिया आरम्भ होती है। फैक्टरी किसकी लगानी? शिक्षा किस स्तर की पानी? यात्रा कहाँ की करनी? जैसे छोटे-छोटे प्रसंगों पर उपयोगिता अनुपयोगिता के पक्ष विपक्ष में आवश्यक चिन्तन मन्थन कर लिया जाता है इसके उपरान्त ही सरंजाम जुटाये कर लिया है इसके उपरान्त ही सरंजाम जुटाये ओर कदम उठाये जाते हैं। हाट बाज़ार में खरीद के लिए जाने वाले पहले लिस्ट बनाते हैं। समझदार आदमी आय-व्यय का बजट बनाते और अर्थ सन्तुलन बिठाते हैं। मूढ़ मति ओर बाल-बुद्धि लोगों के अतिरिक्त हर छोटे-बड़े कामों में पूर्व निर्धारण की नीति अपनाई जाती है। बी. गिसेलीन ने ‘दि क्रिएटिव प्राँसेस’ को इस यथार्थवादी दृष्टिकोण को महत्व देते हुए कहा हैं—

“भावुकता को कलात्मक संवेदना के रूप में तो सराहा जा सकता है, पर तथ्य तक पहुँचने और सम्बद्ध प्रसंग पर सही निर्णय करने में तो उसे एक अवरोध ही माना जाएगा । वस्तुस्थिति सदा वैसी ही नहीं होती जैसी कि घटना का तात्कालिक स्वरूप देखने से प्रतीत होती है। उसके पीछे ऐसे कारण भी हो सकते हैं जो दण्ड का भी औचित्य सिद्ध करें ओर उदार सहायता को भी अवांछनीय ठहराये। औचित्य एक बात हे और भावुकता दूसरी।”

भावुकों को तनिक से कष्ट में विचलित ओर तनिक से व्यवधान में चिन्तातुर होते देखा गया हैं। इस प्रकार की बाल-बुद्धि न तो सही निष्कर्ष पर पहुँचाती है ओर न समयानुरुप उपाय अपनाने में कोई सहायता देती है। सच तो यह है कि हड़बड़ी में ऐसे कदम उठ जाते हैं जो विपत्ति को ओर भी अधिक बढ़ा दें। शोकाकुल आवेशग्रस्त एवं आतुर लोभ लिप्सा से ग्रस्त व्यक्ति भावुकता के कारण अस्त-व्यस्त हुई मनःस्थिति में कुछ सोचते या करते हैं वह समस्या के समाधान में सहायक न होकर उसे उलटी और उलझा देते हैं।

वस्तुस्थिति को समझने-अवरोधों से निपटने तथा प्रगति के लिए पथ प्रशस्त करने में यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है। ऊँची उड़ाने उड़ाने की अपेक्षा यह देखना आवश्यक है कि आज की अपनी परिस्थिति, योग्यता कितना कुछ कर सकने में समर्थ हो सकती है। आज जो सम्भव है वही तथ्य है। भविष्य में जब जैसी स्थिति आये तब वैसा सोचने या उपाय बरतने में कोई प्रतिबन्ध नहीं है। पर वर्तमान को तो तथ्यों के अनुरूप ही समझना चाहिए और इस समय जो कर सकना सम्भव है उतना ही कदम उठाना चाहिए और उतने में ही सन्तोष करना चाहिए। जो मनःस्थिति और परिस्थिति कास तालमेल नहीं बिठा पाते और विसंगतियों से भरे निर्णय करते हैं उन्हें भावोन्माद से ग्रसित समझा जाता है ऐसे लोग अवास्तविकता के चंगुल में फँसकर गलत सोचते गलत कदम उठाते ओर गलत परिणाम पर पहुँचते हैं।

प्रगतिशीलता का यथार्थवादिता से सघन सम्बन्ध हैं। वे दूसरों की सहायता पर अवलम्बित योजनाएँ नहीं बनाते वरन् अपनी स्थिति को समझकर आरम्भ उतना ही करते हैं जितना अपने बलबूते सम्भव है। आत्म-विश्वास बढ़ाया जाना चाहिए और क्षमता संवर्धन में कुछ उठा न रखना चाहिए ताकि अगले दिनों अधिक बड़े काम करना सम्भव हो सके, पर आज को तो यथार्थता के साथ ही जुड़ा रहने देना चाहिए। भावुकता के वशीभूत होकर ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जैसा कि अदूरदर्शी आवेशग्रस्त किया करते हैं।

भविष्य अनिश्चित और अविज्ञात हैं। उसे ईश्वर ने जान-बूझकर गोपनीय रखा हे ताकि प्रगति के लिए पुरुषार्थ करने का अवसर मिलता रहे।

निराशावादी एक ऐसा भविष्य वक्ता है जो तथ्यों और सम्भावनाओं से सर्वथा अपरिचित होते हुए भी ऐसे निष्कर्ष निकालता है जो न केवल अवास्तविक वरन् हानिकारक भी है।

अगला समय कैसा आने वाला है इसे कौन जानता है? बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी ऐसा दावा नहीं करते कि वह जो सोचते या करते हैं वे लाभदायक या सफल ही होकर रहेंगे। इतने पर भी वे प्रयत्नरत रहते हैं और भविष्य अनिश्चित होते हुए भी उज्ज्वल संभावनाओं की आशा लगाये रहते हैं। यह आशा ही उनका उत्साह एवं साहस बनाये रहने से समर्थ होती हैं। सफलता प्राप्त करने वालों ने अपनी मनःस्थिति को सदा ऐसी ही बनाये रखा है जिसमें उज्ज्वल भविष्य का सपना दीखता और विश्वास बढ़ता रहे।

निराशावादी भी एक अजीब प्राणी है जो पहले से ही असफलता की बात सोचता ओर अन्धकार भरे भविष्य का पूर्ण निर्धारण करना हे। ऐसा अनुमान उसने किस आधार पर लगाया यह ढूँढ़ निकालना कठिन हैं। हो सकता है कि कुछ कारण ऐसे भी हैं जो निराश जैसी झलक दिखाते हो पर उसके अतिरिक्त ऐसे कारण या आधार भी तो हो सकते हैं जो दूसरे प्रकार के परिणाम उत्पन्न करे और अप्रत्याशित सफलताओं के अवसर ला खड़े करें। जब सपना ही गढ़ना है तो निराश का क्यों गढ़े? जब अनिश्चित को ही निश्चित मानना हो, विपत्ति की सम्भावना क्यों मान बैठा जाय? सम्पत्ति ओर सफलता की आशा लगाने में क्या हर्ज हैं।

अनिश्चित को भयावह मान बैठने में सबसे बड़ी हानि यह है कि दुर्दिन आने से पूर्व ही चिरकाल तक डरावनी मनःस्थिति का दुःख उठाते रहने और साहस गँवाते रहने की दुहरी हानि उठानी पड़ती है। जबकि आशावादी सपने देखने पर समय आने तक तक उत्साह भरी मनःस्थिति बनी रहती है और आशा भरी उमंगें अधिक पुरुषार्थ करने ओर अधिक सफलता पाने का आधार बनाती रहती है।

कितनी ही बार संभावनाएँ अप्रत्याशित रूप से उल्टी देखी गई हैं। निराशा की बात सोचने वाले भी कई बार चमत्कारी अवसर प्राप्त करते ओर उन्हें दैवी अनुग्रह या भाग्य का चमत्कार कहकर मोद मनाते देख गये है। ऐसी दशा में निराशा भरी मान्यताएँ बना लेना एक प्रकार से ऐसा दुस्साहस है जो विधाता से प्रतिद्वंद्विता करता है। जब विधाता ने भी अपने भाग्य का निर्माण स्वतः करने की छूट मनुष्य को दे रखी है तो फिर ऐसा भविष्य वक्ता बनाने से क्या लाभ जिसका सृजन उत्पादन मात्र भयावह ही भयावह होता रहता है।

आर.डैवी ने “डैपलपमेन्ट आफ ह्यूमन विहेवियर” में लिखा है-जब व्यक्ति सामाजिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगता है और अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करता है तब उसकी सामाजिक अभिरुचियों का समुचित विकास होता है। उसमें सामाजिक भावना पैदा होती है, वह अपने साथियों के प्रति सहानुभूति रखता है और उसकी सामाजिक चेतना जागृत हो जाती है। व्यक्ति में सामाजिक अभिरुचि जन्मजात होती है। जिस प्रकार व्यक्ति श्रेष्ठता एवं पूर्णता प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है उसी प्रकार वह अपनी जीवन शैली को विकसित करने के लिए अपनी सुषुप्त सामाजिक अभिरुचियों को जागृत करता है। सामाजिक अभिरुचियों को जागरूक एवं सक्रिय बनाने के लिए यह आवश्यक हे कि व्यक्ति सामाजिक जीवन में भाग ले और यथाशक्ति सामाजिक कार्य में लगा रहे। सामाजिकता सम्बन्धी सभी गुणों के बीज व्यक्ति में निहित होते हैं। वे अनुकूल पर्यावरण पाकर प्रस्फुटित हो उठते हैं।”

आर.डेवी. ने अपने ग्रन्थ ‘डेवलपमेन्ट आफ ह्यूमन विहेवियर’ में विकास को आत्म विस्तार के रूप में प्रतिपादित किया है। वे कहते हैं-सुपर व्यक्तित्व के प्रेरणा केन्द्र सामूहिक चेतना के पूर्ण विकसित स्वरूप को ‘ग्राहम्’ सामाजिक वृत्ति [सोशल सेन्स] कहते हैं। उनका कहना है कि जिस भी समाज में यह ‘सोशल सेन्स’ जितना अधिक विकसित होगा, वहाँ के व्यक्ति उतने ही श्रेष्ठ एवं महानता से युक्त होंगे। अनेकानेक मानवी समस्याओं को सुलझाने एवं मनुष्य को देवोपम बनाने के लिए इस ‘सामाजिक वृत्ति ‘ का होना परमावश्यक है।”

“उत्कृष्ट व्यक्तित्व उसे कहते हैं जिसमें व्यक्ति की सम्पूर्ण निहित शक्तियों का सर्वांगीण विकास हो चुका हो। स्पष्ट है इन शक्ति यों के विकास में मानव की शक्ति लालसा एवं सामूहिक चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति आवश्यक है। दोनों के सामंजस्य से बना हुआ व्यक्ति त्व ही श्रेष्ठ कहा जाता है।

विकास का एक अर्थ विस्तार भी है। नैतिक क्षेत्र में तो यही व्याख्या अधिक उपयुक्त पड़ती है। सीमित ‘स्व’ ही वस्तुतः तुच्छ है। विकसित वर्ग में उसे हेय समझा जाता है। बौने अपनी बिरादरी में भले ही बढ़-चढ़कर बातें करें। तगड़े पहलवानों के समीप जाकर कुचले और उपहास के भाजन पायें जायेंगे। जीवन क्रम में क्षुद्रता वह है जिसमें व्यक्ति अपने निजी लाभ की ही बात सोचता है और स्वार्थपरता की दुनिया में ही खोया रहता है। विकसित व्यक्ति तत्वों का ‘स्व’ अन्य जनों को भी अपनी परिधि में लपेट लेता है और अपने सुख-दुःख की तरह ही दूसरों की प्रगति अवगति में भी प्रसन्नता खिन्नता की अनुभूति करने लगता है। ऐसा व्यक्ति समूह को अपना ही अंग विस्तार परिवार मानकर उनका पिछड़ापन दूर करने के लिए भी वैसा ही प्रयास करता है जैसा कि अपनी दरिद्रता, रुग्णता अथवा कठिनाई के निवारण में किया जाता है।

यह सामूहिक चेतना बढ़ते-बढ़ते विश्व परिवार के रूप में विकसित होती है और मनुष्य सब को अपना— अपने को सबका— मानने लगता है। जहाँ भी यह प्रवृति पनप रही होगी वहाँ सहज ऐसे सद्गुणों— ऐसे सत्प्रयोजनों का बाहुल्य पाया जाएगा जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में विकासवान बनाते हैं।

सुप्रसिद्ध यूनानी महात्मा सुकरात ने कहा है-ज्ञान ही सद्गुण है।” उनके अनुसार व्यक्ति बुराइयों एवं व्यसनों में इसलिए पड़ जाता है कि उसे जानकारी नहीं होनी— और अन्य विकल्प नहीं सूझ पड़ते जिनसे वह शुभ आचरण की ओर प्रवृत्त हो। यदि व्यक्तियों को बचपन से ही नैतिक कर्तव्यों के प्रति सुशिक्षित किया जाय, उन्हें आध्यात्मिकता के विचारों का पोषण मिले तो वे कुमार्ग पर कदापि कदम न बढ़ायें।

महात्मा सुकरात की दिनचर्या इस प्रकार की थी कि वे सदैव उत्कृष्ट विचारों में ही निमग्न रहते। यूनान के अनेकों नवयुवकों से घिरे रहते उनका पथ-प्रदर्शन किया करते थे। रास्ते में चलते-फिरते भी वे उनसे गम्भीर चर्चा करते एवं जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए व्यावहारिक सुझाव व प्रेरणा देते रहते । सुकरात का जीवन क्रम उनके सिद्धान्तों के अनुरूप ही था। अनेक विचारशील युवकों ने उनकी शिक्षाओं से प्रभावित होकर अपना अर्थ प्रधान दृष्टिकोण बदल डाला उनमें प्लेटो [अफलातून] महाशय का नाम प्रमुख है।

अन्य विवेकवानों ने भी मनुष्य के भले-बुरे कार्यों के लिए ‘ज्ञान’ को एक प्रमुख कारक माना है। अपनी जानकारी के अनुसार ही मनुष्य क्रियाओं में प्रवृत्त होता है। जिसके बारे में ज्ञान नहीं होता उसके सम्बन्ध में तो साधारण मनुष्य कल्पना कर सकने में तक अपने को अक्षम पाता है। इन्द्रियजन्य सुखों के अतिरिक्त उसकी न जानकारी होती है न अधिक जानने की उत्सुकता होती है। व्यक्ति को जब इन्द्रियजन्य भोगों के मिथ्यात्व का ज्ञान हो जाता है तो वह उनकी ओर नहीं दौड़ता। ‘स्व’ का बोध होते ही मनुष्य नैतिक-आध्यात्मिक मूल्यों को प्राप्त करने की चेष्टा प्रारम्भ कर देता है। उसे इसके लिए सर्वप्रथम ज्ञान-संवर्धन न करना होता है। मानव से महामानव बनने का एक सोपान ‘ज्ञान’ की अभिवृद्घि करना है।


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