संसार सापेक्ष, मात्र आत्मा निरपेक्ष!

August 1982

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संसार का स्वरूप सापेक्ष तथ्यों पर अवलम्बित है। दृश्य जगत जिस सत्ता के कारण सत्य प्रतीत होता है− वह निरपेक्ष है। वही सत्य एवं संसार का भूल कारण है। इस तथ्य से अवगत न होने के कारण ही परिवर्तनशील संसार का स्वरूप यथार्थ लगता है। जबकि महती चेतना से निस्सृत होने वाली चेतन तरंगें ही इसका सृजन करती हैं। वे स्वयं तो अदृश्य रहती है किन्तु संसार का स्वरूप गढ़ती हैं। परिवर्तनों का कारण भी वही है। वस्तुतः सृष्टि में चल रहे चेतन प्रवाह पर ही प्रत्यक्ष जगत का स्वरूप टिका है। अस्तित्व उस चेतना का ही है जो जड़ वस्तुओं में भी शक्ति के रूप में विद्यमान उन्हें गतिशील करती तथा स्वयं परिवर्तनों से अप्रभावित रहती है।

जगत को मिथ्या एवं भ्रम कहे जाने का कारण यही है। मिथ्या इस अर्थ में कि जिसका अस्तित्व है, वह दिखायी नहीं पड़ता। वह स्वरूप से परे है। जबकि संसार का स्वरूप मिथ्या होते हुए भी वास्तविक प्रतीत होता है। वेदान्त दर्शन में इस रहस्य को ही “ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या” कहा गया है।

आइन्स्टीन का सापेक्षवाद भी भौतिक आधारों पर इस तथ्य का ही प्रतिपादन करता है। प्रत्यक्ष एवं पदार्थवादी मान्यताओं को ही सही मानने के दुराग्रह को इस नवीन अवधारणा ने न केवल तोड़ा वरन् प्रचलित भौतिक प्रतिपादनों पर नये सिरे से सोचने को बाध्य किया। सापेक्षवाद के भौतिकी प्रतिपादन ने वैज्ञानिकों को जड़वादी मान्यताओं से ऊपर उठकर सोचने पर विवश किया है। वस्तुतः आइन्स्टीन का सापेक्षवाद चिर पुरातन सिद्धांत “ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या” का चिर नवीनीकरण है। यह विज्ञान कलेवर में आध्यात्मिक तथ्यों का ही प्रतिपादन है। जिसने विज्ञान को स्थूल से बढ़कर सूक्ष्म जगत्-सूक्ष्म रहस्यों पर सोचने को विवश किया है।

दर्शन के अनुसार समस्त ब्रह्माण्ड विचारों का प्रवाह मात्र है। दृश्य जगत तो मन के विचारों एवं कल्पनाओं का प्रतिबिम्ब मात्र है। प्रकृति की अपनी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, वरन वह ब्रह्म की स्थूल अभिव्यक्ति मात्र है। वेदान्त दर्शन के अनुसार निरपेक्ष ब्रह्म मन-बुद्धि देश काल निमित्त आदि के अन्तर्गत आकर सापेक्ष ब्रह्माण्ड में परिवर्तित हो गया। यह संसार उसकी स्फुरणा के कारण ही अस्तित्वपूर्ण लगता है। स्वरूप का बोध मन को होता है। मन एक क्रिया शक्ति के रूप में अपनी कल्पनाओं के अनुसार सृष्टि का स्वरूप गढ़ लेता है। शास्त्रों में वर्णन है कि परमाणु से लेकर विशाल ब्रह्माण्ड सबसे ही मनःशक्ति व्याप्त है। प्रतिपादन में तथ्य यह है कि संसार का स्वरूप मन की कल्पनाओं पर अवलम्बित है। मान्यताओं का आभार बदल देने अथवा विचारों में परिवर्तन होने से बाह्य जगत भी परिवर्तित दिखायी पड़ता है। तथ्य तो यह है कि संसार का समष्टिगत स्वरूप स्थिर है।

मानसिक विचारों की शृंखला एवं उसकी परिवर्तनशीलता के कारण ही संसार भी परिवर्तनशील लगता हैं। मन की चंचलता को रोका जा सके, उसे एकाग्र किया जा सके तो यथार्थता का बोध हो सकना सम्भव है। योग शास्त्र मन को अन्तर्मुखी तथा आत्मा में विलीन करने का निर्देश देते हैं। मन की चंचलता को आन्तरिक प्रक्रिया द्वारा ही रोका जा सकता है विचारों से रहित होने पर ही वह सृष्टि के पीछे चल रहे चेतन व्यापार की प्रक्रिया को समझ सकने में समर्थ हो सकता है। इस स्थिति में पता चलता है कि अस्तित्वपूर्ण लगने वाला यह संसार मात्र चेतन तरंगों के कारण ही वास्तविक लगता है। मन को वशीभूत कि हुए योगी इस तथ्य से परिचित होते हैं। अनुभूतियों के आधार पर वे चेतना की स्फुरणाओं को ही स्थूल के पीछे क्रीड़ा करते देखते हैं।

मानसिक सन्तुलन पर ही हर प्रकार की मान्यताएँ उत्पन्न होती तथा अपने अनुरूप दृश्य जगत का स्वरूप गढ़ती हैं। ये सभी सापेक्ष कल्पनाओं पर आधारित की जाने वाली परिभाषाएँ समय, दिशा एवं देश की मान्यताएँ सापेक्ष तथ्यों पर टिकी हुई हैं। आइन्स्टीन ने सापेक्षवाद में इसका ही उल्लेख किया है। उन्होंने प्रकृति में प्रकाश की में अपरिवर्तनशील रहती है। प्रकाश की निरपेक्ष गति को आधार मानने पर भौतिक जगत की समस्त मान्यताएँ ही उलट जाती हैं। इसको एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। सापेक्षवाद के अनुसार प्रकाश की गति पर समय सिकुड़ जाता है। फलस्वरूप भूत, भविष्य एवं वर्तमान का जो अन्तर समय पर आधारित है, समाप्त हो जाता है। इस नियम के अनुसार यदि एक व्यक्ति प्रकाश की गति से चलने वाले किसी यान से यात्रा करे तो वह वर्तमान से भविष्य की ओर छलाँग लगा सकता हैं क्योंकि समय उसने लिये शून्य है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी प्रकार प्रकाश की गति प्राप्त हो जाय अथवा प्रकाश की गति से चलने वाले यान में यात्रा सम्भव हो सके तो सम्भव है कि मानव भविष्य के गर्भ में जाकर होने वाली घटनाओं, परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त कर सकता है।

योगियों, सिद्ध पुरुषों में यह विशेषता होती है। वे भविष्य की घटनाओं से परिचित होते हैं। सम्भव हैं वर्तमान से भविष्य में जाने एवं घटनाओं की जानकारी प्राप्त कर लेने में चेतना के प्रकाश की गति से चलने की प्रक्रिया ही कार्य करती हो। भौतिकी के सापेक्षवाद का सिद्धान्त अब तो प्रायोगिक धरातल पर भी खरा उतर गया है। चेतना के माध्यम से ऋषियों ने आइन्स्टीन के प्रकाश की गति से चलने वाले यान की कल्पना को बहुत समय पूर्व ही प्रयोग स्तर पर उतारा था। चेतना को प्रकाश की तीव्र गति देकर भविष्यकाल में पहुँचना और तथ्यों का पता लगा लेना भारतीय योगियों को न केवल मालूम था, वरन् समय-समय पर उन्होंने इस विज्ञान का उपयोग भी किया। पुष्पक विमान का पौराणिक उल्लेख भी मिलता है। देवताओं का कुछ ही क्षणों में एक लोक से दूसरे लोक में पहुँचाने की बात मात्र कपोल-कल्पना नहीं वरन् विज्ञान की चरम प्रगति का परिचायक है। जो यह बताता है कि उस काल में चेतन विज्ञान कितना आगे था। वर्तमान में भी कितने ही सन्त, महात्मा, योगी इस विद्या के द्वारा ही भविष्य की प्रामाणिक भविष्यवाणी करते देखे जाते हैं।

सापेक्षवाद के अनुसार प्रकाश की गति से चलने वाले काल्पनिक यान की गति किसी प्रकार की बढ़ जाय तो समय उल्टी दिशा में चलने लगेगा। अर्थात् समय की गति भविष्य से वर्तमान तथा वर्तमान से भूत की ओर हो।

कल्पना करें तो बचपन किशोरावस्था अथवा वृद्धावस्था प्रकाश की गति पर निर्भर होंगे। तो एक ही दिन में बचपन जवानी एवं वृद्धावस्था का रसास्वादन कर सकना सम्भव हो जायेगा। यह स्थिति आत्मा की अमरता एवं शाश्वतता की पुष्टि करेगी। व्यावहारिकता के धरातल पर भौतिकी द्वारा उतार सकना अभी तो मात्र एक कल्पना है। किन्तु आत्मिकी ने बहुत समय पूर्ण से ही यह सम्भव कर दिखाया है। पुराणों में च्यवन ऋषि तथा अन्यान्य ऋषियों के अनेकों प्रसंग कायाकल्प के मिलते हैं। यह प्रमाण आत्मविद्या की समर्थता का ही प्रतिपादन करत हैं। निस्सन्देह वैज्ञानिक समीक्षा करने पर यही तथ्य हाथ लगता है कि जरा-स्थिति से युवावस्था प्राप्त करने में चेतन प्रक्रिया ही रही होगी। जिसके द्वारा शरीर के कोशों को प्रकाश की गति से भी अधिक गति दे दी गई हो और वे उनकी वृद्धि भूतकाल की ओर लौट पड़ी हो। प्रयोग स्तर वर्तमान में सम्भव यह भले ही न हो सका है किन्तु पौराणिक घटनाएँ यह बताती हैं कि आइन्स्टीन की कल्पना उस समय साकार की गई थी। अब भी कितने ही योगियों का अस्तित्व हिमालय पर मिलता है जो कई सौ वर्षों की आयु के होते हुए भी युवा दीखते हैं। ये उदाहरण चेतना की असीम शक्ति का ही प्रतिपादन करते हैं।

विवेचनाओं से स्पष्ट है कि भूत, वर्तमान एवं भविष्य की अवधारण गति के सापेक्ष है। गति (प्रकाश) को आधार मान लेने पर काल की मान्यता भी बदल जाती हैं। मान्यताओं एवं अनुभूतियों को केन्द्र बिन्दु मन है। इसी धरातल पर दृश्य जगत का स्वरूप विनिर्मित होता है। आइन्स्टीन का कहना है कि “ वस्तु जगत में मनुष्य का अनुभव घटनाक्रमों के रूप में मन में अवस्थित होता है। मानवी चेतना इन घटनाक्रमों के प्रभाव क्षेत्र से परे है।”

मन की सापेक्ष मान्यताएँ ही ‘निरपेक्ष’ कारण सत्ता को जानने में गतिरोध पैदा करती हैं। यही कारण है संसार का वास्तविक स्वरूप ‘अनजान बना रहता है। चेतना में मानसिक चेष्टाओं के समाहित हो जाने पर मन की कल्पनाओं पर विनिर्मित होने वाले घटनाक्रम भी रु क जाते हैं। स्थूल स्वरूप लुप्त हो जाता है। यहाँ तक कि शरीर की विकास प्रक्रिया भी थम जाती है। ऐसी स्थिति में पहुँचे योगी शारीरिक क्रियाओं पर निर्भर न करके शुद्ध चेतना में रमण करते हैं। योग सूत्रों में इस अवस्था को ही ‘समाधि’ से सम्बोधित किया गया है। समाधि द्वारा हजारों वर्ष तक जीवित रहने के पीछे तथ्य यह निहित है कि शरीर के कोशों को हलचल एवं वृद्धि रु क जाती है। ऐसे दीर्घ जीवी योगियों का साक्षात्कार किन्हीं-किन्हीं सौभाग्यशाली व्यक्ति को हिमालय यात्रा में होता है।

गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं—

मन एव मनुष्याणाँ कारणं बंध मोक्षयोः।”

बन्धन इन अर्थों में कि— जब तक वह बाह्य जगत में चलायमान रहता है तब तक स्थूल को ही सत्य मान कर उनसे बँधा रहता है। मुक्ति की स्थिति मन के आत्मा में लय से होती है। यही कारण है कि शास्त्र मन को एकाग्र एवं आत्मा में विलीन करने का निर्देश देते हैं । इन निर्देशनों के पीछे रहस्य यह है कि चेतना में मन के लय होने से उठने वाले संकल्प विकल्प लुप्त हो जाते हैं। प्रतीत होने वाला जगत का मिथ्या स्वरूप भी इन संकल्पों से ही वास्तविक लगता है। मानसिक व्यापारों से रहित होने पर संसार के यथार्थ स्वरूप का बोध होता है। उसमें हलचल करती-प्रेरणा भरती चेतना की अनुभूति होने लगती है। यही निर्विकल्प स्थिति है। अमरत्व इसी का अलंकारिक स्वरूप है

आइन्स्टीन का सापेक्षवाद भी इस तथ्य की पुष्टि करता है। प्रकाशीय गति पर समय के सिकुड़ जाने शारीरिक से चेष्टाएँ शिथिल पड़ जाती है। कोषों द्वारा संचित ऊर्जा का अपव्यय रु क जाने से मनुष्य मनचाही आयु तक जिन्दा रह सकता है। सिद्धान्तों की दृष्टि भौतिकी सापेक्षवाद और आत्मिकी चेतन विज्ञान विशेष समता है। अन्तर मात्र यह है कि चेतन विज्ञान की विशेष समता है। अन्तर मात्र यह है कि चेतन विज्ञान से अलौकिक घटनाओं के आधार पर इसके प्रमाण दिये हैं। जबकि भौतिक विज्ञान असमर्थ रहा है। दीर्घ योगियों के प्रमाण इस बात की पुष्टि तथा प्रेरित करता है कि यदि अवलम्बन चेतन विज्ञान का लिया जाय आइन्स्टीन का सिद्धान्त प्रयोग स्तर पर लाया सकता है।

सापेक्ष मान्यताओं पर आधारित यह विश्व मानसिक व्यापारों का प्रतिफल है। जो सतत परिवर्तनशील है जहाँ परिवर्तन है-वहाँ स्थापित नहीं। जिस सत्ता के कारण संसार का स्वरूप वास्तविक लगता है व चेतन है। पिण्ड में आत्मा तथा ब्रह्माण्ड में वही परमात्मा नाम से जानी जाती है। उसकी चेतन तरंगें ही पदार्थ को गढ़ती तथा विनष्ट करती हैं, किन्तु स्वयं अप्रभावित बनी रहती है। संसार को समझने के लिए मन से ऊपर उठकर संकल्प-विकल्पों से रहित होकर चेतन विज्ञान का ही अवलम्बन लेना होगा। सापेक्ष आधा द्वारा विनिर्मित दृश्य जगत में कार्य कर रही निरपेक्ष सम्भव है। आत्म-विज्ञान का आश्रय ही दृश्य जगत रहस्यों का उद्घाटन कर सकने में समर्थ होगा। इस अनुभूति के बिना तो असमंजस बना रहेगा।


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