व्यक्ति तत्व विकास के कुछ नये पुराने तरीके

August 1982

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आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य की चेतना का महत्व तो समझा है पर उसे खोपड़ी में भरे हुए लिवलिबे पदार्थ तक सीमित माना है। ऐसी दशा में चेतना विकास के लिए उनके प्रयत्न इसी परिधि तक सीमित रहे हैं कि किस प्रकार इस क्षेत्र की हलचलों में हेर-फेर किया जा सके।

मस्तिष्कीय क्षमता को ही व्यक्तित्व का विकास समझने वाले वैज्ञानिकों ने इन दिनों इस संदर्भ में कई दृष्टियों से विचार किया और कई उपाय सोचे हैं। वे यह भी मानते हैं कि परिवार एवं समाज के वातावरण का मनुष्य के चिन्तन एवं स्वभाव पर असर पड़ता है इसलिए शिक्षा तथा परम्परा के क्षेत्र में कुछ ऐसा समावेश होना चाहिए जिसके प्रभाव से आज का मनुष्य कल अपेक्षाकृत अधिक बुद्धिमान, साहसी और सद्गुणी हो सके।

इसके अतिरिक्त उनका विशेष ध्यान इस बात पर है कि ‘ब्रेन वाशिंग‘ के कोई कारगर उपाय ढूँढ़ निकाले जाय । इस संदर्भ में कम्युनिस्ट देश सबसे आगे हैं। उन्होंने अपने विरोधियों का सफाया करके सिर दर्द से छुटकारा पाने के उपायों में अत्यधिक उत्साह दिखाया है, वहाँ हलका-फुल्का यह प्रयोग भी किया है कि प्रतिपक्षी मान्यता वालों पर ऐसे मनोवैज्ञानिक दबाव डाले जाएँ ताकि वे अपनी पूर्व मान्यता को छोड़कर नये निर्देशों को हृदयंगम करने के लिए स्वेच्छापूर्वक सहमत हो जाय । इस प्रयास में समझाने-बुझाने अभीष्ट वातावरण में रहने, भय प्रताड़ना से आतंकित करने, विवशता को बोध कराने लालच दिखाने जैसे उपायों के सहारे असहमत को सहमत बनाने का प्रयत्न किया जाय। यही ‘ब्रेन वाशिंग‘ की प्रक्रिया है जो उन देशों में उत्साहपूर्वक चली और एक सीमा तक सफल भी हुई है। परिस्थितियाँ मनुष्य के स्वभाव, रुझान एवं निर्धारण को बदलने के लिए बाधित करती रही हैं।

परिस्थितियों से प्रभावित करने वाले तरीकों में लोक शिक्षण का एक सौम्य एवं सर्वविदित तरीका है। शिक्षा में स्कूली पाठ्यक्रम के साथ जुड़ी हुई दिशाधारा तो प्रमुख है ही। इसके अतिरिक्त सर्वसाधारण द्वारा पढ़ा जाने वाला साहित्य भी ऐसा है जो यदि उद्देश्यपूर्ण हो तो अपने पाठकों को प्रभावित किये बिना नहीं रहता । मनोरंजन एवं जानकारियाँ बढ़ाने के उद्देश्य से लिखा गया साहित्य हर दिशा में बहुत छपता और बहुत पढ़ा जाता है। समाचार पत्र और विचार प्रधान पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन विक्रय ऐ अच्छा खासा उद्योग है। कथा साहित्य एवं उपन्यास संसार भर में बहुत पढ़े जाते हैं। भिन्न-भिन्न विषयों की गम्भीर जानकारियाँ देने वाला समीक्षा प्रधान साहित्य भी विचारशील लोगों की बौद्धिक भूख बुझाता है। धर्म, अध्यात्म दर्शन, विवरण तथ्यों को लेकर कितने ही छोटे-बड़े ग्रन्थ छपते रहते हैं। संगीत अभिनय, नाटक आदि दृश्य एवं श्रव्य प्रधान साधन भी एक प्रकार से साहित्य की ही आवश्यकता पूर्ण करते हैं। रेडियो, टेलीविजन के सरकारी तन्त्र भी प्रकारान्तर से लोक मानस को प्रभावित करने की भूमिका निभाते हैं। साहित्यकार, कलाकार, चित्रकार, मूर्तिकार, गायक, वक्ता मिलजुल कर लोकमानस का निर्माण ही करते हैं, यह दूसरी बात है कि विचारणा को प्रभावित करने वाली यह साहित्य शक्ति किस दिशा में प्रवाहित होती हैं और क्या परिणाम उत्पन्न करती है। हर हालत में उसकी बौद्धिक चेतना को प्रभावित करने वाली क्षमता को बिना किसी अनुनय के स्वीकार करना ही होगा।

आम तौर से यह साहित्य तन्त्र इन दिनों मात्र विनोद और जानकारी बढ़ाने भर के काम आता है। यदि इसे दिशाबद्ध किया जा सके तो लोक मानस को दिशा विशेष में ढालने के लिए भी कारगर उपाय की तरह काम आ सकता है। इसका प्रयोग कम्युनिस्ट देशों में तत्परतापूर्वक हुआ है। इस समूची ज्ञान क्षमता को उन्होंने निमन्त्रण से लेकर इस प्रकार ढाला है कि उसके परिपक्व और अपरिपक्व दोनों ही स्तर के लोग इस मान्यता को सर्वोपरि र्स्वय सत्य की तरह माने अपनाने के लिए अनायास ही बाधित होते चले जाय । रूस, चीन और उनके प्रभाव क्षेत्र वाले देशों में सामान्य नागरिकों की मानसिक स्थिति ऐसी ही है जिसे सम्मोहक ग्रस्त कहा जाय तो कुछ भी अत्युक्ति न होगी। इससे पूर्व द्वितीय महायुद्ध से पूर्व ऐसी ही स्थिति जर्मनी, इटली आदि में तत्कालीन अधिनायकवादी शासन तन्त्र ने उत्पन्न की थी। नाज़ीवाद का पक्षधर लोक मानस बनाने में हिटलर, मुसोलिनी आदि ने अपने देशों के समूचे बौद्धिक तन्त्र को जुटा दिया था।

इन दिनों जन-तन्त्र के नाम पर मनुष्य क मौलिक अधिकारों को दुहाई देकर कुछ भी लिखा छापा जा रहा है और उससे जन साधारण की मानसिक स्थिति विचित्र एवं विकृत बनाई जा रही है। फिर भी वह आशा रखी जा सकती है कि यदि कभी मूर्धन्य लोगों न साहित्य और कला को अस्त-व्यस्त दिशाविहीन न होने देने का बात सोची और प्रयत्नपूर्वक उसे निकृष्टता के समर्थन से विरत बनाकर सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में लगाया तो निश्चय ही देव मानस ढालने, देवमानव निर्मित करने में आशा जनक सफलता मिलेगी।

नये युग की आवश्यकता पूर्ण कर सकने में समर्थ व्यक्ति तप वाले जन समुदाय ढालने में मनीषियों का निश्चित मत है कि परिवारों की आचार-संहिता-कार्य पद्धति, विधि-व्यवस्था परम्परा एवं रीति-नीति में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने की आवश्यकता है। आज परिवारों क अपनाने, बढ़ाने एवं चलाने में बुरी तरह स्वेच्छाचार घुस पड़ा है। कुटुम्ब के निर्वाह साधन जुटाने और सदस्यों की फरमाइश पूरी करने में ही समय तथा साधन चुक जाते हैं जो उसे परिवार के बौद्धिक एवं चलाने में चारित्रिक विकास की असाधारण भूमिका निभा सकते थे। सभी जानते हैं कि परिवारों की प्रयोगशाला में ही गुण, कर्म स्वभाव का ढाँचा गढ़ा जाता है। उस तन्त्र को उद्देश्य पूर्ण आदर्श समर्थक बनाकर ही यह आशा की जा सकती है कि विश्व के समुदाय को उत्कृष्टता की दिशा में अग्रसर किया जा सकेगा।

मनुष्य को अधिक समर्थ, समुन्नत बनाने के टेड़े-तिरछे एवं शार्टकट उपास ढूँढ़ने वालों न रसायनों का प्रयोग करने तथा विद्युत प्रवाहों से प्रभावित करने के तरीके ढूँढ़े हैं और उन्हें छोटे जानवरों पर प्रयोग करके यह पाया है कि यह प्रयोग मनुष्यों की अभीष्ट स्तर का बनाने में भी कारगर ही सकते हैं।

उदाहरणार्थ अठारहवीं शताब्दी के अन्त में पेनफील्ड ने ‘ब्रेन सेर्ण्टस’ को जानने के लिये जो प्रयोग आरम्भ किये, उनकी शृंखला अभी चल ही रही है। मस्तिष्कीय विज्ञानी कहते हैं कि स्थूल मस्तिष्क के दो भाग होते हैं− एक पुराना एनीमल ब्रेन( पाशविक संचित कुसंस्कारों एवं अन्तः प्रवृत्तियों से युक्त ) एवं दूसरा ऊँचे स्तर का नया मस्तिष्क जो मात्र मनुष्यों को ही मिला है स्त्र पहले में दर्द, भय, भूख, यौन-इच्छा थकान, आक्रमण आदि के केन्द्र होते हैं जो मुख्यतः जीवन को बनाये रखने एवं नस्ल को जीवित रखने के लिए जरूरी है। जो दूसरा नया मस्तिष्क है उसमें और भी अधिक विकसित प्रिफष्टल लोब होते हैं जिनका कार्यक्षेत्र विशुद्धतः बौद्धिक है। तर्क बुद्धि, सिविक सेन्स, आपसी व्यवहार, योजनाबद्ध कार्यक्रम का निर्धारण आदि यही निश्चित किये जाते हैं। भावनात्मक आवेगों पर नियंत्रण यहीं से होता है।

उदाहरणार्थ प्रयोगशाला में विद्युतीय इलेक्ट्रोडों के माध्यम से बिल्ली की मानसिक स्थिति ऐसी बना दी गई कि वह चूहे पर आक्रमण का स्वभाव भूलकर उनसे डरने लगी। खरगोश और शेर की कुश्ती करा दी गई तो शेर दुम दबाकर एक कोने में जा बैठा और खरगोश ने इस प्रकार हमला बोला मानों उसे अपनी बहादुरी जीत का पूरा पक्का विश्वास हो। आमतौर से पशु अपने सजातियों से ही यौन सम्बन्ध स्थापित करते हैं, पर इलेक्ट्रोडों से प्रभावित जीवों ने अन्य जाति वालों के साथ यौन सम्बन्ध स्वीकारने में उत्साह दिखाया। इसी प्रकार वे अपने अभ्यस्त आहार को छोड़कर अन्य प्रकार का आहार अपनाने लगे। अधिक नींद लाने या बिना सोये ही बहुत समय तक स्वेच्छापूर्वक कार्यरत रहने में भी सफलता मिल गई।

विद्युतीय उपचारों के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के प्रयोग भी पिछले दिनों चलते रहे हैं। इनमें से एक है प्राण प्रहार-हिप्नोटिज्म दूसरा है रासायनिक उपचार। मस्तिष्क को एक सीमा तक इन दोनों साधनों से प्रभावित करने में सफलता बहुत दिनों से मिलती आ रही है। अब उन साधनों को नये ढंग से नये प्रयोजन के लिए प्रयुक्त करने की बात सोची गई है। हिप्नोटिज्म से प्रभावित व्यक्ति अपनी स्वाभाविक मनःस्थिति को भूल जाते और प्रयोक्ता के सन्देशों को शिरोधार्य करते हुए वैसा ही सोचते, वैसा ही करते हैं। शराब, भाँग, गाँजा, अफीम आदि का नशा करने के बाद मस्तिष्क की स्थिति असामान्य हो जाती है और मनुष्य कुछ का कुछ कहने करने लगता है। अपने ऊपर से अपना नियन्त्रण हट जाने और रसायनों का प्रभाव प्रमुख बनने की बात को यदि अचेतन के परिवर्तन में प्रयुक्त किया जाय तो सफलता कहाँ तक मिल सकती है, इसकी जाँच-पड़ताल इन दिनों चल रही है।

जड़ी-बूटियों के प्रभाव से वृद्धावस्था को नव यौवन में बदल देने की प्रक्रिया प्राचीन काल में काया-कल्प के नाम से प्रयुक्त होती थी। वयोवृद्ध च्यवन ऋषि की अश्विनी कुमारों ने ऐसे ही प्रयोग के आधार पर नवयौवन प्रदान करने की कथा है। ययाति को उसके पुत्र का प्रत्यारोपण करके जराजीर्ण स्थिति से नव यौवन दिया क्या था। अमृत के संबन्ध में ऐसी ही मान्यता है। चिकित्सक अपनी औषधियों के सम्बन्ध में ऐसे ही दावे करते रहते हैं। शोध का यह भी एक विषय है कि काया सचेतन की तरह अचेतन को प्रभावित करने का भी कोई रासायनिक उपचार खोजा जाय। ब्राह्मी, सर्पगंधा, शंखपुष्पी जैसी बूटियों का मस्तिष्कीय उपचार में अभी कारगर प्रयोग होता है। इस दिशा में अभी और आगे बढ़ने की गुँजाइश है।

रसायनों के प्रभाव से मस्तिष्क को उत्तेजित अति सामर्थ्यवान एवं दब्बू, भयभीत भी बनाया जा सकता है। इन रसायनों में सिरोटोनिक, नार एड्रिनेलिन एवं डोपमीन प्रमुख हैं। मस्तिष्कीय जैवरासायनिक प्रतिक्रियाओं में इनकी प्रमुख भूमिका है। पिछले दिनों केलिफोर्निया के डा. स्नाइडर ने एनकेफेलिन नामक रस स्रावों की मस्तिष्क में उपस्थिति बतायी है। इन्हें कृत्रिम विधि (ओषधियाँ, हिप्नोसिस, बायोफीड बैक, इलेक्ट्रोड उत्तेजन) से प्रभावित कर व्यक्ति को मानसिक दृष्टि से अति सामर्थ्यवान बनाया जा सकना सम्भव है।

मानवी चेतना को प्रभावित करने वाले उपरोक्त उपचारों में से कुछ पुराने और कुछ नये हैं। इनका प्रयोग चलता रहा है और चलेगा किन्तु परिणामों को देखते हुए इतना ही निष्कर्ष निकलता है और इतना ही विश्वास होता है कि थोपे गये उपचार कुछ समय तक अपना प्रभाव दिखा कर अन्धड़ चक्रवातों की तरह अपनी जादुई कारगुजारी समाप्त करके विस्मृति के गर्त में चले जाते हैं। पानी के बबूले का आयुष्य ही कितना होता है। चिरस्थायी उपाय उपचार ढूँढ़ने हों तो मानवी सत्ता के आधारभूत केन्द्र स्थल अन्तःकरण की गहराई तक प्रवेश करके वहाँ कुछ उथल-पुथल उत्पन्न करने का चिरस्थायी प्रयास करना होगा। इसके लिए ब्रह्म विद्या पर आधारित तत्व दर्शन को हृदयंगम करके और तप साधना की सहायता से संचित संस्कारों को उखाड़ने ढालने के अतिरिक्त और कोई मार्ग है नहीं।


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