क्रुद् प्रकृति एवं असन्तुलित पर्यावरण से एक व्यापक उथल-पुथल सम्भावित

August 1982

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प्रस्तुत समय कुछ ऐसा चल रहा है जिसे संधिकाल कहा जा सकता है। जितने अप्रत्याशित परिवर्तन गत दिनों देखे गए, गत एक सदी में भी नहीं घटित हुए। यों तो बीसवीं सदी का प्रारम्भ ही महाशक्तियों के मध्य टकराव के हुआ था। प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध ने सारी विश्व वसुधा की काया ही पलट दी। अनगिनत व्यक्ति मारे गए एवं कई हमेशा के लिए अपंग हो गए। आणविक विभीषिका का प्रलयंकारी दृश्य पहली बार विश्व मानस ने देखा व सबका दिल दहल गया। द्वितीय विश्व युद्ध को समाप्त करने में इस विस्फोट की प्रधान भूमिका रही। लगता था-अब शान्ति रहेगी तथा सब मिल-जुलकर धरती पर स्वर्गीय वातावरण लाने का एक जुट हो प्रयास करेंगे । परन्तु परिस्थितियों के मोड़ मनचाहे थोड़े ही होते है। विधि ने सृष्टि सन्तुलन विनाश सृजन का जो गतिचक्र बनाया है, वह एक अनिवार्य प्रक्रिया है। पर्यावरण में इन दिनों घटित हो रहे अप्रत्याशित परिवर्तन कुछ ऐसा संकेत दे रहे हैं कि भावी समय सामान्य नहीं है। वैज्ञानिक, अन्तरिक्ष विज्ञानी,ब्रह्माण्ड जीवशास्त्री, भौतिकविद् एक स्वर से कह रहे हैं कि पृथ्वी एक विशिष्ट परिवर्तन काल से गुजर रही है, जिसके दोनों ही पहलू है-असन्तुलित पर्यावरण एवं तद्जन्य विभीषिकाएँ तथा इनका निवारण एक समग्र समर्थ सामूहिक प्रयासों की शृंखला के माध्यम से है।

पिछले दिनों नवग्रह योग की काफी चर्चा “जुपिटर इफेक्ट” पर परस्पर विरोधी मत दिए गए। नौ ग्रहों की एक ही सीध में आ जाने-इस युतिचक्र के कारण कितनी विभीषिकाएँ उत्पन्न हो सकती है, इस पर ग्रन्थ लिख दिए गए। तीन वैज्ञानिकों द्वारा लिखित इसी नाम से एक पुस्तक पर काफी विवाद उठ खड़ा हुआ और अन्त में निराश हो दोने ने अपने को इस मसले से अलग कर लिया। एक वैज्ञानिक डा.ग्रिबिन अपनी बात पर अड़े रहे। उनका कहना था कि “इसके प्रभाव तुरन्त नहीं, दूरगामी होंगे। सारे विश्व का मौसम बदलेगा। कहीं-भूकम्प फूट पड़ेंगे तो कहीं अकाल व महामारी का दौर आरम्भ होगा। विनाशकारी बाढ़ों से कहीं-कहीं जल प्रलय का खतरा है। ग्लेशियरों की स्थिति पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा तथा हो सकता है कि पृथ्वी का बहुसंख्य भाग हिम से ढँक जाय।” मार्च की नवग्रह-युति लीला का प्रसंग समाप्त हुआ तथा सभी ने कहना आरम्भ कर दिया कि अष्टग्रही योग की तरह मात्र मानव जाति है। दूसरी ओर गत 3 माह में घटित कुछ परिवर्तनों को दृष्टिगत रख विश्लेषणकर्त्ता कहते हैं। कि ‘जुपिटर इफेक्ट’ से प्रलय तो नहीं हुई परन्तु पर्यावरण बहुत तेजी से बदला है वे डा. ग्रिबिन द्वारा कही गयी बातें सत्य हुई है। आगे भी अन्तरिक्षीय उपग्रहों के मापन यही बताते हैं कि विभीषिकाओ का दौर जारी रहने वाला है।

यदि हम थोड़ी पीछे की ओर दृष्टि डालें व पर्यावरण सम्बन्धी समाचारों का एक विहंगावलोकन करें तो कुछ विस्मयकारी अपवाद रूप घटनाक्रम दृष्टिगोचर होते हैं। इस वर्ष मई माह में जहाँ भारत जैसे देश में भयंकर गर्मी पड़नी चाहिए थी, वहाँ तीन चौथाई भूभाग में अप्रत्याशित मौसम देखा गया। अधिकाँश स्थानों पर गर्मी में उग्रता नहीं थी। जहाँ शीत ऋतु लम्बी खिंची तथा हिमाचल, हिमालय के निचले इलाकों में मार्च अप्रैल तक हिमपात होता रहा, वहाँ सारे उत्तर भारत में कभी वर्षा, कभी ओले, कभी झंझावात तथा कभी तेज हवा के साथ आँधी तूफान का दौर चलता रहा। पिछले दो सौ वर्षों में अप्रैल में इतनी वर्षा नहीं हुई, न ही हिमपात, जितना 1982 की अप्रैल में हुआ है।

प्रकृति जिस मदमस्त हाथी की तरह क्रुद्ध हो अब दौड़ी चली जा रही है, इसका पूर्वाभास मई-जून में ही हो गया था जब मौसम विशेषज्ञों ने समय ने पूर्व मानसून, अतिवृष्टि तथा अधिक समय तक वर्षा ऋतु केिखंचने (नवम्बर तक )की संभावना बताई है। अपने अन्तरिक्षीय उपग्रहों से लिए गए चित्रों व गत 70 वर्ष के आँकड़ों के आधार पर मौसम विभाग के डायरेक्टर जनरल डा. पी .के. दास ने आने वाले समय को और भी अधिक भयावह सम्भावनाओं से पूर्ण बताया है। उनका कहना है कि “1979 में मानसून की भारत में पूर्ण विफलता , 1980 में गर्मी में यूरोप व अमेरिका में हिमपात तथा 1981−82 में ओलों की वर्षा से फसल को सारे विश्व भर में हानि पहुँचने के घटनाक्रमों को एक दुर्घटना मात्र कहकर नहीं टाला जा सकता है। पृथ्वी का अपनी धुरी पर गति का क्रम व उसकी ग्रहों से तथा अन्तरिक्षीय किरणों से प्रभावित होने की स्थिति अब बदलती जा रही है। वातावरण में संव्याप्त धूलिकणों की मात्रा, कार्बनडाय आक्साइड ओजोन की परतों पर जमाव तथा ज्वालामुखी विस्फोटों की शृंखला से पर्यावरण सन्तुलन बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पृथ्वी का विकिरण सन्तुलन इससे अव्यवस्थित हुआ है तथा ओजोनोस्फीयर-आयनोस्फीयर की परतों में ‘गैप्स’ आ जाने से अन्तरिक्षीय किरणों-घातक विकिरणों के पृथ्वी पर आने की संभावनाएँ बढ़ गयी हैं। एक आँकड़ा देते हुए वे बताते हैं कि उत्तरी भारत पर किए गए एक सर्वेक्षण से ज्ञात हुआ है कि प्रति वर्ग मील क्षेत्र में पाँच टन घातक प्रदूषण कारक तत्व पाए गए हैं। यदि इसकी मात्रा कम की जा सके तो मौसम को अनुकूल बनाया जा सकता है।

इन दिनों आकाश में पश्चिम दिशा में नित्य रात्रि को नौ बजे तक रक्त लालिमा दिखाई देती है। ऊषा के पूर्व भी इसी प्रकार सारा आकाश विचित्र प्रकार से रक्त रंजित-सा हो उठता है। इसका विश्लेषण व्यक्ति यों ने अपने-अपने ढंग से किया है। ज्योतिषियों ने ऐतिहासिक प्राच्य घटना चक्र गोष्ठी में इसका हवाला देते हुए कहा है कि इससे पूर्व रामायण काल में लंका दहन के समय भी ऐसी ही लालिमा दिखाई दी थी। इस प्रकार यह एक युगान्तरकारी घटना-व्यापक विनाश की सूचक है। इसी घटना का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए प्रसिद्ध एस्टोफिजिसिन्ट बताते हैं कि गत दो मासो में पृथ्वी के विभिन्न भागों में चार स्थानों पर ज्वालामुखी फटने से तेजाब का एक विशालकाय बादल वायुमण्डल में पहुँच गया है। मैक्सिको , इण्डोनेशिया, ईरान व कनाडा के शतकों से असुप्त पड़े इन ज्वालामुखियों में हुए भीषण विस्फोटों से निकली राख तथा सल्फ्यूरिक एसिड (गन्धक का तेजाब) पृथ्वी से 26 किलोमीटर ऊपर एक विशाल बादल के रूप में फैल गया है तथा इससे जापान, एशिया, यूरोप व हवाई द्वीप−समूह के एक बहुत बड़े हिस्से में सूर्य का प्रकाश पहुँचने में बाधा पहुँच रही है। एक करोड़ टन राख व तेजाब धरती के वातावरण को किस प्रकार प्रभावित करेगा, इस पर वैज्ञानिकों का कथन है कि यह सारे विश्व के मौसम को बदल सकने में, भयंकर बाढ़ें तथा महामारियाँ लाने में सहायक हो सकता है। ऐसा ही सन् 1815 में हुआ था, जब इण्डोनेशिया के तम्बोरा ज्वालामुखी से 12 हजार लोग मारे गए थे तथा अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड क्षेत्र में गर्मी में ठण्ड जैसा मौसम देखा गया व लन्दन की टेम्स नदी बर्फ से ढँक गयी थी।

अभी दृश्यमान आकाश लालिमा को ज्वालामुखी विस्फोटों से जोड़ते हुए वैज्ञानिक बताते हैं कि सौर किरण के तेजाबी बादल, जो मीलों चौड़ा तथा दो किलोमीटर मोटा है, से गुजरने से आकाश का ऐसा दिखाई पड़ना स्वाभाविक है तथा यह प्रकृति का एक स्वाभाविक सहज घटनाक्रम है। इससे कहीं-कहीं अम्ल वर्षा हो सकती है जो कि पहले भी कई बार हुई है। जेम्स पोलाँक जो ‘नासा’ के एमीस रिसर्च फाउण्डेशन के अध्यक्ष हैं, कहते हैं कि ऐसा ही बादल वर्ष 4 अप्रैल को दक्षिण-पूर्व मेक्सिको के सिन्कोनल वाल्केनो में विस्फोट के फलस्वरूप बना था तथा कई दिनों तक पृथ्वी की परिधि में चक्कर काटता रहा। भारतीय महाद्वीप, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा उत्तरी अमेरिका में अप्रत्याशित मौसम परिवर्तन के लिए इसे उत्तरदायी माना जा सकता है।

ढाई सौ ग्राम भार के ओले, ठण्डी मई, आकाश लालिमा तथा भयंकर मानसून की चर्चा के बाद अब कुछ और वैज्ञानिक अध्ययनों पर भी दृष्टि डालना जरूरी है। सूर्य की एक सौवीं सतह को घेरे हुए सौर कलंकों की एक शृंखला पिछले दिनों वैज्ञानिकों ने अपने दूरदर्शी यन्त्रों से देखी है। एरिजोना की कीटपिक आँब्जर्वेटरी ने गत फरवरी-मार्च में एक सर्पिल आकार का धब्बा सौर सतह पर देखा जिसका व्यास अपनी पृथ्वी के व्यास से लगभग 6 गुना अधिक था। अन्तरिक्ष भौतिकी के जानकारों को अभिमत है कि ऐसे धब्बे जब भी दिखाई पड़ते हैं, उनकी संख्या व क्षेत्रफल अधिक होता है तब सूर्य सतह से गर्म-गर्म ऊँची लपटें उठने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं जो पृथ्वी के वातावरण को व्यापक रूप में प्रभावित करती हैं, मौसम बदलती है तथा एक लम्बे समय तक यह असन्तुलन बना ही रहता है।

वैज्ञानिक अपने-अपने मन्तव्य देते रह सकते हैं पर घटनाक्रम किसी स्पष्टीकरण के अनुसार नहीं चलते। वे तो एक सुनिश्चित विधि-व्यवस्थानुसार घटने वाले परिवर्तन हैं। यदि इन सभी को तथ्यों की कसौटी पर कसा जाय तो ज्ञात होता है कि ज्योतिर्विज्ञान-अन्तरिक्ष विज्ञान के निर्धारणों के अनुकूल ही सब कुछ घट रहा है। यह एक निर्विवाद सत्य है कि सौर मण्डल से जो अदृश्य विकिरण प्रवाहित होते हैं, उन्हें अति संवेदनशील जीव निश्चित रूप से ग्रहण करते हैं। नवजात शिशु के व्यक्ति त्व निर्माण में उस प्रभाव की भूमिका को झुठलाया नहीं जा सकता। मौसम, तूफान,

ज्वार-भाटा विकिरण जैसे प्रभाव अन्तरिक्ष विद्या के अंतर्गत आते हैं। ग्रहों का गतिचक्र किस प्रकार वातावरण को प्रभावित करता है, इसका आधुनिकतम स्वरुप ‘सेटेलाइट्स’ है जो विश्व के किसी भी भू-भाग में तूफान की सम्भावना का पूर्वानुमान लगाकर सचेत कर देते हैं। यह एक अन्ध विश्वास नहीं, उच्चस्तरीय विज्ञान है जिस पर सारी ‘एस्ट्रोफिजिक्स’ टिकी हुई है। फिर क्या कारण है कि ज्योतिर्विज्ञान व अन्तरिक्ष विज्ञान का परस्पर तालमेल नहीं बैठ पाता। एक ने सूक्ष्म जगत पर तथा दूसरे ने पर्यावरण-मौसम पर अपना मन्तव्य प्रकट किया तो यह भी एक सत्य है कि सूक्ष्म प्रभाव तथा पर्यावरण असन्तुलन परस्पर सम्बद्ध है।

वर्तमान में भी जो कुछ भयावह दृष्टिगोचर हो रहा है, उसे मात्र अपवाद न माना जाय। प्रत्यक्ष जो है सो है, किन्तु जो अप्रत्यक्ष को देख और समझ सकते हैं वे जानते हैं कि स्थिति और भी जटिल है कुछ विपत्तियाँ ऐसी होती हैं कि प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देती, पर धीरे-धीरे विनाश-लीला मचाती रहती हैं व समय परिपाक में अपने भयंकर रूप में फूट पड़ती हैं। युग सन्धि ऐसे ही अवसरों को कहते हैं जब असन्तुलन अपनी उच्चतम स्थिति में होता है तथा सन्तुलन की विधि-व्यवस्था भी बनने लगती है। इन दिनों विनाश और सृजन के मध्य भयावह संघर्ष है। ध्वंस ने तो यह नीति अपनायी है कि मानवी दुर्बुद्धि से लेकर पर्यावरण असन्तुलन तक जितना सम्भव हो सके, अपनी मनमर्जी की जाय। रात जब आती है तो अन्धकार घना हो जाता है। मरने वाले की साँस तेजी से चलती है। युग प्रत्यावर्तन के इस समय में विनाश विभीषिकाएँ यही लीला सन्दोह रच रही हैं।


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