अन्तराल में प्रतिष्ठित प्रतिभा क्षेत्र

July 1981

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संसार की विषमता बड़ी विलक्षण है। कोई धनवान है, कोई कंगाल। कोई सुन्दर है तो कोई कुरूप। शारीरिक दृष्टि से बलिष्ठ एवं कमजोर दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों का युग्म दिखाई पड़ता है। किसी को अनेकों प्रकार की बीमारियाँ घेरे हुए हैं, तो कोई सदा स्वस्थ, निरोग रहकर जीवन का वास्तविक आनंद उठाता है। किसी के साथ जन्मजात विकलांगता का, अंधे अथवा रुग्ण होने को अभिशाप जुड़ा हुआ है तो कोई जन्म से ही स्वास्थ्य एवं सौंदर्य को साथ लिए प्रकट होता है। कुछ बच्चे जन्म से ही असाधारण प्रतिभा के स्वामी होते हैं, और कुछ नितान्त बुद्धू। किन्हीं की बौद्धिक प्रखरता वयोवृद्धों को भी मात करती है, किन्हीं-किन्हीं पर प्रभावशाली प्रशिक्षण का भी प्रभाव नहीं पड़ता और वे गूढ़ ही बने रहते हैं।

कई बार एक प्रकार की परिस्थितियों में ही यह विषमता उभर कर सामने आती है। साधन एवं प्रशिक्षण एक जैसा मिलते हुए भी कुछ बच्चे विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न बन जाते हैं, जबकि उन्हीं परिस्थितियों में दूसरे सामान्य अथवा मूर्ख बने रहते हैं। यह भिन्नता प्रकृति गुण एवं स्वभाव में भी दृष्टिगोचर होती है। हर दृष्टि से अनुकूल वातावरण होते हुए भी कोई-कोई बच्चे उद्दण्ड, क्रूर एवं हिंसक प्रकृति के हो जाते हैं। इसके प्रतिकूल भी तथ्य देखे जाते हैं। पापी, क्रूरकर्मी अभिभावकों के संरक्षण में पले कोई-कोई बच्चे सौम्य, शालीन एवं सन्त प्रवृत्ति के भी पाये जाते हैं। जबकि उन्हीं के दूसरे सहोदर भई अभिभावकों के पदचिह्नों का अनुकरण करते हैं। सौम्यता, शिष्टता, शालीनता के संस्कारों से युक्त माता-पिता के बच्चों में से कुछ उद्दण्ड, क्रूर, क्रोधी एवं हिंसक संस्कारों से युक्त भी देखते जाते हैं।

इन विषमताओं एवं भिन्नताओं का प्रत्यक्ष कारण ढूंढ़ने पर कोई ऐसा आधार नहीं मिलता जो मानवी मस्तिष्क की संतुष्टि कर सके। वातावरण एवं आनुवांशिकी जैसे वैज्ञानिक आधारों पर भी उक्त विषमताओं का कारण स्पष्ट नहीं हो पाता। ऐसी स्थिति में कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त ही समाधानकारक सिद्ध होते हैं। वैचारिक दृष्टि से उनकी प्रामाणिकता असंदिग्ध है। स्पष्ट है कि आनुवांशिकी गुणों के अतिरिक्त भी बच्चे के साथ कुछ ऐसी विशेषताएं जुड़ी होती हैं जो अधिक सूक्ष्म तथा सशक्त हैं। भारतीय संस्कृति में उन्हें ही सूक्ष्म संस्कार कहते हैं जो मरणोपरान्त भी जीवात्मा के साथ संलग्न रहते हैं तथा जन्म के साथ बच्चों में प्रकट होते हैं। जो उपयुक्त वातावरण में पोषण पाकर दृष्टिगोचर होते हैं। पातंजलि योग सूत्र में इस तथ्य का इस प्रकार रहस्योद्घाटन हुआ है-

‘‘क्लेशमूलः कर्मों शयो दृष्टादृष्ट जन्मवेदनीयः। सतिमूले तद्विपाको जात्यामुर्भोगाः॥’’

अर्थात्- ‘‘यदि पूर्व जन्म के कर्म अच्छे हैं तो उत्तम जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं। जब मनुष्य शरीर त्याग करता है तब इस जन्म की विद्या, कर्म और पूर्व प्रज्ञा आत्मा के साथ जाती है और उसी ज्ञान और कर्म के अनुसार जन्म होता है यानी वैसे ही संस्कार जन्म के साथ प्रकट होते हैं।’’

पुनर्जन्म की पुष्टि वैज्ञानिक आधारों पर भी होती है। भौतिकी के पदार्थ के अविनाशिता के सिद्धान्तानुसार न तो पदार्थ की उत्पत्ति होती है और नहीं विनाश की। मात्र उसका रूपांतरण ही होता है। इस रूपांतरण की प्रक्रिया में ही नित्य नये दृश्य दिखाई पड़ते हैं। पदार्थों का रूपांतरण ही उनका पुनर्जन्म है। प्रसिद्ध परामनोवैज्ञानिक डा. रेना रुथ ने अपनी पुस्तक ‘‘रिइनकारनेशन एण्ड साइंस’’ में भौतिकविद् क्लीफार्ड स्वार्डस के सिद्धान्त का उल्लेख किया है कि पदार्थ एवं ऊर्जा दोनों ही परस्पर परिवर्तनशील हैं। ऊर्जा परिवर्तित हो सकती अदृश्य हो सकती है, पर नष्ट नहीं होती। उन्होंने डी.एन.ए. (डिऑक्सी राइबो न्यूक्लिक एसिड) को संस्कार वाहक माना है। उनकी मान्यता है कि ‘‘डी.एन.ए. संस्कारों के साथ ही अदृश्य जगत में मृत्युपरांत अदृश्य रूप में विद्यमान रहता है तथा जन्म के समय पुनः प्रकट होता है। अब तो पुनर्जन्म के सिद्धांतों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के लिए हमें सबएटामिक एन्टीयूनीवर्स जगत में प्रवेश करना होगा।’’

पदार्थों की तरह जीवात्मा भी शरीर का रूपांतरण करती है। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानिगृह्णाति नरोऽपिरोण। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यान्यानि संयाति नवानिदेही॥

अर्थात्- ‘‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्याग कर, दूसरे नये वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नयी देह धारण करता है। शरीर का नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता।’’

जन्मजात प्राप्त क्षमताएं एवं प्रतिभाएं इस तथ्य की पुष्टि करती हैं कि मनुष्य की अर्जित बौद्धिक विशेषताएँ इस जीवन तक ही नहीं रहतीं वरन् अलग जन्मों में भी बनी रहती हैं। विश्व भर में कितने ही बालक ऐसे हुए हैं जो अल्पायु में ही असामान्य प्रतिभा सम्पन्न देखे गये। आधुनिक ग्रामोफोन के आविष्कारक एवं विद्युत लैम्प के जन्मदाता अमेरिका निवासी टामस एल्वा एडीसन ने मात्र दस वर्ष की आयु में सियर, बर्टन एवं गिलन के महान ग्रन्थों एवं डिक्शनरी ऑफ साइंस का अध्ययन पूरा कर लिया। पन्द्रह वर्ष की आयु में वे एक स्थानीय पत्र के सम्पादक बने। सापेक्षवाद को जन्म देने वाले अल्बर्ट आइंस्टीन के गणित के प्रश्नों की बौछार से सेकेन्डरी स्कूल के अध्यापक परेशान हो जाते थे तथा उत्तर देने में अपने को अक्षम पाते थे। 14 वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने भौतिक विज्ञान, बीजगणित, उच्च ज्यामिति जैसे विषयों में विशेषज्ञता प्राप्त कर ली।

माइकेल ग्रास्ट मिचिगन स्टेट यूनिवर्सिटी का प्रथम विद्यार्थी था जिसने मात्र 15 वर्ष की आयु में गणित जैसे क्लिष्ट विषय में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। एल्मर स्पेरी ने दस वर्ष की आयु में मसाला पीसने की मशीन बनाई, पानी के चक्र का आविष्कार किया। रेल मार्ग पर चलने वाली तीन पहियों वाली पैडल की गाड़ी बनायी। ‘बोनेटेरेकी’ को दो वर्ष चार माह की आयु में 3500 शब्द याद थे एवं प्रसिद्ध कवियों की 100 कविताएँ कठस्थ थीं। उसका बौद्धिक स्तर (आई.क्यू.) 185 आँका गया। जो असाधारण प्रतिभा से भी 45 अधिक होता है। मास्को की इर्मासोखादभे नाम नौ वर्षीय बालिका अठारह भाषाओं के दो सौ गाने गाया करती थी। तीन वर्ष की आयु में ही उसने सभी प्रकार के संगीत में विशेषज्ञता अर्जित करली।

जर्मनी का जॉन फिलिप नामक दो वर्षीय बालक फ्रेंच, जर्मन और लैटिन भाषा धारा प्रवाह बोलता था। पांचवें वर्ष में उसने बाइबिल का ग्रीक भाषा में अनुवाद करना आरम्भ कर दिया। छह वर्ष की आयु में वह बर्लिन की रॉयल एकेडेमी का सदय बना और पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। यह विश्व का पहला मेधावी बालक था जिसने इतनी कम आयु में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की हो। 19 वर्ष की अल्पायु में वह मर गया। जर्मनी का विलक्षण बालक ‘क्रिश्चियन फ्रेडरिक हीन केन’ जन्म के कुछ घंटों बाद ही बोलने लगा था। दो वर्ष की आयु में ही उसे बाइबिल के सभी प्रसंग याद हो गए। अमेरिकी बालक ‘विलियम जेम्स सिदिस’ दो वर्ष का था, तभी से पढ़-लिख सकता था। आठ वर्ष की उम्र में वह 6 विदेशी भाषाओं का जानकार था।

फ्रांस का जालुई कार्दियेक नामक बालक जन्म के तीसरे माह से ही वर्णमाला पढ़ने लगा था। तीन वर्ष की आयु में वह लैटिन भाषा पढ़ लेता था। फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा का वह लैटिन अनुवाद भली-भांति कर लेता था। हीब्रू और ग्रीक भाषाओं पर भी उसका पूर्ण अधिकार था। सातवें वर्ष में उसकी मृत्यु हो गई। इंग्लैण्ड का विलियम हेनरी बेट्टी ग्यारह वर्ष की आयु में अभिनय के क्षेत्र में विख्यात हुआ। बचपन से ही वह शेक्सपीयर के ‘नाटक’ में हैमलेट की भूमिका बड़ी कुशलता से निभाता था। इस अल्पायु में एक बार वह लंदन के क्वेंट गार्डन के रंगमंच पर पहली बार अभिनय के लिए उतरा तो इतनी अधिक भीड़ हुई कि उसे हटाने के लिए पुलिस बुलानी पड़ी। उसे प्रत्येक अभिनय के लिए ग्यारह सौ रुपये प्राप्त होने लगे थे। मैकाले दो वर्ष की आयु में की पढ़ लिख सकता तथा बुजुर्गों जैसी बात करता था। आठवें वर्ष में उसने विश्व का इतिहास नामक पुस्तक लिखी।

प्रो. हार्वी फ्रिडमैन ने 10 वें वर्ष में इंजीनियरिंग में पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। बिना मैट्रिक परीक्षा दिए ही उसने छट वर्ष की आयु में मैसाचुसेट्स इंजीनियरिंग कॉलेज में छह वर्षीय अभ्यास क्रम को पूरा कर लिया। जर्मनी का 9 वर्षीय बालक कार्लावट ने अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण ‘हीलिपजिंग विश्व-विद्यालय’ में प्रवेश पाने में सफल हो गया। चौदह वर्ष की आयु में उसे पी.एच.डी. तथा सोलहवें वर्ष में ‘डॉक्टर ऑफ ला’ की उपाधि प्रदान की गई।

विदेशी में ही नहीं, भारत में भी अनेकों व्यक्ति पैदा हो चुके हैं जो बाल्यावस्था में ही विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न थे। शंकराचार्य ने सोलह वर्ष की आयु में भारत के सभी मूर्धन्य विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया। मुगल सम्राट अकबर ने तेरहवें वर्ष में ही राजगद्दी संभाली थी। वह एक कुशल प्रशासक सिद्ध हुआ। छत्रपति शिवाजी ने तेरह वर्ष की आयु में ही तोरण का किला जीत लिया। रविन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी पहली प्रसिद्ध पुस्तक 14 वें वर्ष में पूरी की थी। भारत की प्रथम महिला गवर्नर श्रीमती सरोजनी नायडू ने चौदह वर्ष की अल्पायु में चौदह सौ पंक्तियाँ की एक गम्भीर कविता की रचना की थी। श्रीनिवास रामानुज केवल 32 वर्ष जिये, पर संक्षिप्त अवधि में गणितज्ञ के रूप में उन्होंने विज्ञान जगत को उपलब्धियां दीं, वे आज गणित शास्त्र का मूल आधार बनी हुई हैं।

बिना किसी प्रशिक्षण, अध्ययन के बचपन से ही प्रतिभा सम्पन्न उपरोक्त व्यक्तियों के जीवन क्रम का अवलोकन करते हैं तो उनके असामान्य होने का प्रत्यक्ष कोई कारण हाथ नहीं लगता है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त को जोड़ देने भीतर से गुत्थी सुलझ जाती है। कर्मों का फल इसी जीवन में मिले यह आवश्यक नहीं है। वह विशिष्ट प्रतिभा, योग्यता अथवा अनुकूल प्रतिकूल परिस्थितियां साथ लिए दूसरे जीवन में प्रकट होता है। प्रचलित भाषा में इसे ही ‘भाग्य’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है। जन्म से ही प्राप्त अनुकूलताओं अथवा प्रतिकूलताओं का भी कोई प्रत्यक्ष कारण ढूंढ़ने पर नहीं मिलता है। इनकी व्याख्या कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्तों के आधार पर ही की जा सकती है। पुरुषार्थ के बलबूते अनुकूल परिस्थितियाँ, योग्यता, क्षमता अर्जित कर लेना सम्भव है। एक सीमा तक प्रारब्धों को भी बदला जा सकता है। वातावरण एवं आनुवाँशिकी का भी एक सीमा तक प्रभाव पड़ता है। इतने पर भी उपरोक्त प्रमाण पुनर्जन्म के सिद्धांतों को ही प्रतिपादन करते हैं।

भले-बुरे कर्मों का प्रभाव न केवल इस जीवन तक वरन् अगले जीवन में भी संस्कारों के रूप में भी परिलक्षित होता है। अर्जित योग्यता एवं प्रतिभा भी सूक्ष्म संस्कारों के रूप में दूसरों जन्म में भी बनी रहती है। वह न केवल इस जीवन में वरन् दूसरे जीवन में भी विकास अथवा पतन का कारण बनती है। वैचारिक एवं वैज्ञानिक दृष्टियों से भी ज्ञान की महत्ता भली-भांति प्रमाणित है। इस तथ्य को समझने के पुनर्जन्म के सिद्धान्त न केवल सहायक हैं, वरन् सद्प्रेरणाएं देने में भी पूर्ण रूपेण सक्षम हैं।


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